Sunday, March 28, 2010

तो फिर?

यह उन दिनों की बात है जब बहुत लोग कंप्यूटर के बारे में नहीं जानते थे और मैंने पढने-लिखने के बाद यह निश्चय किया कि मैं प्रोग्रामर बनूँगा. मुझे टाटा कंसल्टिंग में प्रोग्रामर की पोजीशन मिल गई और मेरी ट्रेनिंग बॉम्बे में हुई. जो हाँ, यह तब की बात है जब हम सब मुंबई को बॉम्बे के नाम से ही जानते थे. बड़ी-बड़ी बाते पढाई गई - वर्क फ्लो, स्ट्रकचर्ड डायग्राम, डिजाईन, प्रोग्रामिंग वगेरा, वगेरा. घर लौट के आये तो करने लगे बड़ी-बड़ी बातें. सब चकित, यह कौन से भाषा सीख कर आ गया बम्बई से, पता ही नहीं चलता कि क्या बोल रहा है.

उस दिन मम्मी किसी के लिए टी-कोजी बना रही थी. यदि आपको अभाग्यवश यह न पता हो कि टी-कोजी किस बला का नाम है तो मैं आप को बता दूँ कि आपको किसी अच्छे चाय-घर में जा कर, टी-कोजी से ढकी और ब्रू की हुयी चाय पीने की सख्त ज़रुरत है. खैर, वह टी-कोजी मुर्गे की आकृति में थी, और उस के पंख काढने का व्यस्त कार्यक्रम चल रहा था. मम्मी ने अपना सिलाई-कढ़ाई का संदूक खोला हुआ था और उनकी भाषा में वह "भानुमती का पिटारा" था जो छोटी-छोटी गठरियों से ठूसा रहता था. राम जाने किस गठरी में क्या भरा रहता था. मम्मी हालचाल तो मुझसे पूछ रही थीं, पर बातें करते -करते कभी एक गठरी खोलतीं तो कभी दूसरी. कभी इसमें से कोई कतरन निकल कर टी-कोजी पर लगतीं, अविश्वास से सिर हिलातीं और वापिस गठरी में बांध देतीं. फिर कभी अचानक कुछ सोच कर संदूक की निचली तह में हाथ डाल कर दूसरी गठरी निकालतीं, और कुछ खोजने लगतीं. इस सारी प्रक्रिया में उनका भजन गुनगुनाना भी चालू रहता. बीच-बीच में हमारे बावर्ची रामभरोसे को डांट भी देती, "अरे कोई तो बताओ इस रामभरोसे को कि प्रेशेर कुकर उतार दे, सीटियों पे सीटियाँ आ रहीं हैं. सारे घर में शोर है, सिरिफ इसी मरे को सुनाई नहीं देता..."

मैंने पूछा, "मम्मी, आपको इतनी मशक्कत करनी पड़ती है कढ़ाई की चीजें ढूँढने में, इसीलिये आपको चिडचड़ाहट होती हैं. आप यह सारा सामान क्लासिफाई क्यों नहीं कर लेती. इससे आपका वर्क फ्लो भी ठीक हो जायेगा, और आपका सिलाई-कढ़ाई का प्रोग्राम एरर फ्री."

"अच्छा! तो कैसे करेगा यह सब, भला?"

मैंने कहा, "यही तो सिखाया गया है हमको, माँ! अरे, एक दिन का काम है, थोड़ी सोर्टिंग करेंगे, कुछ मर्जिंग, अलग-अलग बिन तैयार करेगें जिसमे होगा आपका सिलाई का और कढ़ाई का सामान क्लासिफाइड. फिर मैं बना दूंगा एक इंडेक्स, बस आपको जो ढूंढना है फटाफट मिल जाएगा."

"एक बात तो है बेटा! यह टाटा लोगों ने पता नहीं क्या पढ़ाया कि तेरी बातें मेरी समझ में नहीं आती. खैर, अगर मेरा, क्या कह रहा था तू? वर्क फ्लो बेहतर हो जायेगा तो कर, जो तुझे सिखाया है हम भी देखें, मनखत माने. जंगल में मोर नाचा किसने देखा? जो घर के, घरवालों के काम आये, वही तो असली हीरो."

फिर एकदम से माँ ने कुछ हवा में सूंघा, और हाथ में रखा सारा सिलाई-कढ़ाई का सामान सामने पटका और लपक कर दौड़ी किचिन की तरफ, "अरे, मरे! जला दी ना दाल. नहीं मेमसाब क्या? मुझे क्या सारे मोहल्ले को पता है करतूत पूत की, बस ना जाने तो अम्मा ही ना जाने. सारे में बदबू भरी और फिर पूछें एक-दूसरे से कि तू नहीं नहाया या मैं? अरे, तुझे ना सुनाई पड़े, ना सुंघाई पड़े, किसने बावर्ची बना दिया? चल बाहर निकल."

मैंने हँसते-हँसते माँ की सिलाई-कढ़ाई का सामान टटोलना शुरू किया. माँ का गुस्सा तो मुझे पता है दूध के उबाल जैसा है. अभी लगेगा की इतना सारा है कि उबल कर पूरा भगोना ही ख़ाली हो जायेगा. आग से उतारो तो ऊपर मलाई ही मलाई दिखाई देगी. अभी दो मिनट में फिर आवाज़ देंगी "कहाँ मर गया रामभरोसे? अच्छा, मेमसाहेब ने ज़रा सा डांट क्या दिया कि बाहर चला गया? किचेन कौन सम्हालेगा? तेरी माँ कभी नहीं डांटती तुझे? तो फिर?"

माँ का यह प्यारा फ्रेज़ था, "तो फिर?" इसका इस्तेमाल भिन्न-भिन्न होता था, पर अर्थ एक, "माँ से जीतेगा, कमबख्त?"

माँ से कौन जीते? पर देखो तो यह बाप रे, बाप! यहाँ तो कोई स्पेसिफिकेशन ही नहीं है...बटन के डिब्बे में सुई? और यह क्या? सुई के डिब्बे में काली पेन्सिल और कोपर का तार? देखो, यह रेसिपी का कागज़ फूलों के डिजाईन के साथ? कतरनों की गढ़री में पुराना कार्बन पेपर? पता नहीं कितनी बार इस्तेमाल हुआ है बेचारा, रखूँ इसे या फ़ेंक दूँ?

मैं अति उत्त्साहित था. मुझे एक यह अनुपम मौका मिल रहा था जिससे मैं अपने नए ज्ञान का एक छोटा सा नमूना घरवालों को दे सकता था. बस, इस स्थिति में मुझे करना है कुछ सोर्ट और कुछ मर्ज, फिर अलग अलग बिन्स में क्लासिफाई करके लेबलिंग. बस फिर मैं माँ का वर्क फ्लो ही बदल दूंगा. दौड़ कर मैं पुराने
जूते के डिब्बे ले आया. इसमें रखूंगा बटन्स, सुई का डिब्बा तो है ही, उसमे केवल सुई ही होगी. इस बिस्कुट के डिब्बे में तो सलाई ही ठीक हैं. नए डिब्बे में छोटी करतने, इधर सारे डिजाईन, उधर सारे पेन-पेंसिल कार्बन पेपर वगेरा...

जब तक माँ ने लंच के लिए रामभरोसे के साथ सिर खपाया, पापा को खिलाया, मुझे दस बार बुला-बुला के थक-हार कर सारा खाना पुरानी जाली की अलमारी में रखवाया, आफ्टर-नून का सिएस्ता लिया, मेरा प्रोजेक्ट पूरा हो गया था. शाम हो चली थी और रामभरोसे चाय बनाने में व्यस्त था. और बाकी घरों में शायद चाय बनाना एक रोजाना का काम रहता होगा, हमारे यहाँ तो इसका पूरा आयोजन होता था. अगर चाय में रंगत (बॉडी) कमज़ोर हो, या खुशबू (अरोमा) में कोई कमी हो, तो पापा या मम्मी या कोई भी चाय पर नाक मार के बैठ जायेंगे, और शामत आएगी रामभरोसे की. "इत्ती ग्रीन लाबेल और उत्ती रेड लाबेल डालने को दी, बेवकूफ ने फिर उबाल दी चाय. देखो कैसी काढ़ा सी बनी है." कभी चाय काढ़ा सी होती कभी मुतैली सी. चाय यदा-कदा ही सही बनती और उस दिन मम्मी की हम्मिंग से या पापा के मूड से पता चल जाता कि आज चाय सही बनी है.

तो उस दिन चाय ठीक थी और इसीलिए सबका मूड बहुत अच्छा था. राम भरोसे भी शांति के साथ किचिन में काम कर रहा था. मम्मी ने सबको बता दिया था की देखो संजय मेरा सिलाई-कढ़ाई का सामान क्लासिफाई कर रहा है और कहता है कि उससे मेरा वर्क फ्लो बेहतर हो जायेगा. पापा ने मुस्कुराते हुए पूछा, "तो इसका मतलब अब रामभरोसे कम डांट खायेगा?" तो मम्मी ने चेहरे पर "क्या है?" का भाव ला कर अपने अंदाज़ में कहा, "आप भी ना, कम से कम बच्चों के सामने तो..."

फिर जो माँ ने अपने सिलाई-कढ़ाई का सामान जूतों के डिब्बों में रखे देखा तो परेशान हो गई, "अरे यह सामान जूते के डिब्बों में?" मैंने कहा, "मम्मी, यह बिन्स हैं, क्लासिफाई करने के लिए, देखो इसमें है बटन, इसमें डिजाईन, और ...."

"अरे मगर जूते के डिब्बों में?"

बात वहीँ से बिगडनी शुरू हो गई. मैंने देखा पापा धीमे-धीमे मुस्कुरा रहें है, और मम्मी की भवों में ऐसे बल पड़ रहें है जो लगता था कि जल्दी जाने का नाम नहीं लेंगे.

"तो क्या होगा इससे. इन बिनों से?"

"बिनों से नहीं, जी! बिन्स से..." पापा ने अपने दायें हाथ के अंगूठे और तर्जनी की चुटकी बना कर नाटकीय अंदाज़ से कहा. फिर एक डिब्बे को उठा कर पास से देखने लगे.

मैंने मौका देख कर माँ को समझाने वाले अंदाज़ में कहा, "तुम बिना देखे नाक मार रही हो, मम्मी. मैंने इतनी मेहनत से काम किया है और यह जूते के डिब्बे तो बदल भी सकते हैं न. धीरे-धीरे, एक एक करके इन्हें बिस्कुट के डिब्बों से बदल देंगे. इतने समय के लिए बस यह समझो की यह बिन्स हैं."

"जूते के डिब्बे में कोई सिलाई का समान रखता है? बिन्स है. क्या करेंगे यह बिन्स?"

"यह कुछ नहीं करेंगे, करोगी तुम ही, मम्मी. पर देखो तुम्हारा काम कितना सरल हो जायेगा. कतरन चाहिए तो यह डिब्बा खोले. कतरन निकालो देखो, परखो. सुई चाहिए तो इस डिब्बे से सुई निकालो सीओ, वापिस इसमें रख दो. अब तुम्हें पता रहेगा की किस बिन में क्या है. देखो, देखो."

माँ ने कुछ विस्मय और कुछ अरुचि से कतरन के डिब्बे को देखा. कहने लगीं, "इसके साथ कार्बन पेपर था कहाँ गया?" मैंने बताया कि वह कहाँ है तो बोली, "इसे वापिस कतरनों में रखो."

"क्यों?"

"अरे क्यों क्या, जब मुझे कतरन चाहिए तो कार्बन-पेपर भी."

"मगर रखो तो अलग-अलग."

"अरे? कढ़ाई किसे करनी है, तुझे या मुझे?...और बटन के साथ छोटे मोती थे वह कहाँ गए?"

"दूसरे डिब्बे में, यहाँ."

"वहाँ क्या कर रहें हैं? मुझे मुर्गे के पंख बनाने हैं, एक बटन और एक मोती साथ लगता है."

"तो एक बटन यहाँ से निकालो, एक मोती वहाँ से..."

"और सारा दिन यही करती रहूँ, इस डिब्बे से बटन, उससे मोती, इधर से कार्बन-पेपर, उधर से कुछ और. अरे कुछ और क्या, मुझे तो अब मालूम ही नहीं है कि कहाँ क्या है. हे मेरे भगवान!"

"तुम एक बार ऐसे कर के तो देखो."

"कमाल है, कढ़ाई किसे करनी है, तुझे या मुझे?"

"कढ़ाई तो तुम्हें ही करनी है माँ, मैं तो तेरा वर्क फ्लो ठीक कर रहा था."

"वर्क फ्लो किसका है? तेरा या मेरा."

"तुम्हारा ही है, माँ, पर.."

"तो फिर?"

पापा ने मुझे शेक्स्पेरियन स्टाइल में देखते हुए मगन अपने ही अंदाज़ में दोहराया, "तो फिर?"

इस "तो फिर?" का जवाब तो सारी ज़िन्दगी मुझे नहीं मिल पाया. जी हाँ, अगले दिन ही मम्मी की सिलाई-कढ़ाई का सारा सामान वापिस गढ़रियों में पहुँच गया, और तब तक वैसा ही रहा जब तक उनकी सिलाई-कढ़ाई का सिलसिला चलता रहा. पर मैं आपको यह बताना तो भूल ही गया कि उस रात जब सारा तूफान शांत हो गया, और मैं मुंह लटकाए बरामदे में बैठा हुआ था, पापा खुद चल कर मेरे पास आये और कहने लगे, "बेटा, जो बात मैं सारी ज़िन्दगी तेरी मम्मी को न समझा पाया, कम-से-कम तुमने वह कोशिश तो की." इस बात पर मैं खिसियानी से हंसी हंस तो दिया पर सोचता रहा की कहाँ पर मेरी ट्रेनिंग फेल हो गई. इतने दिनों बाद भी उस दिन की सीख जो माँ मुझे सिखा गई, "वर्क फ्लो तेरा है या मेरा?...तो फिर?" मेरे साथ बराबर रही. उस दिन के बाद मैं किसी का वर्क फ्लो इम्प्रूव करने के प्रयास करने से पहले उससे पचास बार पूछ लेता हूँ कि भाई तेरा वर्क फ्लो क्या है.

आप भी कभी अपने बच्चे के कमरे की दुर्दशा पे रोने की बजाय सोचियेगा की शायद उसमे भी कोई ऐसा डिजाईन पेटर्न हो जो बच्चे के लिए काम कर रहा हो, पर हमारी-आपकी समझ के बाहर हो? तो फिर?

5 comments:

Kamaksha Mathur said...

Very very interesting...बहुत मज़ा आया पढ़ कर और ताई जी की याद भी ......!!!

Unknown said...

बहुत मज़ा आया पढ़ कर

Unknown said...

kahani ghar ghar ki hai sir jee. mere ghar mein bhee silai ka ek dabba hai! thorughly enjoyed this

Unknown said...

Very practical and so also quite sentimental

RR said...

hello sanjay!
beautiful. abhi tak hamey bhi apna workflow samaj nahi pa rahey hain!
raji