Wednesday, June 22, 2011

कल कुछ इस तरह मुकम्मल हुई यह बात धीरे-धीरे. प्रज्ञा घर आयी हुई थी, और मैं उसके साथ बात करते-करते इस अशहार पर भी काम कर रहा था. उसने इसको फेसबुक पर कतरा-कतरा बनते देखा. मेरी सोच और भाव को पंक्तिबध्य करने की मर्यादा को भी देखा. अब वह बड़ी हो गई है, तो पूरी प्रक्रिया में भरपूर रूचि ली. आशा है कि काव्य की इस परंपरा का एक सिरा उसे सौंप पाउँगा, ताकि यह विधा परिवार में चलती रहे. शायद. भगवान ने अगर चाहा तो. तो सुनिए पूरी बात एक साथ:

बेताबी ही नहीं तो क्या मज़ा मोहब्बत का,
बुझते दिए से कहीं रोशन जहाँ हुआ है कभी?

क़ुरबानी ही नहीं तो क्या असर इबादत का,
नाफ़रमानी से जन्नत नसीब हुआ है कभी?

नाराज़गी नहीं ये तो शोशा है इश्क-मुश्क का,
बिना रूठे भी कोई माशूक बन पाया है कभी?

शीरीं जुबाँ नहीं तो क्या मज़ा गुफ़्तगूँ का,
कंटीले तार से भी कोई सितार बजा है कभी?

जगबयानी नहीं ये किस्सा है आश्नाई का,
"
संजय" ने कहीं यूँ ही कोई शेर कहा है कभी?

बेताबी.............Passion
क़ुरबानी...........Sacrifice
नाफ़रमानी.......Non-obedience
जन्नत............Equivalent to the concept of heaven
इश्क-मुश्क.......Poetic way of qualifying love as the fragrance of musk (Kasturi)
माशूक.............Beloved
जग बयानी.......Telling the world, spreading stories
आश्नाई............Friendship