Thursday, April 08, 2010

"दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ"

सुबह शाम काम करते-करते माँ यह लाइन गुनगुनाती रहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" और हम सब इसको सुनते-सुनते बोर हो गए थे. बाकी भाई-बहन बड़े थे, वह शायद माँ को यह कह कर कि 'बहुत हुआ, अब बस भी कीजिये,' उनके दिल को ठेस नहीं पहुचना चाहते थे. पर एक दिन मेरे सब्र की सीमा समाप्त हो गई. मैं छोटा था और मुंह लगा भी, तो पूछ ही बैठा, "माँ! यह तुम क्या गाती रहती रहती हो? दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ. अगर तुम्हारी डोर दीनबंधु के हाथ में है तो उन्हें पता है ना, बार बार उनसे कहने से क्या फायदा?" माँ कुछ नहीं बोली बस मुस्कुराती रही और गुनगुनाती रही. अब यह तो मुझे भी मालूम था की जब कोई खास बात बतानी होती है, तो माँ ऐसे ही नहीं बता देती. वह थोड़ी भूमिका बनाएगी, थोड़ी देर लगाएगी पर ऐसे मौके पर बताएगी की ताउम्र याद रहे.

तो उस दिन मेरा साइंस का कोई प्रोजेक्ट ड्यू था और माँ कहने लगी, "इसे पूरा करके "एतिहात" के साथ स्कूल ले कर जाना ताकि इसे टीचरजी "सही सलामत" देख लें और चेक ले. अगर रास्ते में इसमे "जर्ब" आ गया तो परेशानी हो जाएगी." जी हाँ, जहाँ माँ शुद्ध हिंदी बोल सकती थीं वहाँ बोल-चाल की भाषा, हिन्दुस्तानी में भी माहिर थीं. हमें किसी ने कभी बताया ही नहीं कि 'एतिहात' उर्दू का लफ्ज़ है और जी! इसका मतलब होता है सावधानी. 'जर्ब' फारसी से आया है, और इसका मतलब होता है 'चोट या अघात.' यह सब लफ्ज़ या शब्द हमारी बोलचाल में ऐसे आ जाते थे जैसे सुबह की पहली किरण के साथ चिड़ियाँ हमारे आँगन में दबे पाँव आ जाती थी और चहचहाना शुरू कर देती थीं. माँ कहती थी यह मैना फारस से आई है, यह तोता गुजरात से और कौआ लंका से. राम जाने, कहाँ से उड़ कर आते थे वह चिड़ी-चिड़े हमारे घर.

अब देखिये मैं बहक गया न, बात कर रहा था माँ के गाने की, फिर जिक्र किया अपने प्रोजेक्ट का, और पहुँच गया बचपन के चिड़ी-चिड़े की दुनिया में. दिमाख भी गज़ब की चक्की है. एक विचार से दूसरा, दूसरे से तीसरा, बस चलता ही रहता है, चलता ही रहता है. खैर! वापिस अपने किस्से पर चलते हैं. माँ के यह कहने पर कि मैं अपने प्रोजेक्ट को एतिहात से स्कूल ले कर जाऊं, मैं और फ़िक्र में पड़ गया. कैसे ले कर जाऊँगा? बस्ता भी होगा, खाने का डिब्बा भी, और फिर इस प्रोजेक्ट को हाथ में ले लिया तो साईकिल पर बैठेंगे कैसे? उन दिनों या तो रामनाथ, हमारा चौकीदार, मुझे साईकिल पर स्कूल छोड़ आता था, या फिर बहुत मिन्नतें करने पर भाईसाहेब छोड़ के आते थे. उस दिन तय हुआ कि भाईसाहेब छोड़ देंगे. अच्छा है! कम से कम भाईसाहेब साईकिल तो ठीक चलाएंगे. रामनाथ तो बस तीर की तरह जाता है, प्रोजेक्ट गिरे या टूटे उसे कौन सी परवाह है!

चलते-चलते माँ ने कहा बेस्ट ऑफ़ लक, और यह कि रास्ते में हनुमानजी के सामने हाथ जोड़ते हुए जाना. मैं किसी तरह से सायकिल के हेंडल पर प्रोजेक्ट को टिका कर, सामने वाले डंडे पर एक साइड पर हो कर टेढ़ा सा बैठा था और इतना परेशान था कि भाईसाहेब के लिए हेंडल घुमा पाना भी मुश्किल हो रहा था. सारे रास्ते वह "हेंडल मत पकड़ो" कहते रहे, और बड़े एहितात से साईकिल चलाते रहे. पर स्कूल के पास पहुँचते-पहुंचते मैंने हेंडल पर इतना जोर डाला कि भाईसाहेब उसे घुमा नहीं पाए और हम लोग सामने एक दूसरी साईकिल से भिड़ गए. भाईसाहेब ने किसी तरह से सम्हाला, पर साईकिल टेडी हो गई और प्रोजेक्ट में "ज़र्ब" आ गया. अब मैं रोऊँ तो बस रोऊँ, भाईसाहेब के लाख मनाने पर भी कोई असर नहीं. भाईसाहेब ने किसी तरह मुझे सम्हाला, साईकिल खड़ी की और मुझे ले कर क्लास में गए. पता नहीं टीचरजी से क्या बात की. टीचर जी ने मुझे अपने पास बुलाया और दिलासा दिया. कहा अगर मैं ब्लेक बोर्ड पर पूरी क्लास को यह समझा दूँ कि मेरा प्रोजेक्ट क्या था, और मैंने क्यों बनाया था, तो इसी को वह मेरा प्रोजेक्ट मान लेंगे. मेरी जान में जान आई. अब मुझे जल्दी यह सोचना था कि क्या डाईग्राम बनाऊंगा और क्या बोलूँगा. दिमाख में हजारों विचार एकसाथ आ रहे थे, यह होगा तो क्या होगा, वह होगा तो क्या होगा. फिर माँ कि याद आई, माँ होती तो क्या करती. वह तो बस कहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." ओ-हो, इससे याद आया कि रास्ते में हनुमान जी के सामने हाथ जोड़ना भी भूल गए थे. शायद इसीलिए तो एक्सिडेंट हुआ और प्रोजेक्ट में जर्ब आ गया. हे भगवान! अब क्या होगा. अब तो बस, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." मैंने बार-बार मन ही मन यह कई बार कहा तो कुछ बल मिला. फिर टीचर जी ने क्लास में अनाउन्स किया अब संजय हम सबको बतायगा कि उसका प्रोजेक्ट जो यहाँ तक लाते-लाते टूट गया, वह क्या करता और किस काम आता.

खैर, जब एक बार उठ कर बोर्ड तक पहुँच गए तो फिर यह बताना कि मेरा प्रोजेक्ट क्या करता और किस काम आता, कोई मुश्किल काम नहीं था. आखिर मैंने उस प्रोजेक्ट पर कितनी मेहनत की थी. टीचरजी ने खुश हो कर अच्छे नम्बर दिए.

घर पहुंचे तो सबने मुझे ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, "क्या हुआ?" मैंने उत्साह से सब हाल बताये. माँ कहने लगी तो तुम्हारी समझ में आ गया कि "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का क्या मतलब है.

मैंने कहा, "इसका मतलब तो मुझे पता है, पर बार-बार गाने का क्या मतलब, यह नहीं पता."

तो पता है माँ क्या बोली? वह पूछने लगी कि जब मेरा प्रोजेक्ट टूट गया था तो मेरे दिमाख में क्या आया.

मैंने कहा, "मेरे दिमाख में क्या आया? मुझे लगा कि अब मैं फेल हो जाऊंगा और शुक्ला फर्स्ट आ जायगा. मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी."

माँ ने कहा और तुम रोने लगे, इतना कि भाईसाहेब के हाथ ही नहीं आ रहे थे.

भाईसाहेब ने हंस कर कहा, "यह तो प्रोजेक्ट ज़मीन पर पटक कर भाग गया था. बड़ी मुश्किल से पकड़ में आया. रोये सो रोये."

"तो फिर, तुमने कैसे सारी क्लास से सामने प्रोजेक्ट के बारे में बताया?" माँ ने मुझसे पूछा.

"वह तो बार-बार मन में "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" कहने से कुछ बल मिला और एक बार चोक हाथ में ले कर बोर्ड पर डायग्राम बनाया तो फिर सब कुछ अपने आप याद आ गया और मैंने क्लास को अच्छी तरह से समझा दिया."

"अच्छा जब तुम "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" मन ही मन गुनगुना रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"बस, तुम्हारा चेहरा सामने आ रहा था. और मैं क्या सोच रहा था? हूँ..कुछ नहीं, कुछ भी नहीं सोच रहा था."

"और जब प्रोजेक्ट ले कर सायकिल पर जा रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"कैसे इसे पकडूँ कि गिरे नहीं. इसमें जर्ब ना आ जाये. टीचर जी को प्रोजेक्ट अच्छा लगेगा या नहीं..."

"फिर भी प्रोजेक्ट टूट गया."

"यही तो.."

"फिर जब तुमने "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का पाठ किया तो सब ठीक हो गया?"

"हाँ, माँ!"

"तो बस!"

"बस?"

'हाँ, बस!"

यही कमाल है माँ का, कुछ कहती भी नहीं, और सब कुछ सिखा जाती है. पता नहीं कहाँ से आते ऐसे विचार उनके दिमाख में. माँ तो होती ही है ऐसी, आपकी भी ऐसी ही माँ होगी ना!!

3 comments:

Kamaksha Mathur said...

बहुत ही सुन्दर भाव और और उसको सुन्दर शैली से व्यक्त किया! बहुत अच्छा लगा पढ़ कर!!

Unknown said...

Very well written Sanjayji.
भगवान् का नाम एक वशीकरण मंत्र है - यह हमारा विश्वास है.

Amit Mathur said...

जी संजय जी ! मेरी माँ भी बस समझो ऐसी ही हैं. मगर शायद मैं आप जैसा नहीं हूँ इसलिए कभी (अभी भी) माँ की बातों का अर्थ नहीं समझ पाता.