Monday, April 19, 2010

"बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."


हुआ यह की उस बार घर के आम के पेड़ में कुछ ज्यादा ही आम आये. माँ ने कच्चे आम उतरवाए तो डलिया भर हो गए. एक लम्बी साँस ले कर कहने लगी, "बिटिया को इतना पसंद हैं आम का अचार, वह होती तो बनाते कलोंजी वाला अचार. सच्ची हाथ कट गए हमारे तो उसको विदा करने के बाद." हम सब को पता था की इस बात का समापन तो माँ थोड़ी सुकड़-सुड़क करने के बाद आँचल से आंसू पोछ कर ही करेंगी. हम इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि इस बार कुछ अलग ही हुआ. अचानक माँ को कुछ याद आया, कहने लगीं, "अरे बेटा, तुम्हारे एक्जाम्स तो हो गए, छुट्टी शुरू हो गई हैं. तो तुम जा के दे आओ ना अपनी बहना को घर के आम. कितना खुश हो जाएगी. इतना बुलाती है तुम्हें. पिछली बार जीजाजी भी कितना कह कर गए थे. ओफ्फो, कौन दूर है. बस में बैठो तो कानपूर पहुँचने में दो घंटे भी नहीं लगाते. गर्मी? अरे हम तुम्हारी उम्र के थे तो ...."

"बस, बस, माँ! ठीक है, हम चले जायेंगे ले कर. तुम बस अच्छा सा तोशा बना देना."

"तोशा" यानि के सफ़र का टिफिन जिसमे अमूमन एक-या दो फली आम के अचार की, ४-६ पूरियाँ, आलू या भिन्डी की भुनी हुई सब्जी, और एक टुकड़ा मीठा होता था. सोच कर ही मुँह में पानी आ जाता है. साथ में सुराही का ठंडा पानी. उसके बाद का जुगाड़ मैं खुद कर लेता था और वह था मघई पान का जोड़ा जिसे खा कर सिर ठंडा और कान गरम हो जाते थे. फिर क्या कानपूर और क्या नागपुर, सफ़र आराम से कट जाता था.

मज़े की बात है, इन सब चीज़ों से ऊपर होती थी रास्ते की चट-पट. जिसके लिए राह खर्च भी मिलता था. और उस राह खर्च में आता था बनी के मोड़ का गुलाब जामुन या कानपूर की चाट वा सोंफिया पान. कानपूर में खातिरदारी और लौटते में बहन जो टीका करेगी उस पैसे से फिर लौटने में मस्ती. बताइए? आम के आम और गुठलियों के दाम. ऐसे में कौन भाई अपनी बहन को कच्चे आम देने कानपूर नहीं जायेगा?

तो वही हुआ. हमने यू पी एस आर टी से की कानपूर स्पेशल बस पकड़ी. बनी में जो बस रुकी तो वहाँ की जगत-प्रसिद्ध गुलाब-जामुन खाने की तीव्र इच्छा ने जोर मारा. जैसे ही दुकान की तरफ बढ़े तो देखा कि वहाँ तो कौल साहिब अपने मित्रों के साथ विराजमान है. आनन्-फानन में सबसे परिचय हुआ और कौल साहिब कहने लगे, "यार, बताया नहीं कानपूर जा रहे हो, हमारे साथ आ जाते." मैंने पूछा, "क्या तुम लोग भी कानपूर जा रहे हो?" तो कहने लगे, "हाँ, भाई! इन लोगों को थोडा नवाबगंज घुमा दें फिर इन्हें कानपूर ही तो छोड़ना है. सिस्टर के यहाँ जा रहे हो न. अरे हम छोड़ देंगे. चलो, हमारे साथ adjust हो जाओ. छोडो इस खटारा बस को." फिर उसने अपने दोस्तों से मेरी इतनी तारीफ़ कि मैं लज्जित हो गया. कहने लगा, "जोक तो बहुत लोग सुनते है, पर जैसा संजय सुनाता है...तुम यार बस, कुछ नहीं, सामान निकालो बस से." उसके दोस्त भी सब बहुत रोचक थे. ऐसे पकड़ लिया कि मैं मना ही नहीं कर पाया. मेरा बैग और आम कि डलिया कौल साहिब की मारुती ८०० की बूट में किसी तरह से ढूंस दी गई. बूट पहले से ही बिलकुल लबालब भरी थी. पता नहीं क्या जुगाड़ कर के समान तो फिट हो गया. अब आई कार में मेरी बैठने की बारी तो आगे की दो सीटों के बीच में एक बैग फसायाँ गया और उस पर मैं बैठा पैर फैला के, यानि गीयर को अपनी दोनों टांगों के बीच में फंसा कर. मज़ा तो तब आया जब मित्रा साहिब ने पीछे बीच वाले सीट पर फंसने के बाद आपने घुटने मेरी पीठ पर अड़ा दिए और बोले, "अरे, आप "कम्फरटेबिल" हो के बैठें माथुर जी!" मैं कुछ कह पाऊँ, तब तक कौल ने सामने से गेयर बदला और मेरी जान जाती रही. कुछ मिनटों तक तो अँधेरा छाया रहा. मित्रा साहिब और उनकी मिसेस से पहली बार मिला था, उनके सामने कौल को गाली भी नहीं दे पाया. फिर जब होश आया तो मारुती सड़क छोड़ कर नवाबगंज की कच्ची-पक्की सड़क की तरफ मुड़ चुकी थी. हर एक गड्ढे पर मैं उछल जाता था, मित्रा साहिब के घुटने और कौल साहिब की कार के लो गेयर के बीच अड़े-फंसे बैग पर पुनःस्थापित हो जाता था. पर यह लय बीच-बीच में भंग हो जाती थी जब कोई ना कोई पूछ लेता था की माथुर साहिब, "कोम्फोरटेबिल" तो हैं ना आप." इसका जवाब मैं गा कर देता था, "पीछे से मित्रा मारे घुटने, आगे से कौल बदले गीयर, बोलो भाई वाह, वाह, वाह!" सब हँसते-खिलखिलाते कब नवाबगंज पहुँच गए पता ही नहीं चला. जब उतरने की कोशिश की तो पिछवाड़े ने एक बड़ी शिकायत की, पर जब बूट खोली गई तो मेरी तो जान ही निकल गई. टोकरी टूट गई थी, और सारे आम बूट में छितरा से गए थे. खैर! सारे आम फिर से पकड़-पकड़ कर टूटी टोकरी में डाले गए. आब क्योंकि टोकरी टूट गई थी तो उसे एक कपडे की गढ़री में बांधा गया. बस वही गलती हो गई! मतलब, बस बेकार में छोड़ने, कौल साहिब के साथ "खुले प्रोग्राम" में आने, बैग पर गीयर और मित्रा साहिब के घुटनों के बीच सैंडविच बनने के बाद, और कानपूर की जगह नवाबगंज पहुँचने के बाद की यह सबसे बड़ी गलती थी. मगर, जब कौल साहिब ने गढ़री बाँधी, उसे बूट में पीछे को तरफ उरस दिया और विजयभाव से कहा "देखा, प्रॉब्लम सोल्व्ड!" तो सबने बहुत समझदारी से सिर हिला कर हामी भरी. पर अगले दिन जब आम चेक किये गए, कौल मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था.

अगला दिन? जी हाँ! हालाँकि, उस दिन किसी को भी यह इल्म नहीं था की हमें रात नवाबगंज में गुजारनी पड़ेगी. हुआ यह कि कमबख्त मारुती का इंजन गर्म हो गया और उसका एयर कुलिंग सिस्टम इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हो पाया कि पहले से ही ठुसी गाड़ी में एक और यात्री घुस आये अपने बेग, आम की टोकरी और सुराही के साथ. खैर सुराही तो नवाबगंज पहुँचते-पहुँचते ही टूट ही गई थी, पर उसका लकड़ी का फ्रेम फिर भी मिसिस कौल के पांव में गड़ता रहा. अगर सुराही ना टूटती और उसमे पानी होता तो हम उसे गर्म रेडीएटर पर डाल देते, और शायद इंजन चलता रहता. पर केवल सुराही के फ्रेम से इंजन कैसे ठंडा होता? जब इंजन नवाबगंज पहुँच कर फिर स्टार्ट ना हो तो हम सब क्या करते? वहां रात में कोई मेकनिक कहाँ मिलता. तो रात नवाबगंज के डाक-बंगले में बितायी गई. इस बिना प्लान की पिकनिक के अलावा चारा ही क्या था. मुझे लगता है कि बिना किसी को बताये कौल साहिब ने थम्प्स अप में कुछ मिला दिया था, तभी तो मिसेस कौल इतना हंसती रही और पीठ में इतना दर्द होने के बावजूद मैं इतना नाचता रहा. और बातें तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. जगह लाजवाब, साथ बढ़िया तो पिकनिक कमाल!

राम-राम करके अगले दिन गाड़ी ठीक हुई तो कानपूर के लिए चले. रास्ते में मित्रा साहिब और पार्टी को उनके ठिकाने पहुँचाया और जब तक लंच करके जीजी के घर पहुंचे, शाम हो गई थी. जब वहाँ आम की गठरी उतारी तो उस पर कुछ पीले दाग़ उभर आये थे. खोला तो दिल धुक. सारे आम अजीब तरह से पक गए थे. पक गए थे मतलब ३० घंटे गर्मी और धूल में दूसरे सामान के साथ दबने से, समय से पहले ही पीले पड़ गए थे. खैर, अब जो था सो था.

सारी बात सुनने के बाद जीजी के ससुराल में सब हंसने लगे. मैंने कहा कि, "जीजी! मम्मी की बड़ी इच्छा थी कि तुम इन आम कि कलोंजी बनाओ." जीजी हँसे लगी, "इन आम की? इनका अब कुछ नहीं हो सकता. तुम चिंता मत करो, चलो हाथ मुँह धो कर खाना खा लो."

फिर, आम को भूल कर, एक-दो दिन खातिर करवा के, अपने पुराने सुराही के फ्रेम में नई सुराही लगाये, ताज़ी मिठाई का डिब्बा और जीजी के हाथ का तोशा ले कर घर वापिस आये. लौट कर माँ ने पूछा, "तो बहना ने बनाई कलोंजी? कैसी बनी?" माँ से झूठ कैसे बोलें? तो मैंने कुछ सोच कर सच-सच कहा, "नहीं, मेरे सामने तो जीजी ने कलोंजी नहीं बनाई."

"तो फिर?"

"हम तो बात चीत करते रहे, घूमने-फिरते रहे."

"अरे! और आम तो सड़ गए होंगे."

मैंने चाणक्य नीति अपनाते हुए कहा, "शायद. और क्या? कच्चे आम तो सड़ ही गए होंगे."

माँ की नाराज़गी ठीक ही थी, "तुम भाई-बहन मिल जाओ तो बस बातें ही बाते. चाहें आम सड़ जाएँ. सच में, बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."

पता नहीं माँ को कभी सच्चाई पता चली या नहीं. पर मैं कल जब यह निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख रहा था तो मुझे लगा मुझे माँ को सच्चाई बता ही देनी चाहिए थी. पर कल भी और आज भी मेरी हालात तो वैसी की वैसी ही है. जाना होता है कानपूर, तो पहुँच जाता हूँ नवाबगंज. कल माँ तो आज बीवी परेशान रहती है...

"सोचा था थोड़ी तारीफ़ कर दूँगा तुम्हारी जुल्फों की
तो पा जाऊंगा चाय के साथ ब्रेड-स्लाइस पतली सी.
कहाँ फँस गया लिखते हुए मोटे कसीदे तुम्हारे हुस्न पे!"

1 comment:

Arvind said...

वाह, बहुत ख़ूब!

उन्हें ये ज़िद कि मुझे देख कर किसी को न देख
मेरा ये शौक़ कि सब से सलाम करता चलूँ
-- शादाब लाहौरी