Wednesday, April 28, 2010

कांजीवरम इडली
[यह किस्सा मैंने पहले फेसबुक पर लिखा था. पर बहुत से लोगों ने इसे नहीं पढ़ा था, तो इस को यहाँ लगा रहा हूँ, उन सब से क्षमा याचना के साथ, जिन्होंने इसे पहले पढ़ा है.]

मेरे एक मित्र हैं जिन्हें हम मगर के नाम से बुलाते हैं. नहीं, उनका असली नाम मगर नहीं है, और मगरमच्छ आदि से उनका कोई दूर दूर तक सम्बन्ध भी नहीं है. बात यह है कि उनके पास एक अनोखी प्रतिभा है. आप कुछ भी, अच्छी से अच्छी बात बताएं, सुन कर वह ग़मगीन हो जायेंगे. कहेंगे कि "हाँ, यह तो ठीक है, मगर उसका क्या?" मज़े कि बात यह है कि "मगर भाई" हर अच्छी खबर का कोई इतना खतरनाक पहलू निकाल लायेंगे कि कुछ पल पहले आपके चहरे पर जो चमक थी वह उड़ जायेगी और रह जायेगी एक बदहवासी. आप सोचते रह जायेंगे कि मगर यह तो हमने सोचा ही नहीं था. फिर एक बार आपके काल्पनिक सुन्दर सफ़ेद बगुले को मगर खा जायेगा. मैंने मगर भाई से इतना कहा कि भैया! मैं ठहरा एक कवि, मुझे कुछ देर तो अपनी काल्पनिक दुनिया में खुश रहने दिया करो, कुछ देर तो अपने मगर को बाँध कर रखा करो. जब मेरी कल्पना कि उडान थोडी पुरानी हो जाये, तो धीरे से मगर को बाहर निकला करो. मगर नहीं, मगर भाई का मगर तो खुला घूमता है.

कल मेरी कांजीवरम इडली खाने की तीव्र इच्छा हुई. आप भी कहेंगे कि क्या यार, तुम्हारी इच्छा भी क्या स्पेशल है, हुई भी तो कांजीवरम इडली खाने की. क्या करें, दिल ही तो है, उस पर यह कमबख्त TV वाले! एक प्रोग्राम दिखाते हैं "यह है इंडिया." सुन्दर सी नीलगिरी वादियों में बसा एक छोटा सा गाँव, गाँव में एक छोटी-सी दूकान. देखिये यहाँ पर इस हरी-भरी वादी में यह कैसे सुन्दर बादल छाये हुए हैं. क्या आप महसूस कर सकते है खुशबु की नाचती हुई लहरें. जी हाँ! नाचती हैं खुशबु की लहरे यहाँ, सुबह-सुबह, जब इस दूकान पर कांजीवरम इडली बनती है. लोग दूर-दूर से आते हैं, बस कांजीवरम इडली खाने और फिल्टर काफ़ी पीने. कैमरे का एंगिल घूमता है, दिखती है कारों की लम्बी कतार. लोग यहाँ-वहां बैठ कर कांजीवरम इडली खा रहे है. लुक-आउट पॉइंट से सुन्दर मनभावन दृश्य देख रहें है और प्लास्टिक के कप में गर्मागर्म काफी पी रहे हैं. एक नॉर्थ इंडियन कपिल इडली में छिपे मसाले से उत्तेजित हो कर सी-सी कर रहा है. दूर एक माता जी बैठी ऊँगली से नारियल चटनी चाट रही हैं. एंकर लेडी फ्रेम में आती है. वह उस नॉर्थ इंडियन कपिल से मुखातिब है. आदमी से पूछ रही है, "भाई-साहब! आपने कितनी इडली खायी हैं?" भाई-साहब बस मुस्कुरा रहें है, कुछ बोल नहीं पा रहे हैं. पर उसके चहरे का नूर बता रहा है कि उसने छक कर कांजीवरम इडली खाई हैं. उनकी पत्नी बीच में आ कर कहती है, "हाय, इतनी खाई, (कूदते हुए), इतनी खाई, कि बस, पेट जो है न वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक ठसाठस भर गया." यहाँ कैलिफोर्निया में बेठे, यह प्रोग्राम देखते मेरी आँखों के सामने ऐसा खाका खिच गया कि मुझे लगा कि अगर मुझे अभी के अभी कांजीवरम इडली नहीं मिली तो मेरा पेट कश्मीर से कन्याकुमारी तक हड़ताल कर देगा. कांजीवरम इडली की खुशबू की याद, फिल्टर काफ़ी की सुहास और नीलगिरी जाने की आस सब एक फितना बन कर मेरे ज़हन से चिपट गए और मैं थूक निगलता, लार टपकता अपनी कल्पना की दुनिया में खो गया. काश, अगर मैं इंडिया में होता तो सब कुछ छोड़ कर बंगलोर चला जाता. वहां से नीलगिरी की पहाडियां, वादियां, सुन्दर दृश्य. अगर मेरे पास समय होता तो मैं तो इसी गाँव में बस जाता. अगर कांजीवरम इडली और अनलिमिटेड फिल्टर काफ़ी मिलती रहे तो और क्या चाहियें? अगर, अगर अगर...

मगर मैं "अगर" पर था, उधर से "मगर" आ रहा था. देख के कहने लगा, "तुम्हारे चहरे को देख के लग रहा है की तुम्हे कोई कविता या कहानी लग रही है. मैं उसके जन्म होने के बाद तुमसे मिलता हूँ." मैंने कहा, "नहीं भाई! मुझे कोई कविता या कहानी नहीं आई है, बस कांजीवरम इडली खाने की तीव्र इच्छा हो रही है." मगर भाई कहने लगे, "अच्छा, कांजीवरम इडली, वह जो मसालेदार होती हैं." मैंने कहा, "हाँ, और नारियल चटनी साथ हो तो बस, याद है कैसा मुंह खुल जाता है कि बस खाते जाओ, खाते जाओ."

मगर भाई ग़मगीन हो गए, कहने लगे, "स्वादिष्ट तो होती ही है, मगर पता है उसमे कितनी केलोरी होती हैं?" मेरी कल्पना की उडान में आया व्यवधान. यह तो मैंने सोचा ही नहीं. मैंने कहा, "नहीं. कितनी?" कहने लगे, "एक इडली में करीब ७५ केलोरी होती हैं. एक दो खाओ तो ठीक, मगर खाते जाओ, खाते जाओ तो बहुत हो जाती हैं." मैंने कहा, "यार ठीक है. जिम में आधा घंटा और लगा देंगे." मगर भाई कहने लगे, "हाँ जिम जाना तो अच्छा है, मगर आधे घंटें में कितनी सी केलोरी बर्न होंगी? ज्यादे-से-ज्यादे ४०० केलोरी? अगर तुम सोचो, नारियल चटनी के साथ ६ इडली खा लीं तो ७५ छकका ४५०, और नारयल चटनी के पकडो ३५० तो ७५० तो यह ही हो गए. अनलिमिटेड काफी के अलग." मैं अभी सकते में आया ही था कि उसने एकदम से फिर पूछा, "चीनी डालोगे?" मैं चौंका, "किसमे?" कहने लगे, "कोफी में." मैंने कहा, "ज़रूर डालूँगा. मसाले वाली इडली खाने के बाद मीठी गरम फिल्टर काफ़ी का मज़ा ही कुछ और है." मगर भाई कहने लगे, "तुम पिओगे तो दो-तीन काफी तो पी ही जाओगे. तो समझो १५० केलोरी हो गए उसके. कुल हो गई ९०० केलरी. जिम जाना तो ठीक पर आधे घंटे ज्यादे जाने से क्या फर्क पड़ेगा?" मैंने मगर भाई को रोक कर कहा, "यार! कहाँ रखते तो यह सारा डाटा?" गर्व से सीना फुला कर मगर भाई बोले, "अरे सारा का सारा इन्टरनेट भरा हुआ है, मगर तुम देखते ही नहीं." मेरी कल्पना की उडान अब तक नीचे आ कर कई बार ज़मीन से टकरा चुकी थी. झुंझलाहट में मुंह का सारा जायका भी ख़राब हो गया था. अब तक जो यादों की खुशबू शराब का नशा लग रही थी वह हेंग-ओवर की तरह चुभने लगी थी. क्रिकेट की हारती हुई टीम के कैप्टिन की तरह मैंने कहा, "अगर-मगर कुछ नहीं, अगली बार मैं इंडिया जाऊँगा तो कांजीवरम इडली छक कर खा के आऊँगा." मगर भाई कहने लगे, "वह तो ठीक है, मगर तुम तो लखनऊ जाते हो, कांजीवरम इडली कहाँ से खाओगे." मेरी आँखों में अब तक आंसू आ गए थे और आवाज़ भर्रा गई थी. पहले ओवर की पहली गेंद पर आउट हुए ओपनिंग बैट्समैन की तरह से मैंने अपने हाथ झटके, आँखे रोल की, जोर से ठंडी सांस ली और एक मोटी से गाली देते हुए बोला, "मगर भाई, पिच गीला था, फिर भी मैं खेला. अब और नहीं, कोई अगर-मगर नहीं, मैं कांजीवरम इडली खाऊँगा, खाऊँगा और देखता हूँ कौन मुझे रोकता है. मैं लखनऊ नहीं, बंगलोर जाऊँगा. हफ्तों तक बस कांजीवरम इडली खाऊँगा. भाड़ में गई केलोरी और उसकी अम्मा."

मगर भाई कहने लगे, "यार आप आदमी अच्छे हो, मगर बड़े इमोशनल हो." मैंने कहा, "हाँ, अभी तुम यहाँ से चले जाओ, नहीं तो तुम्हे कांजीवरम इडली उठा-उठा के मारूंगा, मगर भाई!" मगर भाई बोले, "यह तो ठीक है, मगर कहाँ है कांजीवरम इडली?" पहली बार मुझे लगा कि यह साला मगर कह तो सही रहा है, कहाँ है कांजीवरम इडली?

Tuesday, April 20, 2010


"बीच का बीज"

आधुनिक संभ्रांत मानव को यह बात कचोटती है कि उसकी वजह से प्रकृति-माता प्रदूषित हो गई, जंगल नष्ट हो गए, सारा प्राकृतिक सौंदर्य चला गया. मैं सोचता हूँ, यह भान होना तो बहुत अच्छी बात है, इससे नये प्रयोग होंगे, हमारे रहने और सोचने के तरीके बदलेंगे, प्रदूषण कम होगा--धरती माँ फिर से हरी-भरी होंगी. पर यदि इस बात से आज का मानव मन में एक ग्रंथि बना ले, और सोचे कि उसे इस दुनिया में आना ही नहीं चाहिए था, वही वजह है प्रकृति माता की दुर्गति के लिए, और दुखी हो कर बैठ जाये... तो संभवतः यह ठीक नहीं होगा. या तो उसे या फिर प्रकृति माता को कुछ करना पड़ेगा ताकि स्थिति बेहतर हो. सही कहा न मैंने? आप सोच रहें होगे कि यह तो ठीक है, पर इस बात का मेरे बचपन से, बचपन की मेरी माँ से, उसके सर्व-साधारण मुहावरे, कहावतें, और जन-श्रुति से क्या सम्बन्ध है?

मज़े की बात है कि सम्बन्ध है. आज आपको बताता हूँ. मुझे बचपन में बहुत बार यह सुनने को मिलता था कि "तुझे पता है बेटा, तेरी माँ कितनी सुन्दर थी जब उसकी और तेरे पापा की शादी हुई? गोरा रंग, गुलाबी आभा और सुन्दरता ऐसी कि सारे शहर में शोर मच गया कि चलो देख कर आयें डॉक्टर साहिब के घर परी जैसी बहू आई है." मैं कहता, "सच्ची भुआ!" भुआ कहती "और क्या!"

मैं अविश्वास से माँ को देखता: एक साधारण-सी धोती पहने हुए, अपने आधे काले और आधे सुफेद होते बालों को कंघी करती, घर का सारा काम निबटाती हुई माँ को! और सोचता कि "मेरी माँ, परी? सच्ची?" फिर-फिर पूछता, "माँ! अपनी परी वाली कहानी सुनाओ." तो माँ हंस देती, "अब क्या सुनाये बेटा. पांच-पांच बच्चों को पेट मैं रखा, कहाँ रह गई वह परी?" और मैंने धीरे-धीरे मन में गांठ बंध ली, "हाय! हम पांच भाई-बहन माँ के पेट में पले, तो माँ तो परी से माँ हो गई. कितना बड़ा नुकसान कर दिया माँ का हमने. तभी तो माँ मुझे इतना डांटती है. मैं गन्दा बच्चा हूँ, क्या ज़रुरत थी मुझे पैदा होने की?"

वैसे तो माँ को क्या पता चलता की मन ही मन मैंने निर्णय कर लिया था कि मैं एक सुन्दर सी, कोमल सी परी को साधारण-सी माँ बनाने का दोषी हूँ, और मुझे तो पैदा ही नहीं होना चाहिए था. पर हुआ यह कि मैं उस दिन जिद कर बैठा, और कुछ ज्यादे ही परेशान किया होगा माँ को कि वह सिर पर हाथ रख कर बैठ गई और पापा से कहने लगी, "देखो जी, यह शहर अच्छा नहीं है. यहाँ संजय की कम्पनी उज्जड लड़कों से होती है, बिगड़ता जा रहा है, कोई बात नहीं सुनता, ऐसे कैसे चलेगा? आप अपना ट्रान्सफर किसी अच्छे शहर में करवा लीजिये वर्ना..." यह बात मेरे सुनने की सीमा में कही गई थी तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने चीख कर कहा, "हाँ, मैं उज्जड हो गया हूँ. तुम लोग किसी अच्छे शहर चले जाओ, मैं यहीं रहूँगा उज्जड बच्चों के साथ. तुम परी बन कर रहना अच्छे शहर में, मुझे कहीं नहीं जाना."

जैसा मैंने बताया, माँ ने तो पांच-पांच बच्चे पाले थे, उनका माथा ठनका कि यह मैं क्या कह रहा हूँ. भाग्यवश, मेरे पापा का धैर्य असीमित था. उस समय दोनों चुप हो गए, कुछ नहीं बोलो. मुझे खुद रोते रोते नींद आ गई. अगले दिन मैंने देखा माहौल चुपचाप है, पर कहीं गरज के साथ छींटे पड़ने की सम्भावना नज़र नहीं आ रही. देखा, माँ किचिन में नौकरों से कुछ काम करवा रहीं हैं, और आँगन में पापा एक टेबिल पर एक जार में कुछ सेटिंग कर रहे थे. कुछ कौतुहल हुआ. पास जा कर देखा. जार में आधा पानी भरा था. पापा ने एक लकड़ी के टुकड़े पर तीन बड़े-बड़े बीज बांधे हुए थे, जिसे वह पानी में डुबो रहे थे. मैंने पूछा, "पापा, यह क्या है?" तो कहने लगे, "यह एक एक्सपेरीमेंट है जो तुम्हारे लिए बना रहें है." मुझे पापा के बनाये हुए एक्सपेरीमेंट बहुत पसंद आते थे. यह एक्सपेरीमेंट तो खासा मजेदार लग रहा था. "बताओ तुम क्या देख रहे हो?" मैंने उनींदी आँखों से मिचमिचाते हुए देखा फिर कहा, "ओह, एक बीज तो पूरा पानी में डूबा है. एक हवा में है, और एक पानी के उपर."

"बिलकुल ठीक. अब इसको हम धूप में रख देंगे."

पापा ने टेबिल को सरका के धूप में कर दिया. फिर कहने लगे, "तुम्हारा काम है, जब धूप में पानी सूखने लगे और यह "बीच का बीज" हवा में आ जाये तो फिर से बस इतना पानी भरना की यह बीज आधा पानी में, आधा हवा में रहे."

"अच्छा. इससे क्या होगा?"

"हम लोग देखेंगे इससे कुछ दिन में क्या होगा. अभी तुम तैयार हो कर स्कूल जाओ."

फिर उस दिन क्या, उससे अगले चार-पांच दिन तक किसी ने ना मुझे डांटा, ना परी की बात के बारे पूछा. बस माँ चुप-चुप अपना और मेरा काम करती रही. मैं माँ के मुहावरे सुनने को तरस गया. पर माँ तो चुप थी. कभी कभी पता नहीं माँ को क्या हो जाता था, चुपचुप हो जाती थी. मुझे पता था वह पापा से बोल रहीं हैं और चुपचाप कुछ हो रहा है, पर क्या हो रहा है मुझे पता नहीं था. क्या वाकई यह लोग मुझे यहाँ इस उज्जड शहर में छोड़ कर परियों वाले शहर चलें जायेंगे? ज़रूर चले जाना चाहिए, मैं गन्दा बच्चा हूँ, माँ को परी से माँ बना दिया, वह कैसे माफ़ करेगी? यही सब सोचते-सोचते मैं कई दिन तक जार में बीच के बीज तक पानी भरता रहा. धीरे-धीरे "बीच का बीज" अंकुरित होने लगा. नीचे का बीज फूल कर कुप्पा हो गया. ऊपर का बीज रहा वैसे का वैसा.

उस दिन इतवार था और सुबह-सवेरे मेरी आँख खुली पापा की आवाज़ से, "देखो, संजय के एक्सपेरीमेंट में कितने अच्छे फूल आये हैं?"

"फूल?" मैं हडबडा कर उठा और दौड़ कर आँगन में पहुंचा. देखा, बीच के बीज के अंकुर से बढ़ कर एक बेल निकली है और उसके एकदम सिरे पर एक मुनामुनिया-सा, सुफेद फूल उग आया है. नीचे का बीज कुप्पा हो कर फट गया था और उपर का था वैसा का वैसा.

पापा कहने लगे, "क्यों? कैसा लगा यह एक्सपेरीमेंट?"

मैंने खुश हो कर कहा, "बहुत अच्छा!"

तभी मम्मी ने पूछा, "इससे क्या सीखे?"

मैंने सोच का घोड़ा दौड़ाया पर कुछ समझ में नहीं आया कि क्या सीखा. मैंने सरल रस्ता पकड़ा, "माँ, तुम बताओ न."

मैंने सोचा था हमेशा की तरह पापा-मम्मी बताएँगे तो पर थोड़ी देर के बाद, मुझे सोचने पर मजबूर करने के बाद. पर इस बार माँ तुरंत ही बताने लगी, "देखो बेटा, यह जो बीज है न, इसके सिर्फ तीन जीवन हो सकते हैं. या तो यह नीचे वाले बीज की तरह पानी और कीचड़ में पड़ा में सड़ जाये, या ऊपर वाले बीज की तरह वैसा का वैसा रहे और भोजन की तरह काम आये. या फिर बीच वाले बीज की तरह इसमें से बेल या पौधा निकले, और उसमे फूल और बीज आयें."

मैंने अचरज से सिर हिलाया.

पापा ने पूछा, "तुम्हें कौन सा बीज पसंद आया?"

"बीच वाला" मैंने कहा.

तो माँ ने अजब बात कही. कहने लगी, "यह बीच का बीज मैं हूँ. और यह जो फूल है न यह हो तुम. प्यारे से."

पापा ने मुस्कुरा के पूछा, "और मैं क्या हूँ?"

"आप हैं इस उपवन के माली." मम्मी बोली.

मैंने पूछा, "और बेल क्या है?"

"बेल वह परी है जो बीज में छुपी थी. अब तेरी माँ है. देखा कितनी खुश है, हवा में लहरा रही है."

मैं हुलस कर माँ से चुपट गया.

पापा ने पूछा, "अच्छा बताओ, ऊपर का बीज कौन?"

मैंने कहा, "नहीं पता." तो कहने लगे, "तुम्हारे स्कूल कि नन्स और टीचर्स, जिन्होंने यह इरादा किया कि उनके खुद के बच्चे नहीं होंगे और वह दूसरों के बच्चों को पढ़ाएंगे, लिखाएंगे, उनके लिए काम आ जायेंगे."

मेरा अचरज से मुँह खुला का खुला रह गया. तभी मम्मी कहने लगी, "और जानते हो यह पानी में डूबा हुआ बीज क्यों सड़ गया?"

मैंने कहा, "नहीं! पर पहले यह बताओ, तीसरा बीज कौन है?"

मम्मी कहने लगी, "यह हैं यहाँ के उज्जड बच्चे, जिन्हें सिर्फ पानी और कीचड मिला, खुली हवा नहीं मिली, तो वह सड़ गए."

पापा कहने लगे, "बीज तो अच्छे ही होते हैं, पर किसी को खुली हवा और धूप नहीं मिलती तो बेचारे सड़ जाते हैं."

माँ ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, "कोई बच्चा माँ के पेट से गन्दा नहीं आता. गंदे बच्चों को कोई बताने वाला, सम्हालने वाला नहीं होता."

पर मेरी तो परी जैसी माँ और सागर से धैर्यवान पापा थे न. बिना पता लगे, बिना बताये, खेल-खेल में, वह मेरे मन की कठिन से कठिन ग्रंथि को बिना काटे-पीटे खोल देते थे. कल वह मेरे लिए "बीच का बीज" थे, आज क्या हम-और आप अपने और दूसरों के बच्चों के लिए "बीच का बीज" बनाने को तैयार हैं? अगर हैं, तो मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यह जगत फिर से हरा-भरा हो जायेगा, चाहें अभी कितना भी प्रदूषण दिखे.

Monday, April 19, 2010

"बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."


हुआ यह की उस बार घर के आम के पेड़ में कुछ ज्यादा ही आम आये. माँ ने कच्चे आम उतरवाए तो डलिया भर हो गए. एक लम्बी साँस ले कर कहने लगी, "बिटिया को इतना पसंद हैं आम का अचार, वह होती तो बनाते कलोंजी वाला अचार. सच्ची हाथ कट गए हमारे तो उसको विदा करने के बाद." हम सब को पता था की इस बात का समापन तो माँ थोड़ी सुकड़-सुड़क करने के बाद आँचल से आंसू पोछ कर ही करेंगी. हम इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि इस बार कुछ अलग ही हुआ. अचानक माँ को कुछ याद आया, कहने लगीं, "अरे बेटा, तुम्हारे एक्जाम्स तो हो गए, छुट्टी शुरू हो गई हैं. तो तुम जा के दे आओ ना अपनी बहना को घर के आम. कितना खुश हो जाएगी. इतना बुलाती है तुम्हें. पिछली बार जीजाजी भी कितना कह कर गए थे. ओफ्फो, कौन दूर है. बस में बैठो तो कानपूर पहुँचने में दो घंटे भी नहीं लगाते. गर्मी? अरे हम तुम्हारी उम्र के थे तो ...."

"बस, बस, माँ! ठीक है, हम चले जायेंगे ले कर. तुम बस अच्छा सा तोशा बना देना."

"तोशा" यानि के सफ़र का टिफिन जिसमे अमूमन एक-या दो फली आम के अचार की, ४-६ पूरियाँ, आलू या भिन्डी की भुनी हुई सब्जी, और एक टुकड़ा मीठा होता था. सोच कर ही मुँह में पानी आ जाता है. साथ में सुराही का ठंडा पानी. उसके बाद का जुगाड़ मैं खुद कर लेता था और वह था मघई पान का जोड़ा जिसे खा कर सिर ठंडा और कान गरम हो जाते थे. फिर क्या कानपूर और क्या नागपुर, सफ़र आराम से कट जाता था.

मज़े की बात है, इन सब चीज़ों से ऊपर होती थी रास्ते की चट-पट. जिसके लिए राह खर्च भी मिलता था. और उस राह खर्च में आता था बनी के मोड़ का गुलाब जामुन या कानपूर की चाट वा सोंफिया पान. कानपूर में खातिरदारी और लौटते में बहन जो टीका करेगी उस पैसे से फिर लौटने में मस्ती. बताइए? आम के आम और गुठलियों के दाम. ऐसे में कौन भाई अपनी बहन को कच्चे आम देने कानपूर नहीं जायेगा?

तो वही हुआ. हमने यू पी एस आर टी से की कानपूर स्पेशल बस पकड़ी. बनी में जो बस रुकी तो वहाँ की जगत-प्रसिद्ध गुलाब-जामुन खाने की तीव्र इच्छा ने जोर मारा. जैसे ही दुकान की तरफ बढ़े तो देखा कि वहाँ तो कौल साहिब अपने मित्रों के साथ विराजमान है. आनन्-फानन में सबसे परिचय हुआ और कौल साहिब कहने लगे, "यार, बताया नहीं कानपूर जा रहे हो, हमारे साथ आ जाते." मैंने पूछा, "क्या तुम लोग भी कानपूर जा रहे हो?" तो कहने लगे, "हाँ, भाई! इन लोगों को थोडा नवाबगंज घुमा दें फिर इन्हें कानपूर ही तो छोड़ना है. सिस्टर के यहाँ जा रहे हो न. अरे हम छोड़ देंगे. चलो, हमारे साथ adjust हो जाओ. छोडो इस खटारा बस को." फिर उसने अपने दोस्तों से मेरी इतनी तारीफ़ कि मैं लज्जित हो गया. कहने लगा, "जोक तो बहुत लोग सुनते है, पर जैसा संजय सुनाता है...तुम यार बस, कुछ नहीं, सामान निकालो बस से." उसके दोस्त भी सब बहुत रोचक थे. ऐसे पकड़ लिया कि मैं मना ही नहीं कर पाया. मेरा बैग और आम कि डलिया कौल साहिब की मारुती ८०० की बूट में किसी तरह से ढूंस दी गई. बूट पहले से ही बिलकुल लबालब भरी थी. पता नहीं क्या जुगाड़ कर के समान तो फिट हो गया. अब आई कार में मेरी बैठने की बारी तो आगे की दो सीटों के बीच में एक बैग फसायाँ गया और उस पर मैं बैठा पैर फैला के, यानि गीयर को अपनी दोनों टांगों के बीच में फंसा कर. मज़ा तो तब आया जब मित्रा साहिब ने पीछे बीच वाले सीट पर फंसने के बाद आपने घुटने मेरी पीठ पर अड़ा दिए और बोले, "अरे, आप "कम्फरटेबिल" हो के बैठें माथुर जी!" मैं कुछ कह पाऊँ, तब तक कौल ने सामने से गेयर बदला और मेरी जान जाती रही. कुछ मिनटों तक तो अँधेरा छाया रहा. मित्रा साहिब और उनकी मिसेस से पहली बार मिला था, उनके सामने कौल को गाली भी नहीं दे पाया. फिर जब होश आया तो मारुती सड़क छोड़ कर नवाबगंज की कच्ची-पक्की सड़क की तरफ मुड़ चुकी थी. हर एक गड्ढे पर मैं उछल जाता था, मित्रा साहिब के घुटने और कौल साहिब की कार के लो गेयर के बीच अड़े-फंसे बैग पर पुनःस्थापित हो जाता था. पर यह लय बीच-बीच में भंग हो जाती थी जब कोई ना कोई पूछ लेता था की माथुर साहिब, "कोम्फोरटेबिल" तो हैं ना आप." इसका जवाब मैं गा कर देता था, "पीछे से मित्रा मारे घुटने, आगे से कौल बदले गीयर, बोलो भाई वाह, वाह, वाह!" सब हँसते-खिलखिलाते कब नवाबगंज पहुँच गए पता ही नहीं चला. जब उतरने की कोशिश की तो पिछवाड़े ने एक बड़ी शिकायत की, पर जब बूट खोली गई तो मेरी तो जान ही निकल गई. टोकरी टूट गई थी, और सारे आम बूट में छितरा से गए थे. खैर! सारे आम फिर से पकड़-पकड़ कर टूटी टोकरी में डाले गए. आब क्योंकि टोकरी टूट गई थी तो उसे एक कपडे की गढ़री में बांधा गया. बस वही गलती हो गई! मतलब, बस बेकार में छोड़ने, कौल साहिब के साथ "खुले प्रोग्राम" में आने, बैग पर गीयर और मित्रा साहिब के घुटनों के बीच सैंडविच बनने के बाद, और कानपूर की जगह नवाबगंज पहुँचने के बाद की यह सबसे बड़ी गलती थी. मगर, जब कौल साहिब ने गढ़री बाँधी, उसे बूट में पीछे को तरफ उरस दिया और विजयभाव से कहा "देखा, प्रॉब्लम सोल्व्ड!" तो सबने बहुत समझदारी से सिर हिला कर हामी भरी. पर अगले दिन जब आम चेक किये गए, कौल मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था.

अगला दिन? जी हाँ! हालाँकि, उस दिन किसी को भी यह इल्म नहीं था की हमें रात नवाबगंज में गुजारनी पड़ेगी. हुआ यह कि कमबख्त मारुती का इंजन गर्म हो गया और उसका एयर कुलिंग सिस्टम इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हो पाया कि पहले से ही ठुसी गाड़ी में एक और यात्री घुस आये अपने बेग, आम की टोकरी और सुराही के साथ. खैर सुराही तो नवाबगंज पहुँचते-पहुँचते ही टूट ही गई थी, पर उसका लकड़ी का फ्रेम फिर भी मिसिस कौल के पांव में गड़ता रहा. अगर सुराही ना टूटती और उसमे पानी होता तो हम उसे गर्म रेडीएटर पर डाल देते, और शायद इंजन चलता रहता. पर केवल सुराही के फ्रेम से इंजन कैसे ठंडा होता? जब इंजन नवाबगंज पहुँच कर फिर स्टार्ट ना हो तो हम सब क्या करते? वहां रात में कोई मेकनिक कहाँ मिलता. तो रात नवाबगंज के डाक-बंगले में बितायी गई. इस बिना प्लान की पिकनिक के अलावा चारा ही क्या था. मुझे लगता है कि बिना किसी को बताये कौल साहिब ने थम्प्स अप में कुछ मिला दिया था, तभी तो मिसेस कौल इतना हंसती रही और पीठ में इतना दर्द होने के बावजूद मैं इतना नाचता रहा. और बातें तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. जगह लाजवाब, साथ बढ़िया तो पिकनिक कमाल!

राम-राम करके अगले दिन गाड़ी ठीक हुई तो कानपूर के लिए चले. रास्ते में मित्रा साहिब और पार्टी को उनके ठिकाने पहुँचाया और जब तक लंच करके जीजी के घर पहुंचे, शाम हो गई थी. जब वहाँ आम की गठरी उतारी तो उस पर कुछ पीले दाग़ उभर आये थे. खोला तो दिल धुक. सारे आम अजीब तरह से पक गए थे. पक गए थे मतलब ३० घंटे गर्मी और धूल में दूसरे सामान के साथ दबने से, समय से पहले ही पीले पड़ गए थे. खैर, अब जो था सो था.

सारी बात सुनने के बाद जीजी के ससुराल में सब हंसने लगे. मैंने कहा कि, "जीजी! मम्मी की बड़ी इच्छा थी कि तुम इन आम कि कलोंजी बनाओ." जीजी हँसे लगी, "इन आम की? इनका अब कुछ नहीं हो सकता. तुम चिंता मत करो, चलो हाथ मुँह धो कर खाना खा लो."

फिर, आम को भूल कर, एक-दो दिन खातिर करवा के, अपने पुराने सुराही के फ्रेम में नई सुराही लगाये, ताज़ी मिठाई का डिब्बा और जीजी के हाथ का तोशा ले कर घर वापिस आये. लौट कर माँ ने पूछा, "तो बहना ने बनाई कलोंजी? कैसी बनी?" माँ से झूठ कैसे बोलें? तो मैंने कुछ सोच कर सच-सच कहा, "नहीं, मेरे सामने तो जीजी ने कलोंजी नहीं बनाई."

"तो फिर?"

"हम तो बात चीत करते रहे, घूमने-फिरते रहे."

"अरे! और आम तो सड़ गए होंगे."

मैंने चाणक्य नीति अपनाते हुए कहा, "शायद. और क्या? कच्चे आम तो सड़ ही गए होंगे."

माँ की नाराज़गी ठीक ही थी, "तुम भाई-बहन मिल जाओ तो बस बातें ही बाते. चाहें आम सड़ जाएँ. सच में, बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."

पता नहीं माँ को कभी सच्चाई पता चली या नहीं. पर मैं कल जब यह निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख रहा था तो मुझे लगा मुझे माँ को सच्चाई बता ही देनी चाहिए थी. पर कल भी और आज भी मेरी हालात तो वैसी की वैसी ही है. जाना होता है कानपूर, तो पहुँच जाता हूँ नवाबगंज. कल माँ तो आज बीवी परेशान रहती है...

"सोचा था थोड़ी तारीफ़ कर दूँगा तुम्हारी जुल्फों की
तो पा जाऊंगा चाय के साथ ब्रेड-स्लाइस पतली सी.
कहाँ फँस गया लिखते हुए मोटे कसीदे तुम्हारे हुस्न पे!"

Tuesday, April 13, 2010

"सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये"

उन दिनों एक अजीब हवा चली थी देश में--भाषा को ले कर आन्दोलन हो रहे थे. हिंदी और अहिन्दी भाषी आपस में लड़ पड़े थे. तथाकथित और कपोल-कल्पित डर से भ्रमित हो कर लोग सड़कों पर निकल आये थे. राम जाने, हमारे हिंदी भाषी प्रदेश में किसको किस चीज़ से खतरा था, पर हम सब विद्यार्थी हवा में हाथ फ़ेंक-फ़ेंक कर यह उद्घोष करते फिरते थे कि "हिंदी हमारी माँ सामान है, कोई अगर हिंदी को अपमानित करेगा तो हम उसे नहीं छोड़ेंगे." रातों-रात, बाज़ार से सारे अंग्रेजी और दूसरी किसी भी भाषा के बोर्ड तोड़-फोड़ कर सड़कों पर ढेर लगा दिए गए और पेंटर्स ओवर टाइम हिंदी के बोर्ड और साइन बनाने में जुट गए.

हम लोगों का कोलेज बंद कर दिया गया, और उस दिन मैं जलूस के साथ-साथ घर से काफी दूर तक निकल गया. बाद में, मैं थक कर वापिस घर लौटा. बहुत देर हो गई थी और नारेबाजी से मेरा मुंह लाल हो रहा था. घर के पास पहुंचे ही थे कि डी सेक्शन वाले शर्माजी मिल गए. उन्होंने बताया कि किसी ने उन्हें बताया है कि साउथ इंडिया में लड़कों ने हिंदी के विरोध में नारे लगाये और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता. उस ज़माने में इन्टरनेट तो था नहीं कि किसी खबर कि कोई पुष्टि की जा सके. शर्माजी कह रहें हैं तो ठीक ही होगा. बस मेरा दिमाख तो ख़राब ओ गया. उन सालों की इतनी हिम्मत? राष्ट्र-भाषा का अपमान? यह तय हुआ कि जितने साउथ-इंडियन यहाँ "हमारे इलाके" में रहते हैं उनसे बात की जाये. अगर किसी ने इस बात का समर्थन किया और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता, तो बस हम भी ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.

जब मैं घर में घुसा तो चेहरा तमतमाया हुआ था और मुठियाँ भिंची हुई थीं. माँ आंगन में बैठी धोबी का हिसाब कर रही थी. बस उन्हें पता चल गया कि कोई गहरा मसला है. पूछा तो मैंने तैश में कहा कि "हम भी चूडियाँ पहने नहीं बैठे, उनके ईंट का जवाब पत्थर से देंगे."

माँ कहने लगी, "ठीक है, पहले हाथ-मुंह धो कर ठंडा पानी पीओ, गर्मी बहुत है. फिर कटोरदान में कुछ पराठें रखें है, और जाली की अलमारी में सब्जी और दही रखा है. खा लो, फिर देना ईंट का जवाब पत्थर से, जिसको भी देना हो."

मुझे भूख लगी थी और ठन्डे पराठे के साथ ताज़ी बनी सब्जी, और दही का नाम सुन कर भूख और ज़ोरों में भड़क उठी. जब तक हाथ-मुंह धो कर आये, माँ ने तश्तरी में खाना परोस दिया था. जल्दी-जल्दी, लपड़-लपड़ खाना शुरू किया तो माँ ने पूछा किसकी ईंट का जवाब देना है? मैं फिर भड़क गया, "अरे, यह साउथ इंडियन क्या समझते हैं अपने-आप को? हिंदी राष्ट्र-भाषा है. कोई उसका विरोध करेगा तो हम ईंट का जवाब ..."

"अच्छा! तो यह बात है. तो वह ईंट मारेंगे, और तुम पत्थर. फिर तो बहुत जल्दी बस ईंट और पत्थर रह जायेंगे, लोग तो अस्पताल में होंगे."

"अब जो होगा सो होगा. हमने भी तो चूडियाँ नहीं पहन रखी."

"तो तुम उन्हें ज़बरदस्ती हिंदी बोलने और लिखने पर मजबूर कर दोगे?"

"इसमें मजबूरी की क्या बात है. हिंदी राष्ट्र-भाषा है कि नहीं?"

"है तो बेटा! मानो तो है न मानो तो नहीं है."

"ना मानो का क्या सवाल उठता है. अरे! वाह! उनकी ईंट का जवाब...."

"तो तुम वह करोगे जो दूसरे करेंगे. वह ईंट उठाएंगे तो तुम पत्थर."

"और जो हम पत्थर नहीं उठाएंगे तो वह जो चाहेंगे करेंगे?"

"और उनका विरोध पत्थर उठाये बगैर तो हो ही नहीं सकता?"

"कैसे?"

"तुम अपने स्वाभाव पर अडिग रहो. तुम्हें लगता है वह गलत कर रहें हैं?"

"बिलकुल!"

"और अगर तुम वही करोगे जो वह कर रहें हैं, तो फिर उनमे और तुममे क्या फर्क रह जायेगा?"

मैंने भावों कि रौ में आ कर कहा, "ना रह जाये, पर अब तो उनकी ईंट का जवाब पत्थर से ही दिया जाएगा." पर मन ही मन सोचा की माँ कि बात में दम तो है.

तभी माँ ने एक बात कही जो मुझे अब तक याद रह गई. बोलीं, "बेटा, हर मुहावरा हर जगह के लिए सिद्ध नहीं होता. एक मुहावरे की टांग पकड़ कर बार-बार खेंचोगे तो गिर जाओगे. यह क्या बात-बात में ईंट का जवाब पत्थर दे देने की बात कर रहे हो. पहले बताओ किसने ईंट फेंकी?"

"शर्मा बता रहा था की साउथ इंडिया में हिंदी का जम के विरोध हो रहा है और वहाँ लड़के नारे लगा रहें हैं कि कोई हमारे ऊपर हिंदी थोप नहीं सकता."

"साउथ इंडिया में कहाँ?"

"यह पता नहीं.."

"कौन लोग ऐसा कह रहे हैं?"

"इससे क्या फरक पड़ता है? कह तो रहे हैं ना?"

"अच्छा, तो क्यों कह रहे हैं?"

"गधे हैं, इस लिए कह रहे हैं."

"यहाँ के गधे क्यों ऐसा ही क्यों नहीं कह रहे हैं?"

"कह के तो देंखे..."

"हाँ, समझे. तुम उन्हें पत्थर मार दोगे."

"और क्या.."

"तो तुम्हें इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है, क्यों कह रहा है. बस अगर कहा तो पत्थर मार दोगे."

"बिलकुल."

"तो थोपना किसे कहते हैं."

"तुमसे बात करना बेकार है, माँ."

"तो मुझे भी पत्थर मारोगे?"

"कैसी बात कर रही हो माँ?

"क्यों, तुम क्या सोचते हो, तुम पत्थर मारोगे तो तुम्हारी राष्ट्र-भाषा, तुम्हारी मात्रभाषा, हिंदी माँ बहुत खुश होगी? तुम्हारे सारे पत्थर तुम्हारी हिंदी माँ को ही लगेंगे."

मैं रोने-रोने को हो गया. "तो तुम चाहती हो मैं और सभी हाथ में चूडियाँ पहन कर बैठ जाएँ? कुछ न करें."

"यह कहा मैंने? या तो पत्थर मारों या चूडियाँ पहन कर बैठ जाओ. अरे, इन मुहावरों से आगे बढ़ो बेटा. पता करो कौन, क्यों विरोध कर रहा है. कहाँ अवरोध है. उसे हटाओ, और सबको गले लगाओ."

"पर शर्मा कह रहा था..."

"शर्मा क्या बी-बी-सी रेडियो है या वोइस ऑफ़ अमेरिका का संवाददाता? उसने कहा और तुमने सुन लिया. और सुना भी क्या--कोई कहीं पर किसी कारण से हिंदी का विरोध कर रहा है, और बस हाथ में पत्थर उठा लिया."

"पर ऐसी बात एक कान से सुन के दूसरे कान से कैसे निकल दें?"

"हे भगवान! फिर मुहावरा. पहले कथ्य को समझो फिर तथ्य को. मुहावरों को मारो गोली. अच्छा, चलो ठीक है. मुहावरा ही सुनना है, तो सुनो. लोग पता नहीं क्या-क्या कहेंगे. तुमको सूप के स्वाभाव का होना है, जोकि अनाज को रख लेता है और छिलके को उड़ा देता है. "सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये" समझे. लोग तो पता नहीं क्या-क्या करेंगे, तुम उन्हें देख कर अपना स्वभाब बदलने लगे तो बस थाली के बेगन की तरह, इधर से उधर तक लुढ़कते ही रहोगे."

गई रात तक काफी कुछ सोचने के बाद नींद आई. अगले दिन पहले जा कर शर्मा को ढूंडा. लाइब्रेरी के पास बैठा बेनर बना रहा था. मैंने पूछा तुम्हें कौन बता रहा था साउथ इंडिया में हिंदी के विरोध के बारे में. वह लटपटा गया कहने लगा, "तुम्हें यकीं नहीं? गंगा कसम वहाँ दंगा हुआ और.."

मैंने पूछा "कहाँ?" तो कहने लगा, "साउथ इंडिया में."

मैंने कहा "साउथ इंडिया में कहाँ पर?"

तो नाराज़ हो गया, "यह मुझे पता नहीं."

मैंने फिर पूछा, "क्यों कर रहें है वहाँ लोग ऐसा?"

तो वह भी वोही बोला जो मैंने माँ से कहा था, "इससे क्या फर्क पड़ता है?"

पर अब मैं माँ की तरफ था. "बहुत फर्क पड़ता है. बिना सोचे समझे तुम उन्हें पत्थर मारोगे?"

"और तू चूड़ियाँ पहन कर बैठेगा, हैं न?"

"क्या सिर्फ पत्थर मारना और चूड़ियाँ पहनना, दो ही रास्ते हैं?" मैंने पूरे विश्वास से पूछा. शर्मा कुछ न बोल सका.

अच्छा हुआ मैं उस दिन माँ की साइड हो गया, वर्ना बेकार ही मेरा पत्थर का वार ज़ाया होता या फिर मैं चूड़ियाँ पहने बैठा होता. उस शाम शर्मा को और लड़कों के साथ पुलिस पकड़ कर ले गई. लौट कर आया तो ऐसा चुप की जैसे मुंह में जुबान ही नहीं. कहते हैं की उसकी पेंट उतार कर उसे डंडे मारे गए थे. इधर मैंने साहित्यिक हिंदी परिषद् के रिसाले में एक ज़ोरदार लेख लिखा, "हिंदी का विरोध क्यों?" लोगों ने उसे बहुत पसंद किया और उस लेख से प्रेरित हो कर एक वाद-विवाद प्रितियोगिता का आयोजन किया गया. मुझे परिषद् ने ५० रूपये का पारितोषक दिया.

इस बार माँ ने मुहावरों के परे मुझको एक नया रास्ता दिखाया.

Sunday, April 11, 2010

चली-चली रे पतंग मेरी चली रे

बीवी ने डाटा, "यह क्या बात है, अगर मैं घूमने नहीं जा सकती तो आप भी घर में पड़े रहो? जाओ घूम कर आओ ना." अगर उसने "आप भी घर में पड़े रहो" की जगह "आप भी घर में रहो" कहा होता तो शायद मैं घूमने नहीं जाता. पर "पड़े रहो" के उलहाने में इतना दम है कि कोई बिलकुल बेगेरत इन्सान ही इसे सुन कर पड़ा रह सकता है. मैंने सोचा इतना गिरा-पड़ा तो नहीं हूँ मैं, तो बस वाकिंग शूज़ पहने और चल दिए ओर्टेगा पार्क.

ओर्टेगा पार्क घर से मुश्किल से आधा मील भी नहीं है, पर कुछ गरमी ज्यादा थी, कुछ उमस भी थी; तो वहां तक पहुँचते-पहुँचते हांप गए. ध्यान आया कि पानी कि बोतल ले आनी चाहिये थी. पर देर से आई समझ का क्या लाभ? फिर याद आया कि पार्क के साथ जो स्कूल है, उसमे water fountain है, तो धीरे-धीरे उधर की तरफ चल दिए. शुक्र है कि water fountain चालू था, पर दिक्कत यह थी कि मुझे जानवर कि तरह पानी कि धार को लपड-लपड पीना नहीं आता. तो मैंने एक हाथ से water fountain चलाया और दुसरे हाथ को ओक बना कर थोडा थोड़ा पानी ले कर पीने लगा. उधर से एक परिवार चला आ रहा था: पापा, मम्मी, बेटा और बेटी. बेटा कोई १०-११ साल का रहा होगा. मुझे उस तरह पानी पीता देख कर उत्साहित हो कर बोला, "मम्मी, मम्मी देखो यह अंकिल बाबाजी की तरह से पानी पी रहें हैं." उसके पापा-मम्मी ने मुझे देखा, मम्मी को आभास हुआ कि मैं हिंदी समझता हूँ, तो उसने थोडा सकुचा कर, मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा. मुझे मुस्कुराता हुआ पा कर कहने लगी, "सॉरी, यह ऐसे ही कुछ भी बोलता है." इससे पहले कि मैं कुछ कहता, छोटी बेबी ने बोल उठी, "नहीं मम्मी, दादा ठीक कह रहा है, यह अंकिल बिलकुल बाबाजी की तरह से पानी पी रहे थे." उनकी भाषा और व्यवहार से यह तो निश्चित था कि वह लोग उत्तर भारत के हैं, पर बेबी के भाई को दादा कहने से मैंने अनुमान लगाया कि वह लोग शायद मेरे प्रान्त उत्तर प्रदेश के हों. मैंने हंस कर कहा, "बच्चों ठीक कह रहे हो, दुनिया भर के बाबाजी लोग ऐसे ही पानी पीते हैं." बच्ची को पता नहीं क्या लगा कि वह दौड़ के मेरे पास आ गयी और पूछने लगी, "आप भी बाबाजी हैं?" मैंने कहा, "बिलकुल!" तो वह खुश हो गयी.

यह तो मुझे समझ में आ गया था कि यह बच्चे भारत में पैदा हुएं हैं, थोडा समय पहले यहाँ आयें है इसलिए इनकी हिंदी इतनी अच्छी है, और इनके बाबाजी या तो इनके साथ हैं, या फिर इनको विजिट कर के वापिस गए हैं. थोडी देर के दुआ-सलाम के दौरान पता लगा कि वह वर्मा फॅमिली कानपूर की हैं और यहाँ पिछले एक साल से हैं. क्योंकि वह लोग घर में हिंदी बोलते हैं, और बच्चे स्काइप पर अपने ग्रैंड-पैरेंट्स से बराबर बात करते हैं इसलिए उनकी हिंदी अभी भी जिन्दा है. हाँ, उनके बाबाजी गर्मियों में आये थे तो हर दिन घूमने पार्क में आते थे, और जैसे अभी मैं पानी पी रहा था वैसे ही पीते थे. मुझे वैसे ही पानी पीते देख कर और वैसी ही हिंदी बोलते सुन कर बच्चों को लाजिमी था कि अपने बाबाजी याद आ गए.

खैर, दो मिनट की औपचारिक बात-चीत के बाद मैंने फिर से अपनी वाकिंग चालू की. वर्मा परिवार स्कूल के परिसर की और चला गया और मैं बच्चों के झूलों की तरफ. थोडा आगे जाते ही मैंने देखा की कुछ वृद्ध ओरिएण्टल लोग ताई-ची कर रहे थे. मैं सामने गुलाब की क्यारी के पास की बेंच पर थोडा सुस्ताने बैठ गया. मन में विचार आया कि बच्चे तो अब मुझे बाबाजी कहते ही हैं, मुझे अब ताई-ची ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. देखा दूर स्कूल के ग्राउंड में वर्मा परिवार पतंग उडाने की तैयारी कर रहा है. मन में आया कि चलो वापिस चलते हैं, आज के लिए वाक् काफी हो गया.

जब तक मैं वापिस स्कूल के पास पहुंचा तो देखा कि मिसेज़ एंड मिस्टर वर्मा, दोनो एक-एक पतंग उडा रहें हैं. मिसेज़ वर्मा सुपरमैन वाली पतंग उडा रही थी, और दादा उनके साथ था, मिस्टर वर्मा बटर-फ्लाई वाली पतंग उडा रहीं थी और बेबी उनके साथ थी. मेरे चहरे पर मुस्कराहट आ गयी. कितना खुश परिवार है. तभी बेबी ने मुझे देखा तो किलकारी मार कर हंसी. फिर पता नहीं क्या सोच कर, दौड़ते हुए मेरे पास आई और हाथ पकड़ कर खींच कर अपने पापा-मम्मी की तरफ ले गयी. पूछने लगी, "बाबाजी आपको पतंग वाला गाना आता है?" वैसे तो मुझे वक्त पर कोई चीज़ अचानक याद नहीं आती, पर पता नहीं कैसे मुझे अपने बचपन का पतंग वाला गाना याद आ गया. मैंने कहा , "हाँ! आता है."

पूरे वर्मा परिवार ने कोतुहल से मेरी और देखा. मैंने हँसते-हंसते एक लाईन गाई, "चली-चली रे पतंग मेरी चली रे." बेबी का चेहरा चमक उठा, और उसने भी गाने में अपना स्वर मिला दिया. मैंने देखा की दादा के भी होठ हिल रहे हैं. अब यह एक अच्छा इतेफाक था कि उनके बाबा जी भी यह गाना गाते थे. बेबी कहने लगी, "मम्मी, मम्मी! छोटे बाबाजी तो बाबाजी से भी अच्छा गाते हैं."

थोडी देर बच्चों से बात करके, फिर मिलने का वादा करके मैं वापिस घर कि ओर चल दिया. रस्ते भर सोचता रहा कि वाकई मैं चाहूं या नहीं, मदर नेचर तो मुझे बाबा बना ही दिया. मेरे अपने बच्चे अभी भले ही बच्चों के लिए तैयार हों या न हों. पर मैं तो बन गया छोटा बाबा! यह कोई इत्तेफाक है? शायद नहीं.

घर पहुंचा तो बीवी ने मेरा दमकता हुआ चेहरा देखा और कहने लगी, "देखा मैं कह रही थी ना कि घूम के आओ तो फ्रेश फील करोगे, कितने खुश नज़र आ रहे हो." मैंने हंस कर कहा, "सच कह रही हो छोटी दादी!.. चली-चली रे पतंग मेरी चली रे."

बीवी ने मेरी ओर अचरज से देखा, "हें! बौरा गए हैं क्या?"

मैंने कहा, "हाँ बेग़म, अब तो आये हैं बौराने के दिन, हमारे-तुम्हारे! घुटने का दर्द कैसा है तुम्हारा, छोटी दादी?"

Friday, April 09, 2010

"जग दर्शन का मेला"

जब मैं बहुत पीछे पड़ता कि माँ बताओ तुम किस कोलेज में पढ़ी हो? पप्पू की माँ ने एम् ऐ किया है संस्कृत में, तुमने किसमे किया है? तो माँ पता है क्या कहती? वह कहती कि मैं तो गृहस्ती की क्लास में पढ़ी हूँ, जोइंट फॅमिली मेरा कोलेज था और तुम्हारे पापा उसके प्रिंसिपल.

"और तुम्हारे सब्जेक्ट्स क्या थे?"

"जुगत, दर्शन, होम साइंस और धरम-करम, बस यही सब.."

"ये सब पापा ने पढाये तुम्हें?"

"नहीं! मैंने खुद पढ़े, पापा तो प्रिंसिपल थे ना."

"खुद कैसे पढ़े?"

"वैसे ही, जैसे तुम पराग, नंदन, चंदा मामा, बेताल वगेरह पढ़ते हो."

"तुम क्या पढ़ती थीं?"

"वो सारी किताबें जो अलमारी हैं."

जी हाँ! हमारे यहाँ एक लकड़ी की बड़ी अलमारी थी. उसमे पता नहीं क्या-क्या अंगड़-खंगड़ भरा रहता था. वह मम्मी की अलमारी कहलाती थी, और उसे खोलने से पहले हमें माँ से इजाज़त लेनी पड़ती थी. पता नहीं क्यों? उसमे ना तो कोई मंहगी चीज़ थे, ना कोई नायब हीरा. कम से कम मुझे तो यही लगता था. था क्या? पुराने वीमेन एंड होम, कल्याण के रिसाले, सूर, कबीर, मीरा की पोथियाँ, घर का जिल्द किया हुआ शिव पुराण, उर्दू के अफ़साने, प्रेमचंद की रोवनटी कहानियां, शिवानी और गुलशन नंदा के नोवल्स, वृन्दावन लाल वर्मा, महादेवी वर्मा, नेहरु, विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण के उपदेश, एक योगी की आत्मकथा, सत्यनारायण पूजा के पर्चे के बचे हुए वर्क, दीमक खाई डायरियां, और यही सब.

"इन किताबों में क्या है माँ?" हम पूछते तो माँ कहती, "इसमें जग-दर्शन का मेला है."

"कैसे?"

तो माँ बताती, "इन साधारण आँखों से तो हम भगवानजी के दर्शन नहीं कर सकते ना, तो भगवान जी किताबों के ज़रिये हमें नयी नज़र देते हैं जिससे हम उसे देख सकें. तुमने पढ़ा था न कैसे जेम्स वाट ने चाय की केतली से निकलती हुई भाप में स्टीम इंजन के दर्शन किये थे, गाँधीजी ने प्लैटफॉर्म पर गिर कर अपने बेईज्ज़ती में अहिंसा के दर्शन किये थे, रामकिशना परमहंस ने विवेकानंद में भगवान के दर्शन किये थे, वह सब करने के लिए कहीं से तो उन्हें नयी नज़र मिली...वर्ना सब लोग अपनी साधारण आँख से इनसे बहुत पहले यह दर्शन नहीं कर लेते?"

बात तो पते की थी. जेम्स वाट से पहले किसी ने केतली से निकलती हुई भाप में स्टीम इंजन के दर्शन क्यों नहीं किये? सभी लोग कभी ना कभी बेईज्ज़त होते हैं, पहले भी हुए होंगे ही, पर उनमे किसी को अहिंसा या आज़ादी के दर्शन क्यों नहीं हुए? रामकृष्णा परमहंस ने विवेकानंद में ऐसा क्या और कैसे देख लिया?

मैं माँ के पीछे पड़ जाता. "बताओ माँ, मुझे भगवान जी किस किताब के ज़रिये दर्शन देंगे?"

माँ कहती, "वह तो तुम्हें खुद ही ढूंढनी पड़ेगी. बस हमेशा मुक़द्दस, और कल्याणकारी किताबें पढ़ते रहो, तुम्हें तुम्हारी किताब ज़रूर मिल जाएगी. वह तुम्हें तुम्हारा सही नज़रिया देगी."

मैंने माँ की अलमारी की सारी किताबें पढ़ी. फिर पागलों की तरह कॉलेज में, क्लास में, यहाँ-वहाँ, सफ़र में, देश-विदेश में किताबें, रिसाले, पर्चे और अखबार पढ़े. दुनिया भर की मुक़द्दस और कल्याणकारी किताबें जमा की, सहेजी, सम्हाली. यहाँ तक की मेरे कम्प्यूटर पर सैकड़ों किताबें मौजूद हैं. इन्टरनेट पर मेरी कल्पना से भी अधिक किताबें मौजूद हैं, पर मैं आज भी अपनी किताब ढूंढ रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि इतना पढने के बाद भी मैं अपनी माँ की व्यावारिक बुद्धि के धरातल को भी नहीं छू पाया. पता नहीं किस किताब से, किस टीचर से पाया था उसने वह मुक़द्दस और कल्याणकारी नज़रिया, "जग दर्शन का मेला!!"

Thursday, April 08, 2010

"दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ"

सुबह शाम काम करते-करते माँ यह लाइन गुनगुनाती रहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" और हम सब इसको सुनते-सुनते बोर हो गए थे. बाकी भाई-बहन बड़े थे, वह शायद माँ को यह कह कर कि 'बहुत हुआ, अब बस भी कीजिये,' उनके दिल को ठेस नहीं पहुचना चाहते थे. पर एक दिन मेरे सब्र की सीमा समाप्त हो गई. मैं छोटा था और मुंह लगा भी, तो पूछ ही बैठा, "माँ! यह तुम क्या गाती रहती रहती हो? दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ. अगर तुम्हारी डोर दीनबंधु के हाथ में है तो उन्हें पता है ना, बार बार उनसे कहने से क्या फायदा?" माँ कुछ नहीं बोली बस मुस्कुराती रही और गुनगुनाती रही. अब यह तो मुझे भी मालूम था की जब कोई खास बात बतानी होती है, तो माँ ऐसे ही नहीं बता देती. वह थोड़ी भूमिका बनाएगी, थोड़ी देर लगाएगी पर ऐसे मौके पर बताएगी की ताउम्र याद रहे.

तो उस दिन मेरा साइंस का कोई प्रोजेक्ट ड्यू था और माँ कहने लगी, "इसे पूरा करके "एतिहात" के साथ स्कूल ले कर जाना ताकि इसे टीचरजी "सही सलामत" देख लें और चेक ले. अगर रास्ते में इसमे "जर्ब" आ गया तो परेशानी हो जाएगी." जी हाँ, जहाँ माँ शुद्ध हिंदी बोल सकती थीं वहाँ बोल-चाल की भाषा, हिन्दुस्तानी में भी माहिर थीं. हमें किसी ने कभी बताया ही नहीं कि 'एतिहात' उर्दू का लफ्ज़ है और जी! इसका मतलब होता है सावधानी. 'जर्ब' फारसी से आया है, और इसका मतलब होता है 'चोट या अघात.' यह सब लफ्ज़ या शब्द हमारी बोलचाल में ऐसे आ जाते थे जैसे सुबह की पहली किरण के साथ चिड़ियाँ हमारे आँगन में दबे पाँव आ जाती थी और चहचहाना शुरू कर देती थीं. माँ कहती थी यह मैना फारस से आई है, यह तोता गुजरात से और कौआ लंका से. राम जाने, कहाँ से उड़ कर आते थे वह चिड़ी-चिड़े हमारे घर.

अब देखिये मैं बहक गया न, बात कर रहा था माँ के गाने की, फिर जिक्र किया अपने प्रोजेक्ट का, और पहुँच गया बचपन के चिड़ी-चिड़े की दुनिया में. दिमाख भी गज़ब की चक्की है. एक विचार से दूसरा, दूसरे से तीसरा, बस चलता ही रहता है, चलता ही रहता है. खैर! वापिस अपने किस्से पर चलते हैं. माँ के यह कहने पर कि मैं अपने प्रोजेक्ट को एतिहात से स्कूल ले कर जाऊं, मैं और फ़िक्र में पड़ गया. कैसे ले कर जाऊँगा? बस्ता भी होगा, खाने का डिब्बा भी, और फिर इस प्रोजेक्ट को हाथ में ले लिया तो साईकिल पर बैठेंगे कैसे? उन दिनों या तो रामनाथ, हमारा चौकीदार, मुझे साईकिल पर स्कूल छोड़ आता था, या फिर बहुत मिन्नतें करने पर भाईसाहेब छोड़ के आते थे. उस दिन तय हुआ कि भाईसाहेब छोड़ देंगे. अच्छा है! कम से कम भाईसाहेब साईकिल तो ठीक चलाएंगे. रामनाथ तो बस तीर की तरह जाता है, प्रोजेक्ट गिरे या टूटे उसे कौन सी परवाह है!

चलते-चलते माँ ने कहा बेस्ट ऑफ़ लक, और यह कि रास्ते में हनुमानजी के सामने हाथ जोड़ते हुए जाना. मैं किसी तरह से सायकिल के हेंडल पर प्रोजेक्ट को टिका कर, सामने वाले डंडे पर एक साइड पर हो कर टेढ़ा सा बैठा था और इतना परेशान था कि भाईसाहेब के लिए हेंडल घुमा पाना भी मुश्किल हो रहा था. सारे रास्ते वह "हेंडल मत पकड़ो" कहते रहे, और बड़े एहितात से साईकिल चलाते रहे. पर स्कूल के पास पहुँचते-पहुंचते मैंने हेंडल पर इतना जोर डाला कि भाईसाहेब उसे घुमा नहीं पाए और हम लोग सामने एक दूसरी साईकिल से भिड़ गए. भाईसाहेब ने किसी तरह से सम्हाला, पर साईकिल टेडी हो गई और प्रोजेक्ट में "ज़र्ब" आ गया. अब मैं रोऊँ तो बस रोऊँ, भाईसाहेब के लाख मनाने पर भी कोई असर नहीं. भाईसाहेब ने किसी तरह मुझे सम्हाला, साईकिल खड़ी की और मुझे ले कर क्लास में गए. पता नहीं टीचरजी से क्या बात की. टीचर जी ने मुझे अपने पास बुलाया और दिलासा दिया. कहा अगर मैं ब्लेक बोर्ड पर पूरी क्लास को यह समझा दूँ कि मेरा प्रोजेक्ट क्या था, और मैंने क्यों बनाया था, तो इसी को वह मेरा प्रोजेक्ट मान लेंगे. मेरी जान में जान आई. अब मुझे जल्दी यह सोचना था कि क्या डाईग्राम बनाऊंगा और क्या बोलूँगा. दिमाख में हजारों विचार एकसाथ आ रहे थे, यह होगा तो क्या होगा, वह होगा तो क्या होगा. फिर माँ कि याद आई, माँ होती तो क्या करती. वह तो बस कहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." ओ-हो, इससे याद आया कि रास्ते में हनुमान जी के सामने हाथ जोड़ना भी भूल गए थे. शायद इसीलिए तो एक्सिडेंट हुआ और प्रोजेक्ट में जर्ब आ गया. हे भगवान! अब क्या होगा. अब तो बस, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." मैंने बार-बार मन ही मन यह कई बार कहा तो कुछ बल मिला. फिर टीचर जी ने क्लास में अनाउन्स किया अब संजय हम सबको बतायगा कि उसका प्रोजेक्ट जो यहाँ तक लाते-लाते टूट गया, वह क्या करता और किस काम आता.

खैर, जब एक बार उठ कर बोर्ड तक पहुँच गए तो फिर यह बताना कि मेरा प्रोजेक्ट क्या करता और किस काम आता, कोई मुश्किल काम नहीं था. आखिर मैंने उस प्रोजेक्ट पर कितनी मेहनत की थी. टीचरजी ने खुश हो कर अच्छे नम्बर दिए.

घर पहुंचे तो सबने मुझे ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, "क्या हुआ?" मैंने उत्साह से सब हाल बताये. माँ कहने लगी तो तुम्हारी समझ में आ गया कि "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का क्या मतलब है.

मैंने कहा, "इसका मतलब तो मुझे पता है, पर बार-बार गाने का क्या मतलब, यह नहीं पता."

तो पता है माँ क्या बोली? वह पूछने लगी कि जब मेरा प्रोजेक्ट टूट गया था तो मेरे दिमाख में क्या आया.

मैंने कहा, "मेरे दिमाख में क्या आया? मुझे लगा कि अब मैं फेल हो जाऊंगा और शुक्ला फर्स्ट आ जायगा. मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी."

माँ ने कहा और तुम रोने लगे, इतना कि भाईसाहेब के हाथ ही नहीं आ रहे थे.

भाईसाहेब ने हंस कर कहा, "यह तो प्रोजेक्ट ज़मीन पर पटक कर भाग गया था. बड़ी मुश्किल से पकड़ में आया. रोये सो रोये."

"तो फिर, तुमने कैसे सारी क्लास से सामने प्रोजेक्ट के बारे में बताया?" माँ ने मुझसे पूछा.

"वह तो बार-बार मन में "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" कहने से कुछ बल मिला और एक बार चोक हाथ में ले कर बोर्ड पर डायग्राम बनाया तो फिर सब कुछ अपने आप याद आ गया और मैंने क्लास को अच्छी तरह से समझा दिया."

"अच्छा जब तुम "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" मन ही मन गुनगुना रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"बस, तुम्हारा चेहरा सामने आ रहा था. और मैं क्या सोच रहा था? हूँ..कुछ नहीं, कुछ भी नहीं सोच रहा था."

"और जब प्रोजेक्ट ले कर सायकिल पर जा रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"कैसे इसे पकडूँ कि गिरे नहीं. इसमें जर्ब ना आ जाये. टीचर जी को प्रोजेक्ट अच्छा लगेगा या नहीं..."

"फिर भी प्रोजेक्ट टूट गया."

"यही तो.."

"फिर जब तुमने "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का पाठ किया तो सब ठीक हो गया?"

"हाँ, माँ!"

"तो बस!"

"बस?"

'हाँ, बस!"

यही कमाल है माँ का, कुछ कहती भी नहीं, और सब कुछ सिखा जाती है. पता नहीं कहाँ से आते ऐसे विचार उनके दिमाख में. माँ तो होती ही है ऐसी, आपकी भी ऐसी ही माँ होगी ना!!

Monday, April 05, 2010

"जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा"

हलाकि मैं घर में सबसे छोटा था, और सबकी कॉपी केट था, पर माँ ने मुझसे पहले चार-चार बच्चे बड़े किये थे. उसे पता था की कैसे बच्चों को सही रस्ता दिखाना है. हमारे पास एक रोडेशियन कुत्ता था, नाम था गिनी. क्या कहा, आपने कभी कोई रोडेशियन कुता नहीं देखा? भाई पता नहीं, हमारे यहाँ तो था. गिनी की बाप था रोड-साइड कुत्ता, और माँ अल्सिअशन, तो गिनी हो गई ना रोडेशियन. उसमे अपने बाप और माँ दौने के गुन आये थे. पटाखों की आवाज़ से उसकी वाट लग जाती थी, पर खाने के मामले में बिलकुल अपने बाप पर गई थी. पर आप पूछ रहें है यह किस्सा मुहावरों की जानिब है या गिनी के? तो मैं आपको बता दूँ की यह किस्सा गिनी के साथ या यह कहूं की गिनी की याद के साथ जुड़ा है तो गलत नहीं होगा.

हुआ यह की जब मैंने बहुत जिद की कि मुझे भी कोई छोटा भाई या बहन चाहिए, तो माँ क्या करती? वह तो 'पांच हो गये, बहुत हो गए' वाले मूड में थी. और इधर मैं जिद पर अड़ा हुआ. तो पापा-मम्मी पता नहीं कहाँ से गिनी को ले आये और कहने लगे कि यह ही है अब तुम्हारे छोटे भाई-बहन की तरह. पहले तो मुझे लगा कि 'ठगे गए यार,' पर फिर धीरे-धीरे गिनी से दोस्ती हो गई.

अब तो यह की गिनी भूखी है तो मैं नहीं खाऊंगा, गिनी सोयगी तो मैं सोऊंगा, गिनी यह तो वह, नहीं तो बस भैं-भैं करके रोना. आफत आ गई सबकी. तो माँ ने एकदिन पूछा, "पता है गिनी
तुम्हारी बात क्यों नहीं मानती?"

मैं पूछा, "क्यों?"

"क्योंकि वह देखती रहती
है ना कि तुम क्या कर रहे हो. वह तुमसे छोटी है ना, इसलिए वही करेगी जो तुम करोगे. जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."

मुझे सुन कर अच्छा लगा कि कोई मुझे भी फोलो करता है. "अच्छा, माँ. सचमुच?"

"और क्या, तुम आँख बंद करके लेट जाओ, देखो फिर गिनी क्या करती है."

मैं आंख भीच कर, बनावटी नींद ओढ़ कर लेट गया. गिनी ने आ कर सूंघा, "ऊँ-ऊँ" किया. फिर जब मैं नहीं उठा तो बोर हो कर वहीं नीचे ज़मीन पर पसर गई. मम्मी ने फुसफुसा कर कहा, "देखा! चुप हो कर लेट गई गिनी. अब सो जाओ, वह भी सो जाएगी. थक गई है, "हें-हें" कर रही है.

खैर ऑंखें मीचे मैं भी सो गया और
थोड़ी देर, मुंह खोल कर "हें-हें" करने के बाद गिनी भी सो गई.

फिर तो जो गिनी को सिखाना होता, वह पहले मुझसे कहा जाता कि करो, और गिनी फोलो करती. थोड़े समय में मैं बैठ कर खाऊँ
तो गिनी बैठ कर खाए, मैं अच्छा बच्चा बन कर बैठूं तो गिनी भी ढंग से बैठे, वगेहरा, वगेहरा. अब सोचता हूँ तो लगता है कि गिनी के बहाने माँ मुझे सिखा रही थीं. पर क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में पूरी आ गई थी, "जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."

बहुत सालों बाद जब गिनी हमारे पास नहीं रही, हम सभी गिनी को याद कर रहे थे. बातों-बातों में मैंने माँ से कहा, "भला हो बेचारी गिनी का, उसके बहाने तुमने मुझे जो भी सिखाना था सिखा दिया," तो माँ हँसने लगी, "हम अपने आचरण से ही दूसरों को ज्यादा अच्छा सिखाते हैं."

इतने दिनों के बाद, आज मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि केवल जो बात मैंने दूसरों के आचरण से सीखीं वह ही मेरा व्यवहार बन गई. जीवन में उपदेश और उपदेशक तो अधिक काम नहीं आये. सच है, "सिर्फ कहने से गधा वहीं अड़ा...जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."

Saturday, April 03, 2010

"हुइए वही जो राम रचि रखा"
जब कोई बात बिगड़ जाती थी या मुश्किल पड़ जाती थी तो माँ लम्बी-सी सांस ले कर कहती थी, "हुइए वही जो राम रचि रखा." इस बात पर सुनने वाले को बहुत विश्वास और श्रद्धा के साथ कहना होता था, "हाँ जी, यह तो सच है." फिर दौनों एक लम्बी सांस भरते थे और बस बात ख़त्म. मतलब यह की सब राम की रचना से, भाग्य से संतुष्ट थे, और सारे संताप, प्रलाप, दिक्कतें, परेशानी इस एक लोकोक्ति से दूर हो जाती थीं. सब फिर अपने-अपने काम में लग जाते थे पर मैं सोच में पड़ जाता था. अगर होना वही है जी राम जी ने रच रखा है तो फिर क्यों परेशान होना. क्यों मारामारी करना, क्या काम करना. ठीक है, जो है वह है. जो होगा वह भी ठीक होगा.

उस दिन मम्मी पूजा कर रहीं थी और उन्होंने मुझे बुलाया. कहने लगी तुम भी आरती करो और भगवानजी से मांगो कि, "हमें अच्छा बच्चा बना दीजिये." मैंने बेपरवाही से कहा, "क्या फायदा माँ? हुइए वही जो राम रचि रखा." माँ को लगा कि मैंने सही उक्ति का गलत उपयोग किया है तो एकदम से सचेत हो गयीं. कहने लगीं, "इसका क्या मतलब? तुम सच्चे दिल से भगवानजी से मांगोगे तो भगवानजी तुम्हें अच्छा बच्चा बनायेंगे."

"और, उन्होंने मेरे लिए कुछ और सोच कर रखा है तो फिर तुम ही कहोगी कि हुइए वही जो राम रचि रखा."

"तुम्हें क्या मालूम कि भगवानजी ने तुम्हारे लिए कुछ और सोच कर रखा है? और मान लो अगर कुछ और सोच कर रखा भी है, तो तुम भगवान से सच्चे दिल से मांगोगे तो वह तुम्हारी बात मान लेंगे और वह नहीं करेंगे जो पहले सोच कर रखा था."

मुझे लगा कि यह तो 'हुइए वही जो राम रचि रखा' की लोजिक के विपरीत है. मैंने कहा, "पर, तुम तो भगवान जी की सारी बात मानने को तैयार रहती हो. कुछ भी होता है तो कहती हो हुइए वही जो राम रचि रखा. तो फिर?"

यह "तो फिर" का अस्त्र तो माँ का था. मैंने प्रयोग किया तो अब तो जंग छिड़नी ही थी.

माँ कहने लगी, "तुमने कितनी कहानियाँ सुनी हैं कि भक्त की मन की बात मानने के लिए भगवान अपना लोक छोड़ कर भागे-भागे इस मृत्युलोक में आये और भक्त की मदद की, तभी तो भगवान भक्तवत्सल कहलाते हैं."

मैंने प्रतिवाद किया. "अगर ऐसा है तो फिर तुम बात-बात में भगवानजी की बात मान कर बैठ क्यों जाती हो, यह कहते हुए कि हुइए वही जो राम रचि रखा? तुम अपनी बात क्यों नहीं मनवा लेती?"

माँ कहने लगी, "तुम्हें कैसे मालूम कि भगवान मेरी बात नहीं मानते? अगर नहीं मानते तो तुम्हें मेरा बच्चा बनाते."

"तो फिर तुम हुइए वही जो राम रचि रखा कह कर लम्बी सांस ले कर क्यों रह जाती हो? अपनी बात क्यों नहीं मनवा लेती?"

माँ कहने लगी, "बेटा, जब भगवानजी अपना निर्णय ले लेते हैं तो हम सबको सिर झुका कर उसे स्वीकार करना ही पड़ता है. हाँ जब तक वह निर्णय ना लें, उनके निर्णय को भक्त अपनी भक्ति से बदलवा सकता है."

मैं भी गणित और साइंस पढने वाला बच्चा था, "कैसे? सिद्ध कर के दिखाओ."

माँ भी अपनी जिद्द पर आ गई. "ठीक है, एक पेपर और पेन कर आओ."

मैं दौड़ कर पेन और पेपर ले आया.

"अच्छा, अब भगवानजी को याद करो और इस पेपर पर भगवानजी को बताओ कि तुम उन्हें याद कर रहे हो... बड़ा-बड़ा लिखो, 'याद'. नहीं, ऐसे नहीं. नीचे बाएं कोने से ऊपर दायें कोने तक बड़ा-बड़ा."

मैंने पेपर के नीचे बाएं कोने से ऊपर दायें कोने तक बड़ा-बड़ा लिखा, 'या द.'

अब भगवानजी की तरफ ऊपर की ओर ले जाओ.

"ऐसे?" मैंने कागज़ को ऊपर की तरफ घुमाया.

"हाँ. अब बताओ, जब भगवानजी ऊपर से तुम्हारा लिखा पढेंगें तो क्या पढेंगे?

मैंने पेपर पे लिखे याद को उल्टा पढ़ा, "द या, दया, वह दया पढेंगे!"

"देखा. तुम 'याद' ऊपर भेजोगे तो भगवानजी 'दया' नीचे भेजेंगे."

"उससे क्या होगा?"

"उससे यह होगा की भगवान दया करके तुम्हारे लिए अपना विधान बदल देंगे."

"अरे? तो फिर इससे तो हुइए वही जो राम रचि रखा नहीं होगा."

"क्यों नहीं, होगा. होगा तो वही जो राम चाहेंगे. पर तुम्हारे याद करने से वह दया करेंगे और वह वही चाहेंगे जो तुम चाहोगे. और अगर तुमने याद नहीं नहीं किया तो फिर तुम्हें वह ही चाहना पड़ेगा जो भगवान चाहेंगे और करेंगे."

"हूँ," मेरी समझ में कुछ-कुछ आया. "पर इससे तो माँ, भगवान खुद कुछ नहीं कर पाएंगे, कोई कहेगा इधर चलो तो इधर, उधर चलो तो उधर."

फिर मम्मी ने आगे समझाया, "भगवान अपना विधान भी तो लगातार बना रहे हैं. हमारे अपने संकल्प, कर्म, भक्ति, आसक्ति और पाप से वह गढ़ता जाता है. जब तुम संकल्प करते हो कि तुम सुबह उठ कर नहा-धो कर एक घंटा पढ़ कर स्कूल जाओगे, तो तुम्हारे नंबर अच्छे आते हैं ना. सिर्फ सोचने से कि नंबर अच्छे आयें, या भगवान से सिर्फ हाथ जोड़ कर मांगने से तो भगवान अपना विधान नहीं बदलेंगे."

"पर, माँ भगवान अपना विधान कैसे बदलते हैं?"

पता नहीं माँ को यह सब कैसे सूझता था. बोली, "जैसे, जब तुम निबंध लिखने बैठते हो तो शब्द अपने-आप सूझने लगते हैं और वाक्य निबंध में बंधने लगते हैं. अगर उस समय तुम मुझसे कुछ पूछो और मैं तुमे जवाब दूँ जो तुम्हें समझ में आये और पसंद भी, तो तुम उसे अपने निबंध ने शामिल कर लोगो कि नहीं?"
"हूँ.."

"तो बस ऐसे ही भगवानजी भी तुम्हारी बात सुन कर, समझ कर, परख कर उसे अपने विधान में डाल लेंगे. अगर तुम कुछ नहीं कहोगे तो फिर तुम्हें भगवानजी का निबंध स्वीकार करना पड़ेगा ना."

यही मजेदार बात थी माँ की. चाहें कितनी भी कठिन और विरोधाभासी बात हो, इतनी सरलता से समझा देती थी कि सारी जिंदगी फिर मुझे परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था. आप पूछ रहे हैं कि इस नयी समझ के बाद मैं आगे की ज़िन्दगी में कैसे बचा मुसीबतों से? यह तो मैं आपको कल ही बता पाऊंगा. तब तक के लिए धन्यवाद. आप चाहें तो इस बीच भगवानजी को याद करके देंखें, मुझे विश्वास है, भगवान आप पर दया ज़रूर करेंगे.

Friday, April 02, 2010

"गुर धोबी सिख कपड़ा साबुन सिरजन हार, सुरति सिला पर धोइये निकसे ज्योति अपार." कबीर

मेरी एक प्रियजन कहती हैं की उन्हें मेरी रचना पढ़ कर कबीर का, उपर लिखा हुआ पद याद आ गया. और मुझे यह पढ़ कर अतीव संतोष हुआ कि मेरी छोटी-सी रचना अपने गंतव्य तक पहुँच गई. आप पूछेंगे कैसे? शायद आप नहीं भी पूछते, पर सुनिए क्यों. मेरा ब्लॉग मेरी माताजी के बारे में नहीं है. मेरा प्रमुख उद्देश्य उन सभी मुहावरे-कहावतों-पद-मिसरों को एक लय में जोड़ना है, जो मेरे बचपन के साथी थे, पर अब लुप्त होते जा रहे हैं. क्योंकि मेरी दादी, नानी, और माँ इन सब का भरपूर उपयोग करती थी; मैं मुहावरों की कहानी-माँ की ज़ुबानी सुना रहा हूँ. और मुहावरे तो हैं सबके, तो यह हो गई जगत-जननी की कहानी. हर उस माँ को डेडीकेटित जो अपने बच्चे को, रिश्तेदार या पडोसी के बच्चे को अच्छे संस्कार देती है. माँ की इस परिभाषा में पिताजी, दीदी-भैया, भुआ-फूफा, चाची-चाचा , मामा-मामी, दादी-दादू, नाना-नानी सभी आते हैं. कोई भी जो बच्चे के हित में नीति-अनुकरण करते हैं. यदि मेरे इस ब्लॉग में आपको अपनी माँ की या किसी और प्रियजन की छवि दिखाई दे, तो इसे अवश्य पढ़ें. यदि इसमें सूर-कबीर-तुलसी-नानक-दादू-मीरा-सूफी संत-ज़ेन-बच्चन-फिराक-फैज़-गुलज़ार दिखाई दें तो मुझे अवश्य बताएं, मुझे बहुत प्रसन्नता होगी की ऐसे महान लोगों की झलक मेरे ब्लॉग में दिखाई पड़ी. यदि आपको यह समय का नुकसान लगे तो कृपया इसे न पढ़ें और यदि हो सके तो मुझे बताएं कि मैं इसको कैसे अच्छा और आपके योग्य बनाऊं.

यदि आपको यह आभास भी हो मेरे ब्लॉग में कोई प्रीचिंग या उपदेशात्मक-रस दबे-पाँव घुस आया है तो कृपया मुझे सचेत कर दें. मैं अपना स्वर ठीक कर लूँगा. मेरा प्रयास केवल अनुकरण है उपदेश बिलकुल भी नहीं.

आशा है आप अपने विचार प्रगट करते रहेंगे, और यह सफ़र इकहरा न को कर दो-तफरा रहेगा. कल आपको बताऊंगा की माँ के विचार भाग्य और कर्म के बारे में क्या थे और उसके कारण मैं कैसी-कैसी मुसीबतों से बाहर निकला हूँ. तब तक के लिए नमस्कार, रोजी-रोटी की तलाश में मेरा प्रस्थान और आप भी खुश रहिये.

Thursday, April 01, 2010

पड़ो अपावन ठौर पै, कंचन तजत ना कोई.

हमारे एक टीचरजी थे, जो दो-बीड़ा पान खा के पढ़ाने आते थे. वह ज्यादतर बात नीचे का होठ गोल करके उसे ऊपर के होठ पर फिट बिठा के, ठोड़ी ऊँची कर के, अपनी तर्जनी से चश्मा ऊपर करके "हूँ-हूँ" की ध्वनि और अपने हाथ के इशारे से कर लेते थे. पर कभी-कभी जब स्थिति असामान्य हो जाती तो उन्हें मजबूरन खिड़की से बाहर पीक थूक के, पूरा मुंह खोल कर गालियां देनी पड़ती थीं, "अरे मूर्खों, भूतों, शिव जी के गणों! शांत हो जाओ, शांत हो जाओ. एक-एक कर के बको. ऐसे तो सारे जीवन बारहखड़ी भी नहीं सीख पाओगे."

टीचरजी बेचारे हिंदी पढ़ाते थे, और क्लास के बच्चे हिंदी पढने को तैयार ही नहीं था. उसके कई कारण थे, एक तो यह सबकी धारणा थी कि हिंदी सीख कर होगा क्या? और दूसरा यह कि जो हिंदी हम घर में बोलते थे और जो टीचरजी पढ़ाना चाहते थे उसमे ज़मीन-असमान का फर्क था. हमको समझ ही में नहीं आता था कि पान की पीक के छींटे अपने कपड़ों पे छिड़कवा के इतनी कठिन जुबान सीखने का फायदा क्या है.

जिस गली में सब अंधे, वहाँ एक आँख वाला राजा. मुझे हिंदी अच्छी आती थी तो टीचर जी के प्रश्नों का उत्तर अक्सर मैं ही देता था और शाबाशी खाते-खाते बहुत से पीक के छींटे भी खा जाता था, हिंदी का घंटा ख़तम होते-होते मेरी सफ़ेद कमीज़ और भूरी हाफ-पैंट पर पीक का भूगोल बन जाता था. फिर सब लड़के मेरा मज़ाक उड़ाते थे, यह देखो "हिंदी का पीकदान आया. आइये महाराज. हम मूर्खों, भूतों, शिव जी के गणों को आशीर्वाद दीजिये... आप तो स्वं ही शिवजी हैं. राख ना सही पीक ही सही, पीक पोते शिव जी, पीक पोते शिव जी..."

उस दिन मुझे लड़कों ने बहुत तंग किया. मैं बहुत भरा हुआ घर लौटा. घर में ही घुसते ही आपने कमरे में जा के लेट गया. मेरे छोटे से मन ने यह सोचा कि मुझे ही पीक क्यों खानी पड़ती है, क्योंकि मुझे बय चांस हिंदी अच्छी आती है. बय चांस नहीं, इसलिए कि मम्मी मुझसे इतनी अच्छी हिंदी में बात करती हैं. क्या ज़रुरत है उन्हें अच्छी हिंदी बोलने की, मुझे बराबर सिखाने की? 'आज क्या पढ़ाया हिंदी में तुम्हें?' हुं? फिर मुझे इतनी सारी चीज़ें सिखा देंगी कि टीचरजी के पूछने पर मेरा हाथ अपने आप उपर उठ जाता है. और टीचरजी भी इतने गंदे कि शाबाशी देते-देते मुझ पर पीक करते जाते हैं. फिर सारे लड़के मुझे परेशान करते हैं.

यानि कि सारी दुनिया गन्दी और इसमें मेरा कोई दोष नहीं. पर मम्मी ने तो चार-चार और बच्चे पाले थे, देखते ही समझ गयीं कि कुछ बात है आज जो मैं छिपा रहा हूँ. धीरे-धीरे सारी बात पता कर ली. मैंने भी ठान रखी थी, "अब मैं कब्भी भी किस्सी सवाल का जवाब नहीं दूंगा क्लास में, गंदे टीचरजी, गंदे बच्चे, गन्दी हिंदी , सब गंदे! और तुम भी मुझसे ऐसे अच्छी-अच्छी हिंदी में बात मत किया करो, मुझे नहीं सीखनी हिंदी-विंदी."

"अच्छा-अच्छा, मत सीखना हिंदी."

माँ धीरे-धीरे अपना काम निबटाती रही और गुनगुनाती रही. माँ लड्डू बना रही थी जो मुझे बहुत पसंद थे और फिर जब आटा, चीनी और दूध भूनते थे तो उसकी खुशबू मेरे सारे दुःख दूर कर देती थी. मैं भी उस खुशबू के चक्कर में वहीँ चौके में ही चक्कर काटता रहा. मैंने देखा माँ की रूचि मेरी स्थिति से हट कट लड्डू का आटा भूनने में चली गई है और सारा ध्यान ही उधर है, तो बुरा लगा. यहाँ मैं इतनी मुश्किलों में हूँ, और वहाँ माँ को कोई फिकर ही नहीं है. माँ का ध्यान पाने के लिए उससे पूछा, "माँ क्या गुनगुना रही हो?" माँ ने थोडा जोर से गाया, "पड़ो अपावन ठौर पै, कंचन तजत ना कोई" फिर पूछा, "समझ में आया?"
मैंने कहा, "नहीं."
कहने लगी, "अपावन माने पता है?"
मैंने दिमाख पर जोर दे कर कहा, "हाँ, जो पावन ना हो."
"तो क्या है वह?"
मैंने अपना छोटा सा दिमाख लगाया, "जो पावन नहीं है, मतलब गन्दा-शंदा"
"हाँ! ठीक. और वहाँ अगर कंचन यानि सोना पड़ा हो तो?"
"तो क्या?"
"तो कोई उसे इसलिए छोड़ देगा की वह गन्दी-शंदी जगह पड़ा हुआ है?"
मैंने सोचा की क्योंकि मम्मी पूछ रहीं है, तो इसमें कोई बात तो होगी. इसलिए जवाब होना चाहिए, "नहीं." तो मैंने कहा, "नहीं"
पर मम्मी ने तो चार-चार और बच्चे पाले थे ना, इसलिए उसे तो पता चल ही गया ना की मैं बिना सोचे हुए कह रहा हूँ.
"हाँ. पर क्यों, पता है?"
"नहीं?"
"क्योकि अगर सोना अपावन ठौर पर है भी तो इसमें उसका कोई दोष नहीं. और फिर उसे उठा के साफ कर लो तो उसकी कीमत उतनी की उतनी. सिर्फ इस लिए तो सोना नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि वह गन्दी-शंदी जगह पड़ा हुआ है. अब देखो तुम्हारे टीचर जी, वह हिंदी पढ़ाते हैं तो कैसा लगता है?"
"पर माँ वह पान खा कर पीक छिड़कते रहते हैं, बहुत गंदे हैं."
"हाँ, पर हिंदी कैसी पढ़ाते हैं."
"हिंदी तो अच्छी पढ़ाते हैं, पर वह बात नहीं है."
"तो क्या बात है...कपडे गंदे हो जाते है? वह तो मैं धो देती हूँ."
"वह बात नहीं है माँ, बाकी बच्चे मुझे छेड़ते हैं...."
"और क्या कहते हैं की तुम शिव जी के गण हो? कल जब वह यह कहें तो कहना धन्यवाद, मैं तो हमेशा से शिव जी का गण बनना चाहता था, क्योंकि शिव जी मेरे आराध्य देव हैं.."
मेरी आँख में आंसू आ गए, "तुम भी बहुत बुरी हो माँ, क्यों सिखाती हो यह सब मुझे. मत बात किया करो न इतनी अच्छी हिंदी में मुझसे.."

पर वह माँ के गुनगाने की धुन, वह तो मन में बस गई. "पड़ो अपावन ठौर पै, कंचन तजत ना कोई." समझने के बाद कि गन्दी जगह पर पड़े होने के बावजूद, सोना सोना रहता है, मेरे मन के सारे डर धीरे-धीरे दूर हो गए. हिंदी की क्लास में मेरा हाथ सबसे ज्यादा उठता रहा और नंबर, नंबर का क्या है वह तो अच्छे आये ही, पर इससे ज्यादा ख़ुशी इस बात की है, मुझे सोने और गंदगी में फर्क करना आ गया.