Saturday, March 27, 2010

बचपन की याद करता हूँ तो एक बात जेहेन में कोंध जाती है कि चाहें कैसी स्थिति आई, माँ के पास हर एक स्थिति के लिए कोई ना कोई मुहावरा, कहावत, मिसरा, या पद ज़रूर होता था. हम मैच हारे, मुंह लटकाए घर आते थे तो पता था कि माँ क्या कहेंगी. अरे बस वही, "गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ऐ-जंग में." पता नहीं कभी किसी ने इस मिसरे का मानी बताया भी या नहीं, पर समय के साथ-साथ अपने आप मतलब पता चल गया. बस, उसी तरह से, जैसे रूसी बगुलों को हमारे घर के पास के तालाब का पता साल-दर-साल अपने आप लग जाता था. गर्मियों में उनका झुण्ड का झुण्ड ना जाने कहाँ से उड़ता चला आता था और बड़े अधिकार से वह तालाब में अपना घर कर लेते थे. यह "घर करना" भी हमने बचपन में माँ से सीखा था. जब पापा का तबादला एक शहर से दूसरे शहर होता, और हमें नया घर मिलता तो माँ कहती, "चलो सामान खोलो, अब कुछ दिन यहाँ घर करना है." घर करने के लिए सबसे पहला काम होता था कि कोई आला-दिवाला या अलमारी ढूंढ कर वहाँ ठाकुरजी बिठा दिए जाते थे, उनका एक बड़ा आरती-भोग हो जाता था, और बस हम लोग फिर नए घर में घर कर लेते थे, बिलकुल रूसी बगुलों कि तरह. पता होता था कि किसी एक दिन फिर डेरा उठाना है और कहीं और घर करना है. डेरा उठाना भी माँ बहुत जोश-खरोश के साथ किया करती थीं, कभी गातीं जाती, "सब दरसन का मेला, उड़ जायेगा हंस अकेला" कभी गुनगुनाती, "तेरा तुझको अर्पण, प्रभूजी क्या लागे मेरा?" फिर से कनस्तर, बक्से, थैले, डिब्बे, पेटी और बिस्तरबंद निकले जाते. झड़ाई-सफाई होती. सामान पेक होता. मेरा काम होता सामान पर लेबल लगाना. इस बक्से में "चंद तस्वीरें बुतां" और इस पेटी में "चंद पुराने खतूत." माँ कहती, "कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती नें कुनबा जोड़ा." फिर से कारवां चल देता दूसरे नखलिस्तान. माँ स्वतः ही कहती, "ऊंट बनाए खुद अपना रस्ता, रेगिस्तान कौन सा खच्चर के बस का?" जी हाँ, आपने सही पहचाना, बहुत सी कहावतें तो माँ की अपनी कही हुई होती थीं. एकदम से उसी वक्त निकली ताज़ी-ताज़ी. मैं हँसता, "क्या माँ? हिंदी में ऐसी कोई कहावत नहीं है." तो वह कहतीं कुछ नहीं बस अपने में मगन गुनगुनाती रहतीं.

इतने बरस बीत गए, पर वह सारी प्रमाणिक, स्व-रचित, यहाँ की, वहाँ की, इधर की उधर की, जग कही, माँ की कही कहावतें आज भी मेरे साथ हैं. मेरे जीवन के सफ़र में मेरी दुःख-सुख की साथिन रहीं है, और मेरे बचपन की हमजोली हैं. मैंने सोचा इतना बड़ा भंडार है इनका जिसने मेरे मन में घर किया हुआ है, एक ना एक दिन इनका डेरा भी मेरे मन से उठ जायेगा. इससे पहले की यह हो, मैं उनको किसी बक्से में, किसी पेटी में समेट लूं, और फिर किसी पुस्तक के ऊंट पर चढ़ा दूं, तो शायद यह भी पहुच जाये किसी दूसरे नखलिस्तान. "ऊंट बनाये खुद अपना रस्ता" पर "ऊंट चाहे मिलना किसी कारवां से." आप आएंगे मेरे कारवां में? मैं हर दिन पैक करूगां एक मुहावरा, या एक कहावत अपने ब्लॉग में, जिसके साथ होगी एक चटपटी, मज़ेदार कहानी मेरे बचपन की. मैं यह सब ज़रूर करूंगा, बशर्ते की आप पढ़ें ज़रूर उसे और उस पर अपना फीडबेक दें मुझे. उसी फीडबेक के आधार पर ही तो मैं सजाऊँगा -सवारूँगा पूरे कारवां को, और संकलित कर पाऊँगा एक ई-पुस्तक के रूप में. तो हो जाये-माँ की कहावतों का कारवां?

8 comments:

charu's blog said...

Sanjay bhai, we look forward to walking down memory lane with you.

Kamaksha Mathur said...

बहुत सुंदर!!
सच कहा आपने, क्या उन दिनों की माओं के पास बहुत सारे मुहावरें और कहावते होती थी अपने बच्चों को सीख देने के लिए....जो सारी ज़िन्दगी सहारा देती हैं और रास्ता दिखाती हैं ???...........
It would be interesting to read your experiences related with these phrases.

अमित माथुर said...

जय राम जी की, बेहद नाज़ुक बात को बहुत खूबसूरती बयां किया है आपने. बस समझिये गागर में सागर भरने जैसा है. हमारी पुरानी दिल्ली की रिहायेश में ज़िन्दगी इन मुहावरों और कहावतो में इतना ज्यादा रच-बस जाती है की हमे पता ही नहीं चलता की हम कितनी महान संस्कृति को अपने साथ लिए चल रहे हैं. आज आपके इस छोटे से ब्लॉग ने हमें बहुत सारी यादें ताज़ा कर दी हैं. सचमुच दूर के ढोल बहुत सुहावने लगते हैं. आपसे माथुरो की संस्कृति के और भी बहुत से किस्से सुनने को मिलेंगे ऐसी आशा है. -अमित माथुर

Anupama Krishnamurthy said...

Dear Sanjay Bhai,
I am a fan of yours. From the most delicate feeling to the harshest reality of life, you have a a way of making everything seem gentle and beautiful.

I will keep "listening" to the music of Door Ke Dhol.

Best Wishes,
Anupama

Unknown said...

Looking forward to more. Our mothers and grandmothers sayings had an immense impact on us. Fantastic idea!

सम्वेदना के स्वर said...

ज़मीन से जुड़े मुहावरे और कहावतें जिन्हें हम लोकोक्तियाँ कहते हैं वास्तव में जन जन की बोल चाल से निकले हैं.. हमारी माँएँ जिन बातों को सहजता से कह देती थीं सिनेमा के पर्दों पर उन्हीं बातों को सुनकर हम कहते हैं क्या डायलॉग बोला है..

shama said...

Bahut sundartase aapne sansmaran dwara bachpanka safar kara diya..maa ke muhavre/kahawatonka intezaar rahega!

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें