Tuesday, April 13, 2010

"सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये"

उन दिनों एक अजीब हवा चली थी देश में--भाषा को ले कर आन्दोलन हो रहे थे. हिंदी और अहिन्दी भाषी आपस में लड़ पड़े थे. तथाकथित और कपोल-कल्पित डर से भ्रमित हो कर लोग सड़कों पर निकल आये थे. राम जाने, हमारे हिंदी भाषी प्रदेश में किसको किस चीज़ से खतरा था, पर हम सब विद्यार्थी हवा में हाथ फ़ेंक-फ़ेंक कर यह उद्घोष करते फिरते थे कि "हिंदी हमारी माँ सामान है, कोई अगर हिंदी को अपमानित करेगा तो हम उसे नहीं छोड़ेंगे." रातों-रात, बाज़ार से सारे अंग्रेजी और दूसरी किसी भी भाषा के बोर्ड तोड़-फोड़ कर सड़कों पर ढेर लगा दिए गए और पेंटर्स ओवर टाइम हिंदी के बोर्ड और साइन बनाने में जुट गए.

हम लोगों का कोलेज बंद कर दिया गया, और उस दिन मैं जलूस के साथ-साथ घर से काफी दूर तक निकल गया. बाद में, मैं थक कर वापिस घर लौटा. बहुत देर हो गई थी और नारेबाजी से मेरा मुंह लाल हो रहा था. घर के पास पहुंचे ही थे कि डी सेक्शन वाले शर्माजी मिल गए. उन्होंने बताया कि किसी ने उन्हें बताया है कि साउथ इंडिया में लड़कों ने हिंदी के विरोध में नारे लगाये और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता. उस ज़माने में इन्टरनेट तो था नहीं कि किसी खबर कि कोई पुष्टि की जा सके. शर्माजी कह रहें हैं तो ठीक ही होगा. बस मेरा दिमाख तो ख़राब ओ गया. उन सालों की इतनी हिम्मत? राष्ट्र-भाषा का अपमान? यह तय हुआ कि जितने साउथ-इंडियन यहाँ "हमारे इलाके" में रहते हैं उनसे बात की जाये. अगर किसी ने इस बात का समर्थन किया और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता, तो बस हम भी ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.

जब मैं घर में घुसा तो चेहरा तमतमाया हुआ था और मुठियाँ भिंची हुई थीं. माँ आंगन में बैठी धोबी का हिसाब कर रही थी. बस उन्हें पता चल गया कि कोई गहरा मसला है. पूछा तो मैंने तैश में कहा कि "हम भी चूडियाँ पहने नहीं बैठे, उनके ईंट का जवाब पत्थर से देंगे."

माँ कहने लगी, "ठीक है, पहले हाथ-मुंह धो कर ठंडा पानी पीओ, गर्मी बहुत है. फिर कटोरदान में कुछ पराठें रखें है, और जाली की अलमारी में सब्जी और दही रखा है. खा लो, फिर देना ईंट का जवाब पत्थर से, जिसको भी देना हो."

मुझे भूख लगी थी और ठन्डे पराठे के साथ ताज़ी बनी सब्जी, और दही का नाम सुन कर भूख और ज़ोरों में भड़क उठी. जब तक हाथ-मुंह धो कर आये, माँ ने तश्तरी में खाना परोस दिया था. जल्दी-जल्दी, लपड़-लपड़ खाना शुरू किया तो माँ ने पूछा किसकी ईंट का जवाब देना है? मैं फिर भड़क गया, "अरे, यह साउथ इंडियन क्या समझते हैं अपने-आप को? हिंदी राष्ट्र-भाषा है. कोई उसका विरोध करेगा तो हम ईंट का जवाब ..."

"अच्छा! तो यह बात है. तो वह ईंट मारेंगे, और तुम पत्थर. फिर तो बहुत जल्दी बस ईंट और पत्थर रह जायेंगे, लोग तो अस्पताल में होंगे."

"अब जो होगा सो होगा. हमने भी तो चूडियाँ नहीं पहन रखी."

"तो तुम उन्हें ज़बरदस्ती हिंदी बोलने और लिखने पर मजबूर कर दोगे?"

"इसमें मजबूरी की क्या बात है. हिंदी राष्ट्र-भाषा है कि नहीं?"

"है तो बेटा! मानो तो है न मानो तो नहीं है."

"ना मानो का क्या सवाल उठता है. अरे! वाह! उनकी ईंट का जवाब...."

"तो तुम वह करोगे जो दूसरे करेंगे. वह ईंट उठाएंगे तो तुम पत्थर."

"और जो हम पत्थर नहीं उठाएंगे तो वह जो चाहेंगे करेंगे?"

"और उनका विरोध पत्थर उठाये बगैर तो हो ही नहीं सकता?"

"कैसे?"

"तुम अपने स्वाभाव पर अडिग रहो. तुम्हें लगता है वह गलत कर रहें हैं?"

"बिलकुल!"

"और अगर तुम वही करोगे जो वह कर रहें हैं, तो फिर उनमे और तुममे क्या फर्क रह जायेगा?"

मैंने भावों कि रौ में आ कर कहा, "ना रह जाये, पर अब तो उनकी ईंट का जवाब पत्थर से ही दिया जाएगा." पर मन ही मन सोचा की माँ कि बात में दम तो है.

तभी माँ ने एक बात कही जो मुझे अब तक याद रह गई. बोलीं, "बेटा, हर मुहावरा हर जगह के लिए सिद्ध नहीं होता. एक मुहावरे की टांग पकड़ कर बार-बार खेंचोगे तो गिर जाओगे. यह क्या बात-बात में ईंट का जवाब पत्थर दे देने की बात कर रहे हो. पहले बताओ किसने ईंट फेंकी?"

"शर्मा बता रहा था की साउथ इंडिया में हिंदी का जम के विरोध हो रहा है और वहाँ लड़के नारे लगा रहें हैं कि कोई हमारे ऊपर हिंदी थोप नहीं सकता."

"साउथ इंडिया में कहाँ?"

"यह पता नहीं.."

"कौन लोग ऐसा कह रहे हैं?"

"इससे क्या फरक पड़ता है? कह तो रहे हैं ना?"

"अच्छा, तो क्यों कह रहे हैं?"

"गधे हैं, इस लिए कह रहे हैं."

"यहाँ के गधे क्यों ऐसा ही क्यों नहीं कह रहे हैं?"

"कह के तो देंखे..."

"हाँ, समझे. तुम उन्हें पत्थर मार दोगे."

"और क्या.."

"तो तुम्हें इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है, क्यों कह रहा है. बस अगर कहा तो पत्थर मार दोगे."

"बिलकुल."

"तो थोपना किसे कहते हैं."

"तुमसे बात करना बेकार है, माँ."

"तो मुझे भी पत्थर मारोगे?"

"कैसी बात कर रही हो माँ?

"क्यों, तुम क्या सोचते हो, तुम पत्थर मारोगे तो तुम्हारी राष्ट्र-भाषा, तुम्हारी मात्रभाषा, हिंदी माँ बहुत खुश होगी? तुम्हारे सारे पत्थर तुम्हारी हिंदी माँ को ही लगेंगे."

मैं रोने-रोने को हो गया. "तो तुम चाहती हो मैं और सभी हाथ में चूडियाँ पहन कर बैठ जाएँ? कुछ न करें."

"यह कहा मैंने? या तो पत्थर मारों या चूडियाँ पहन कर बैठ जाओ. अरे, इन मुहावरों से आगे बढ़ो बेटा. पता करो कौन, क्यों विरोध कर रहा है. कहाँ अवरोध है. उसे हटाओ, और सबको गले लगाओ."

"पर शर्मा कह रहा था..."

"शर्मा क्या बी-बी-सी रेडियो है या वोइस ऑफ़ अमेरिका का संवाददाता? उसने कहा और तुमने सुन लिया. और सुना भी क्या--कोई कहीं पर किसी कारण से हिंदी का विरोध कर रहा है, और बस हाथ में पत्थर उठा लिया."

"पर ऐसी बात एक कान से सुन के दूसरे कान से कैसे निकल दें?"

"हे भगवान! फिर मुहावरा. पहले कथ्य को समझो फिर तथ्य को. मुहावरों को मारो गोली. अच्छा, चलो ठीक है. मुहावरा ही सुनना है, तो सुनो. लोग पता नहीं क्या-क्या कहेंगे. तुमको सूप के स्वाभाव का होना है, जोकि अनाज को रख लेता है और छिलके को उड़ा देता है. "सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये" समझे. लोग तो पता नहीं क्या-क्या करेंगे, तुम उन्हें देख कर अपना स्वभाब बदलने लगे तो बस थाली के बेगन की तरह, इधर से उधर तक लुढ़कते ही रहोगे."

गई रात तक काफी कुछ सोचने के बाद नींद आई. अगले दिन पहले जा कर शर्मा को ढूंडा. लाइब्रेरी के पास बैठा बेनर बना रहा था. मैंने पूछा तुम्हें कौन बता रहा था साउथ इंडिया में हिंदी के विरोध के बारे में. वह लटपटा गया कहने लगा, "तुम्हें यकीं नहीं? गंगा कसम वहाँ दंगा हुआ और.."

मैंने पूछा "कहाँ?" तो कहने लगा, "साउथ इंडिया में."

मैंने कहा "साउथ इंडिया में कहाँ पर?"

तो नाराज़ हो गया, "यह मुझे पता नहीं."

मैंने फिर पूछा, "क्यों कर रहें है वहाँ लोग ऐसा?"

तो वह भी वोही बोला जो मैंने माँ से कहा था, "इससे क्या फर्क पड़ता है?"

पर अब मैं माँ की तरफ था. "बहुत फर्क पड़ता है. बिना सोचे समझे तुम उन्हें पत्थर मारोगे?"

"और तू चूड़ियाँ पहन कर बैठेगा, हैं न?"

"क्या सिर्फ पत्थर मारना और चूड़ियाँ पहनना, दो ही रास्ते हैं?" मैंने पूरे विश्वास से पूछा. शर्मा कुछ न बोल सका.

अच्छा हुआ मैं उस दिन माँ की साइड हो गया, वर्ना बेकार ही मेरा पत्थर का वार ज़ाया होता या फिर मैं चूड़ियाँ पहने बैठा होता. उस शाम शर्मा को और लड़कों के साथ पुलिस पकड़ कर ले गई. लौट कर आया तो ऐसा चुप की जैसे मुंह में जुबान ही नहीं. कहते हैं की उसकी पेंट उतार कर उसे डंडे मारे गए थे. इधर मैंने साहित्यिक हिंदी परिषद् के रिसाले में एक ज़ोरदार लेख लिखा, "हिंदी का विरोध क्यों?" लोगों ने उसे बहुत पसंद किया और उस लेख से प्रेरित हो कर एक वाद-विवाद प्रितियोगिता का आयोजन किया गया. मुझे परिषद् ने ५० रूपये का पारितोषक दिया.

इस बार माँ ने मुहावरों के परे मुझको एक नया रास्ता दिखाया.

1 comment:

Unknown said...

Congratulations! on winning the debate competition. A very healthy way to debate on any issue like such.