Monday, November 29, 2010

हिंगलिश की पंचमेल खिचड़ी या हिन्दी की मानक बिंदी?



यह बात मुझे बहुत गुदगुदाने वाली रही और मैं देर तक मन ही मन हँसता रहा. मेरे एक हिन्दी मित्र ने मेरी हिंगलिश में 2G स्कैम पर लिखे व्यंग पर टिप्पणी की. कहा कि भैया आप में प्रतिभा है, पर आप शुद्ध हिन्दी में क्यों नहीं लिखते? इतने उर्दू और अंग्रेजी के शब्द पढ़ कर अच्छा नहीं लगता.

इस बात पर, उनको मेरा उत्तर था कुछ यूँ:

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"जब दूसरी भाषा का G हमारे जी को भाया

और हमारे नेताओं के मन को ऐसा भरमाया

कि हमारी कविता में अलबेला व्यंग घुस आया.

तब बहुत चाहा कि भाषा को शुद्ध-पवित्र रखूँ

पर "2G" का हिन्दुस्तानी तर्जुमा ना कर पाया

और करता यदि अनुवाद तो कोई समझ पाता?

अरे अगर मैं खिड़की खुली ना रखता तो क्या

आज इस संगणक पर देवनागरी में लिख पाता?

क्षमा चाहता हूँ, सीखा है जैसा देश वैसा भेष

मैं टेक्नोलोजी ना ओढ़ता तो आपसे मेल हो पता?"

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आप पूछ रहें हैं कि, "यार! आपने व्यंग क्या लिखा था यह तो बताओ."

यदि आप मेरे "status" फेसबुक पर पढ़ते हैं तो आपने संभवतः मेरी यह "चार लेईने" पढ़ीं होगीं, जिसकी वजह से यह सब हुआ. चलिए यदि आपने नहीं पढ़ा तो वह पंक्तियाँ यह थीं:

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"देश में जी लगाना हो तो टेक्नोलोजी विदेश से लायेंगे,

जनता तो मिस्ड कोल से है खुश हम करोड़ों कमाएंगे,

आप क्यों हवा में हैं अपनी मुठियाँ बेकार रहें उछाल?

अरे मोबाइल करे यूज़ तो हम सब विकसित कहलायेंगे."

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अभी मैं इस सबका मज़ा ले ही रहा था कि मेरे एक और अज़ीज़ का फ़ोन आया, कहने लगे, "यह सब तो ठीक है, पर क्या हुआ उस संजय माथुर का जो परिष्कृत हिन्दी लिखता था, मानक हिन्दी में भी ठीक ठाक था, और जिसके लेखों को बचपन में पुरस्कृत किया गया था."

मैं मज़ाक के मूड में था तो कहा, "भैया वह तो अभी भी 'वैसा-सा' लिख सकता है, पर क्या अब आप 'उस-सा' पढ़ सकते हैं?"

दूसरी तरफ भाई जी की झुंझलाहट साफ़ नज़र आई. कहने लगे, "अब क्या कहें? अच्छे-अच्छे नयी टेक्नोलोजी की आंधी में बह गए. फेसबुक का ज़माना है. तुम्हारी भाषा भी बिगड़ गई तो इसमें किसी का क्या कसूर?"

मैंने कहा, "भाई जी! मैं आज फेसबुक पर लिखता हूँ तो मेरी बात देश-विशेष में त्वरित प्रेषित होती है, और मेरे पाठकों के विचार मुझ तक तुरंत आ जाते हैं. जिससे मैं अपने लिखाई में फटाफट फेर-बदल करके उसे और तीखा और धारदार बना लेता हूँ तो इसमें बुरा ही क्या है?"

"और सारा-सारा दिन लेपटोप का मुँह देखते रहते हो. कितने दिन हो गए कलम से लिखे हुए?"

"भाई जी! क्या अंतर है, बात तो वही है ना?"

"कितने दिनों से शब्दकोष का मुहँ नहीं देखा?"

"आवश्यकता ही नहीं पड़ी."

"बस यही, यही कारण है कि तुम आजकल इतना छिछोरा लिख रहे हो. शब्द तो भूल बैठे हो, जो उर्दू-अंग्रेजी और जिस भी भाषा का शब्द याद आ जाता है, लिखाई से जुड़ जाता है. और मेरे भगवान! यह लिखाई भी कहाँ? यह तो टिपर-टिपर है, जो चाहो छापो!"

"भाई जी! पहले मैं लिखता जनवरी में था, जो छपता जुलाई में था. तब तक बात बदल जाती थी. एक-आध ने पढ़ा, ना पढ़ा. कभी-कभी तो कारवाँ यूँ ही गुज़र जाता था किसी रहेगीर की नजर भी नहीं पड़ती थी."

"एक बार पुरानी, अच्छी भाषा में फिर से लिख कर तो देखो. यदि तुम्हारे पाठक उसे स्वीकार करें तो तुम्हें क्या कष्ट है? मुझे तुम्हारे फेसबुक पर लिखने में इतनी आपत्ति नहीं है जितनी जो चाहो लिखने पर है."

मैंने भाई जी की बात पर विचार किया और सोचा कि अगला लेख मैं उस भाषा में लिखूँगा जिसको मेरे भाईजी याद करते रहते हैं. अधिक से अधिक क्या होगा, बहुत से लोग उसे पढ़ कर समझ नहीं पाएंगे. तो पूछ लेंगे, शब्दकोष देख लेंगें.

फिर मैंने "मिशन सुहानी" की समीक्षा लिखी. जो शब्द बचपन के हमजोली थे, उन्हें याद किया और उन्ही को प्रयोग किया. जब लिख डाला तो पढ़ा. दिल बैठ गया. कौन पढ़ेगा इसे और कौन तो समझेगा? पत्नी को सुनाया. उसने किसी भी शब्द पर आपत्ति नहीं की. आश्चर्य! उसे लेख पसंद आया. उल्लास!! उसने कुछ संशोधन कराया. ठीक!!! वह भी पुरानी शैली में. बहुत अच्छा!!!!

फिर उस लेख को राम का नाम ले कर छाप दिया. लगभग बीस-पच्चीस लोगों की प्रतिक्रिया मिली. किसी ने शब्दों पर कुछ नहीं कहा. उन सबका ध्यान कथ्य पर था, तथ्य पर था, अर्थ पर था. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम यह सोच कर कि कौन समझेगा, गली-कूचे कि भाषा को अपना रहें हैं? त्वरित प्रकाशन के लोभ में भाषा का बलात्कार कर रहे हैं?

तभी मेरे अज़ीज़ मित्र ने अपने फेसबुक के "page" पर मेरे लेख को प्रकाशित किया. इस बार कुछ ऐसे लोगों की प्रतिक्रिया मिली जो हिन्दी भाषी नहीं हैं. पर उन्होंने भी शब्दों के पीछे छुपे भाव पर ही अधिक ध्यान दिया, शब्दों के चयन पर नहीं.

तो भाई, अब से तो मैं अपनी पुरानी शैली में ही लिखने वाला हूँ, जब तक कि कोई मुझसे यह नहीं कहता कि यह क्या हो गया. पढ़ते हैं, अच्छा लगता है पर समझ में कुछ नहीं आता.

आप क्या चाहते हैं, मैं किस भाषा-शैली में लिखूँ? आप क्या पसंद करेंगे- हिंगलिश की पंचमेल खिचड़ी या हिन्दी की मानक बिंदी?

Copyright 2010 Sanjay Mathur