Tuesday, April 20, 2010


"बीच का बीज"

आधुनिक संभ्रांत मानव को यह बात कचोटती है कि उसकी वजह से प्रकृति-माता प्रदूषित हो गई, जंगल नष्ट हो गए, सारा प्राकृतिक सौंदर्य चला गया. मैं सोचता हूँ, यह भान होना तो बहुत अच्छी बात है, इससे नये प्रयोग होंगे, हमारे रहने और सोचने के तरीके बदलेंगे, प्रदूषण कम होगा--धरती माँ फिर से हरी-भरी होंगी. पर यदि इस बात से आज का मानव मन में एक ग्रंथि बना ले, और सोचे कि उसे इस दुनिया में आना ही नहीं चाहिए था, वही वजह है प्रकृति माता की दुर्गति के लिए, और दुखी हो कर बैठ जाये... तो संभवतः यह ठीक नहीं होगा. या तो उसे या फिर प्रकृति माता को कुछ करना पड़ेगा ताकि स्थिति बेहतर हो. सही कहा न मैंने? आप सोच रहें होगे कि यह तो ठीक है, पर इस बात का मेरे बचपन से, बचपन की मेरी माँ से, उसके सर्व-साधारण मुहावरे, कहावतें, और जन-श्रुति से क्या सम्बन्ध है?

मज़े की बात है कि सम्बन्ध है. आज आपको बताता हूँ. मुझे बचपन में बहुत बार यह सुनने को मिलता था कि "तुझे पता है बेटा, तेरी माँ कितनी सुन्दर थी जब उसकी और तेरे पापा की शादी हुई? गोरा रंग, गुलाबी आभा और सुन्दरता ऐसी कि सारे शहर में शोर मच गया कि चलो देख कर आयें डॉक्टर साहिब के घर परी जैसी बहू आई है." मैं कहता, "सच्ची भुआ!" भुआ कहती "और क्या!"

मैं अविश्वास से माँ को देखता: एक साधारण-सी धोती पहने हुए, अपने आधे काले और आधे सुफेद होते बालों को कंघी करती, घर का सारा काम निबटाती हुई माँ को! और सोचता कि "मेरी माँ, परी? सच्ची?" फिर-फिर पूछता, "माँ! अपनी परी वाली कहानी सुनाओ." तो माँ हंस देती, "अब क्या सुनाये बेटा. पांच-पांच बच्चों को पेट मैं रखा, कहाँ रह गई वह परी?" और मैंने धीरे-धीरे मन में गांठ बंध ली, "हाय! हम पांच भाई-बहन माँ के पेट में पले, तो माँ तो परी से माँ हो गई. कितना बड़ा नुकसान कर दिया माँ का हमने. तभी तो माँ मुझे इतना डांटती है. मैं गन्दा बच्चा हूँ, क्या ज़रुरत थी मुझे पैदा होने की?"

वैसे तो माँ को क्या पता चलता की मन ही मन मैंने निर्णय कर लिया था कि मैं एक सुन्दर सी, कोमल सी परी को साधारण-सी माँ बनाने का दोषी हूँ, और मुझे तो पैदा ही नहीं होना चाहिए था. पर हुआ यह कि मैं उस दिन जिद कर बैठा, और कुछ ज्यादे ही परेशान किया होगा माँ को कि वह सिर पर हाथ रख कर बैठ गई और पापा से कहने लगी, "देखो जी, यह शहर अच्छा नहीं है. यहाँ संजय की कम्पनी उज्जड लड़कों से होती है, बिगड़ता जा रहा है, कोई बात नहीं सुनता, ऐसे कैसे चलेगा? आप अपना ट्रान्सफर किसी अच्छे शहर में करवा लीजिये वर्ना..." यह बात मेरे सुनने की सीमा में कही गई थी तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने चीख कर कहा, "हाँ, मैं उज्जड हो गया हूँ. तुम लोग किसी अच्छे शहर चले जाओ, मैं यहीं रहूँगा उज्जड बच्चों के साथ. तुम परी बन कर रहना अच्छे शहर में, मुझे कहीं नहीं जाना."

जैसा मैंने बताया, माँ ने तो पांच-पांच बच्चे पाले थे, उनका माथा ठनका कि यह मैं क्या कह रहा हूँ. भाग्यवश, मेरे पापा का धैर्य असीमित था. उस समय दोनों चुप हो गए, कुछ नहीं बोलो. मुझे खुद रोते रोते नींद आ गई. अगले दिन मैंने देखा माहौल चुपचाप है, पर कहीं गरज के साथ छींटे पड़ने की सम्भावना नज़र नहीं आ रही. देखा, माँ किचिन में नौकरों से कुछ काम करवा रहीं हैं, और आँगन में पापा एक टेबिल पर एक जार में कुछ सेटिंग कर रहे थे. कुछ कौतुहल हुआ. पास जा कर देखा. जार में आधा पानी भरा था. पापा ने एक लकड़ी के टुकड़े पर तीन बड़े-बड़े बीज बांधे हुए थे, जिसे वह पानी में डुबो रहे थे. मैंने पूछा, "पापा, यह क्या है?" तो कहने लगे, "यह एक एक्सपेरीमेंट है जो तुम्हारे लिए बना रहें है." मुझे पापा के बनाये हुए एक्सपेरीमेंट बहुत पसंद आते थे. यह एक्सपेरीमेंट तो खासा मजेदार लग रहा था. "बताओ तुम क्या देख रहे हो?" मैंने उनींदी आँखों से मिचमिचाते हुए देखा फिर कहा, "ओह, एक बीज तो पूरा पानी में डूबा है. एक हवा में है, और एक पानी के उपर."

"बिलकुल ठीक. अब इसको हम धूप में रख देंगे."

पापा ने टेबिल को सरका के धूप में कर दिया. फिर कहने लगे, "तुम्हारा काम है, जब धूप में पानी सूखने लगे और यह "बीच का बीज" हवा में आ जाये तो फिर से बस इतना पानी भरना की यह बीज आधा पानी में, आधा हवा में रहे."

"अच्छा. इससे क्या होगा?"

"हम लोग देखेंगे इससे कुछ दिन में क्या होगा. अभी तुम तैयार हो कर स्कूल जाओ."

फिर उस दिन क्या, उससे अगले चार-पांच दिन तक किसी ने ना मुझे डांटा, ना परी की बात के बारे पूछा. बस माँ चुप-चुप अपना और मेरा काम करती रही. मैं माँ के मुहावरे सुनने को तरस गया. पर माँ तो चुप थी. कभी कभी पता नहीं माँ को क्या हो जाता था, चुपचुप हो जाती थी. मुझे पता था वह पापा से बोल रहीं हैं और चुपचाप कुछ हो रहा है, पर क्या हो रहा है मुझे पता नहीं था. क्या वाकई यह लोग मुझे यहाँ इस उज्जड शहर में छोड़ कर परियों वाले शहर चलें जायेंगे? ज़रूर चले जाना चाहिए, मैं गन्दा बच्चा हूँ, माँ को परी से माँ बना दिया, वह कैसे माफ़ करेगी? यही सब सोचते-सोचते मैं कई दिन तक जार में बीच के बीज तक पानी भरता रहा. धीरे-धीरे "बीच का बीज" अंकुरित होने लगा. नीचे का बीज फूल कर कुप्पा हो गया. ऊपर का बीज रहा वैसे का वैसा.

उस दिन इतवार था और सुबह-सवेरे मेरी आँख खुली पापा की आवाज़ से, "देखो, संजय के एक्सपेरीमेंट में कितने अच्छे फूल आये हैं?"

"फूल?" मैं हडबडा कर उठा और दौड़ कर आँगन में पहुंचा. देखा, बीच के बीज के अंकुर से बढ़ कर एक बेल निकली है और उसके एकदम सिरे पर एक मुनामुनिया-सा, सुफेद फूल उग आया है. नीचे का बीज कुप्पा हो कर फट गया था और उपर का था वैसा का वैसा.

पापा कहने लगे, "क्यों? कैसा लगा यह एक्सपेरीमेंट?"

मैंने खुश हो कर कहा, "बहुत अच्छा!"

तभी मम्मी ने पूछा, "इससे क्या सीखे?"

मैंने सोच का घोड़ा दौड़ाया पर कुछ समझ में नहीं आया कि क्या सीखा. मैंने सरल रस्ता पकड़ा, "माँ, तुम बताओ न."

मैंने सोचा था हमेशा की तरह पापा-मम्मी बताएँगे तो पर थोड़ी देर के बाद, मुझे सोचने पर मजबूर करने के बाद. पर इस बार माँ तुरंत ही बताने लगी, "देखो बेटा, यह जो बीज है न, इसके सिर्फ तीन जीवन हो सकते हैं. या तो यह नीचे वाले बीज की तरह पानी और कीचड़ में पड़ा में सड़ जाये, या ऊपर वाले बीज की तरह वैसा का वैसा रहे और भोजन की तरह काम आये. या फिर बीच वाले बीज की तरह इसमें से बेल या पौधा निकले, और उसमे फूल और बीज आयें."

मैंने अचरज से सिर हिलाया.

पापा ने पूछा, "तुम्हें कौन सा बीज पसंद आया?"

"बीच वाला" मैंने कहा.

तो माँ ने अजब बात कही. कहने लगी, "यह बीच का बीज मैं हूँ. और यह जो फूल है न यह हो तुम. प्यारे से."

पापा ने मुस्कुरा के पूछा, "और मैं क्या हूँ?"

"आप हैं इस उपवन के माली." मम्मी बोली.

मैंने पूछा, "और बेल क्या है?"

"बेल वह परी है जो बीज में छुपी थी. अब तेरी माँ है. देखा कितनी खुश है, हवा में लहरा रही है."

मैं हुलस कर माँ से चुपट गया.

पापा ने पूछा, "अच्छा बताओ, ऊपर का बीज कौन?"

मैंने कहा, "नहीं पता." तो कहने लगे, "तुम्हारे स्कूल कि नन्स और टीचर्स, जिन्होंने यह इरादा किया कि उनके खुद के बच्चे नहीं होंगे और वह दूसरों के बच्चों को पढ़ाएंगे, लिखाएंगे, उनके लिए काम आ जायेंगे."

मेरा अचरज से मुँह खुला का खुला रह गया. तभी मम्मी कहने लगी, "और जानते हो यह पानी में डूबा हुआ बीज क्यों सड़ गया?"

मैंने कहा, "नहीं! पर पहले यह बताओ, तीसरा बीज कौन है?"

मम्मी कहने लगी, "यह हैं यहाँ के उज्जड बच्चे, जिन्हें सिर्फ पानी और कीचड मिला, खुली हवा नहीं मिली, तो वह सड़ गए."

पापा कहने लगे, "बीज तो अच्छे ही होते हैं, पर किसी को खुली हवा और धूप नहीं मिलती तो बेचारे सड़ जाते हैं."

माँ ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, "कोई बच्चा माँ के पेट से गन्दा नहीं आता. गंदे बच्चों को कोई बताने वाला, सम्हालने वाला नहीं होता."

पर मेरी तो परी जैसी माँ और सागर से धैर्यवान पापा थे न. बिना पता लगे, बिना बताये, खेल-खेल में, वह मेरे मन की कठिन से कठिन ग्रंथि को बिना काटे-पीटे खोल देते थे. कल वह मेरे लिए "बीच का बीज" थे, आज क्या हम-और आप अपने और दूसरों के बच्चों के लिए "बीच का बीज" बनाने को तैयार हैं? अगर हैं, तो मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यह जगत फिर से हरा-भरा हो जायेगा, चाहें अभी कितना भी प्रदूषण दिखे.

2 comments:

kavitaprayas said...

बहुत ही खूबसूरत कहानी है, मेरी आँखों में तो आँसू आ गए .... Keep it up !
प्रणाम सहित,
अर्चना

Kamaksha Mathur said...

कितनी गूढ़ बात प्रकाशित है इस लेख में जो प्रेरणा का सागर बन गई!! वाह !!!