Saturday, April 03, 2010

"हुइए वही जो राम रचि रखा"
जब कोई बात बिगड़ जाती थी या मुश्किल पड़ जाती थी तो माँ लम्बी-सी सांस ले कर कहती थी, "हुइए वही जो राम रचि रखा." इस बात पर सुनने वाले को बहुत विश्वास और श्रद्धा के साथ कहना होता था, "हाँ जी, यह तो सच है." फिर दौनों एक लम्बी सांस भरते थे और बस बात ख़त्म. मतलब यह की सब राम की रचना से, भाग्य से संतुष्ट थे, और सारे संताप, प्रलाप, दिक्कतें, परेशानी इस एक लोकोक्ति से दूर हो जाती थीं. सब फिर अपने-अपने काम में लग जाते थे पर मैं सोच में पड़ जाता था. अगर होना वही है जी राम जी ने रच रखा है तो फिर क्यों परेशान होना. क्यों मारामारी करना, क्या काम करना. ठीक है, जो है वह है. जो होगा वह भी ठीक होगा.

उस दिन मम्मी पूजा कर रहीं थी और उन्होंने मुझे बुलाया. कहने लगी तुम भी आरती करो और भगवानजी से मांगो कि, "हमें अच्छा बच्चा बना दीजिये." मैंने बेपरवाही से कहा, "क्या फायदा माँ? हुइए वही जो राम रचि रखा." माँ को लगा कि मैंने सही उक्ति का गलत उपयोग किया है तो एकदम से सचेत हो गयीं. कहने लगीं, "इसका क्या मतलब? तुम सच्चे दिल से भगवानजी से मांगोगे तो भगवानजी तुम्हें अच्छा बच्चा बनायेंगे."

"और, उन्होंने मेरे लिए कुछ और सोच कर रखा है तो फिर तुम ही कहोगी कि हुइए वही जो राम रचि रखा."

"तुम्हें क्या मालूम कि भगवानजी ने तुम्हारे लिए कुछ और सोच कर रखा है? और मान लो अगर कुछ और सोच कर रखा भी है, तो तुम भगवान से सच्चे दिल से मांगोगे तो वह तुम्हारी बात मान लेंगे और वह नहीं करेंगे जो पहले सोच कर रखा था."

मुझे लगा कि यह तो 'हुइए वही जो राम रचि रखा' की लोजिक के विपरीत है. मैंने कहा, "पर, तुम तो भगवान जी की सारी बात मानने को तैयार रहती हो. कुछ भी होता है तो कहती हो हुइए वही जो राम रचि रखा. तो फिर?"

यह "तो फिर" का अस्त्र तो माँ का था. मैंने प्रयोग किया तो अब तो जंग छिड़नी ही थी.

माँ कहने लगी, "तुमने कितनी कहानियाँ सुनी हैं कि भक्त की मन की बात मानने के लिए भगवान अपना लोक छोड़ कर भागे-भागे इस मृत्युलोक में आये और भक्त की मदद की, तभी तो भगवान भक्तवत्सल कहलाते हैं."

मैंने प्रतिवाद किया. "अगर ऐसा है तो फिर तुम बात-बात में भगवानजी की बात मान कर बैठ क्यों जाती हो, यह कहते हुए कि हुइए वही जो राम रचि रखा? तुम अपनी बात क्यों नहीं मनवा लेती?"

माँ कहने लगी, "तुम्हें कैसे मालूम कि भगवान मेरी बात नहीं मानते? अगर नहीं मानते तो तुम्हें मेरा बच्चा बनाते."

"तो फिर तुम हुइए वही जो राम रचि रखा कह कर लम्बी सांस ले कर क्यों रह जाती हो? अपनी बात क्यों नहीं मनवा लेती?"

माँ कहने लगी, "बेटा, जब भगवानजी अपना निर्णय ले लेते हैं तो हम सबको सिर झुका कर उसे स्वीकार करना ही पड़ता है. हाँ जब तक वह निर्णय ना लें, उनके निर्णय को भक्त अपनी भक्ति से बदलवा सकता है."

मैं भी गणित और साइंस पढने वाला बच्चा था, "कैसे? सिद्ध कर के दिखाओ."

माँ भी अपनी जिद्द पर आ गई. "ठीक है, एक पेपर और पेन कर आओ."

मैं दौड़ कर पेन और पेपर ले आया.

"अच्छा, अब भगवानजी को याद करो और इस पेपर पर भगवानजी को बताओ कि तुम उन्हें याद कर रहे हो... बड़ा-बड़ा लिखो, 'याद'. नहीं, ऐसे नहीं. नीचे बाएं कोने से ऊपर दायें कोने तक बड़ा-बड़ा."

मैंने पेपर के नीचे बाएं कोने से ऊपर दायें कोने तक बड़ा-बड़ा लिखा, 'या द.'

अब भगवानजी की तरफ ऊपर की ओर ले जाओ.

"ऐसे?" मैंने कागज़ को ऊपर की तरफ घुमाया.

"हाँ. अब बताओ, जब भगवानजी ऊपर से तुम्हारा लिखा पढेंगें तो क्या पढेंगे?

मैंने पेपर पे लिखे याद को उल्टा पढ़ा, "द या, दया, वह दया पढेंगे!"

"देखा. तुम 'याद' ऊपर भेजोगे तो भगवानजी 'दया' नीचे भेजेंगे."

"उससे क्या होगा?"

"उससे यह होगा की भगवान दया करके तुम्हारे लिए अपना विधान बदल देंगे."

"अरे? तो फिर इससे तो हुइए वही जो राम रचि रखा नहीं होगा."

"क्यों नहीं, होगा. होगा तो वही जो राम चाहेंगे. पर तुम्हारे याद करने से वह दया करेंगे और वह वही चाहेंगे जो तुम चाहोगे. और अगर तुमने याद नहीं नहीं किया तो फिर तुम्हें वह ही चाहना पड़ेगा जो भगवान चाहेंगे और करेंगे."

"हूँ," मेरी समझ में कुछ-कुछ आया. "पर इससे तो माँ, भगवान खुद कुछ नहीं कर पाएंगे, कोई कहेगा इधर चलो तो इधर, उधर चलो तो उधर."

फिर मम्मी ने आगे समझाया, "भगवान अपना विधान भी तो लगातार बना रहे हैं. हमारे अपने संकल्प, कर्म, भक्ति, आसक्ति और पाप से वह गढ़ता जाता है. जब तुम संकल्प करते हो कि तुम सुबह उठ कर नहा-धो कर एक घंटा पढ़ कर स्कूल जाओगे, तो तुम्हारे नंबर अच्छे आते हैं ना. सिर्फ सोचने से कि नंबर अच्छे आयें, या भगवान से सिर्फ हाथ जोड़ कर मांगने से तो भगवान अपना विधान नहीं बदलेंगे."

"पर, माँ भगवान अपना विधान कैसे बदलते हैं?"

पता नहीं माँ को यह सब कैसे सूझता था. बोली, "जैसे, जब तुम निबंध लिखने बैठते हो तो शब्द अपने-आप सूझने लगते हैं और वाक्य निबंध में बंधने लगते हैं. अगर उस समय तुम मुझसे कुछ पूछो और मैं तुमे जवाब दूँ जो तुम्हें समझ में आये और पसंद भी, तो तुम उसे अपने निबंध ने शामिल कर लोगो कि नहीं?"
"हूँ.."

"तो बस ऐसे ही भगवानजी भी तुम्हारी बात सुन कर, समझ कर, परख कर उसे अपने विधान में डाल लेंगे. अगर तुम कुछ नहीं कहोगे तो फिर तुम्हें भगवानजी का निबंध स्वीकार करना पड़ेगा ना."

यही मजेदार बात थी माँ की. चाहें कितनी भी कठिन और विरोधाभासी बात हो, इतनी सरलता से समझा देती थी कि सारी जिंदगी फिर मुझे परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था. आप पूछ रहे हैं कि इस नयी समझ के बाद मैं आगे की ज़िन्दगी में कैसे बचा मुसीबतों से? यह तो मैं आपको कल ही बता पाऊंगा. तब तक के लिए धन्यवाद. आप चाहें तो इस बीच भगवानजी को याद करके देंखें, मुझे विश्वास है, भगवान आप पर दया ज़रूर करेंगे.

2 comments:

Unknown said...

Faith in the Lord definitely does miracles. I believe in it too.

Kamaksha Mathur said...

बहुत खूबसूरत बात है ये!