Saturday, April 06, 2013

मेहनत मेरी, रहमत तेरी

हम सबने भारत-भ्रमण के दौरान यह बात ज़रूर महसूस की होगी कि भारत का आम आदमी बहुत ही फिलोस्फर, शायरी पसन्द और मस्त है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, ट्रक, लोरी, टैक्सी और स्कूटर के पीछे लिखी इबारत,कविता और शायरी।

इस बार, मैं थोड़ा एडवेंचरस हो उठा, और झारखंड से ले कर पंजाब तक का सफ़र कर डाला, और वह भी केवल १२दिन के अन्दर, अन्दर! जब हम लोग "भारत बन्द" के दौरान जमशेदपुर से बोकारो जाने की ध्रष्टता कर रहे थे, तब लोग सड़क बन्द कर के टायर जला रहे थे। एक समय ऐसा आया कि हम सब सोचने लगे कि ओगे जायें या वापिस जायें कि एक ट्रक ने ख़ासी बत्तमीज़ी के साथ हमारी इनोवा को ओवरटेक किया! हम लोग हड़बड़ा कर रस्ते से नीचे आये और फिर वापिस लड़खड़ा कर कच्चे रास्ते पर आये तो देखा कि ट्रक के पीछे लिखा हुआ था, "मेहनत मेरी, रहमत तेरी!"  हमारी तक़लीफ़ और शिकवा दूर हो गया, मुँह पर मुस्कुराहट आ गई और फिर जो नये जोश से चले तो तो हमारी मेहनत पर उस ऊपरवाले की रहमत हो ही गयी, और हम लोग धूलधूसरित ही सही, सही-सलामत बोकारो पहँुच गये।

रास्ते में एक और लारी पर लिखा हुआ देखा, "जो होगा देखा जायेगा, ऐसे ही वक़्त कट जायेगा।" क्या जस्बा है, क्या विद्वता। मैं यही सोचता रह गया। इतने में एक और क्लासिक इबारत दिखी, "छोड़ो, कोई देख लेगा।" मेरा तो दिन बन गया। 

बोकारो पहँुच कर इस बात का ज़िक्र हुआ तो मेरे हसमुख बहनोई, अमित ने बताया कि उन्होंने एक ट्रक के पीछे लिखा देखा, "सैंया फ़ौज में, पड़ोसी मौज में।" कितनी मज़ेदार बात है, लिखने वाले ने कितनी शरारत से बिना कुछ कहे ही मज़े, मज़े में बहुत कुछ कह दिया। हम लोग इस बात को ले कर देर तक हँसते रहे।

आप देखिये जगह का इबारत और फब्तियों पर कैसा असर पड़ता है। हम लोग जमशेदपुर से नवाबी शहर, लखनऊ आये। एक टैक्सी जो मेरे हिस्से आई, उस पर सुन्दर इबारत में सिर्फ़ एक मिसरा लिखा था, "कब तक छिपेगी कैरी पत्तों की आड़ में..." मैंने ड्राईवर जी से पूछा, "गुरू, इसके मायने?" कहने लगा, "हम तो ड्राइवर हैं, मालिक जाने या फिर आप अगर इल्म से ताल्लुक रखते है तो सरकार आप जाने।" मैं चुप हो गया ओर फिर सच जाने सारे रास्ते चुप ही रहा, ये सोचते कि क्या मैं इल्म से वाक़ई ताल्लुक़ रखता हँू? 

दूसरी टैक्सी पर लिखा देखा, "मँज़िल तो कोई नहीं थी बीच राह में, जहाँ मुसाफ़िर छोड़ गया साथ वींराँ में।" सच बताऊँ, मुझे समझ में आ गया कि मैंने कितनी भी कोशिश कर ली, लिख-लिख के मर लिया, पर अपने देश के ड्राईवर और ट्रकवालों की सहजबयानी के पार नहीं जा सका!

फिर हम लोग गुड़गाँव पहुँचे। हरियाणा का सीधा-सीधा और तीखा त़ंज जब ट्रकों के पीछे पँहुचता है तो देखिये कैसा मज़ा आता है। हम लोग डी एल एफ से ब्रिन्दावन जा रहे थे कि रास्ते में बस के पीछे लिखा देखा, "किस-किस को देखँू, सभी नज़र में रहते है, क़िस्मत है ऐसी कि घण्टों सफ़र में रहते हैं।" तुर्रा यह कि अगर सफ़र में ना होते तो सबको देख लेते! 

एक और ट्रकवाला स्पष्टवादी था, उसने पीछे लिखवाया, "होर्न बजाने से होगा क्या, आगे रास्ता हो तब ना?" मेरे मन में भी भारत में कभी ना ख़त्म होने वाली टीं-टीं, पीं-पीं के लिये मन में कुछ ऐसे ही भाव थे, पर शब्द नहीं मिल रहे थे। भला हो उस अनजान ट्रकवाले का जिसने मुझ जैसे कच्चे लिखारी को सच्चे शब्दों से नवाज़ा।

पर सबसे स्पष्ट और सहज, कवितानुमा बयान हमने एक दिल्ली में एक क्रैन के पीछे लिखा देखा। उस पर बड़े-बड़े शब्दों में लिखा था, "उठा ले जाऊँगा या फिर फँसा ले जाऊँगा" बस अब मैंने भी ठान लिया, आने वाले दिनों में मैं पूरी कोशिश करूँगा अपने देश के ट्रक, लारी, बस, टैक्सी और क्रैन  के पीछे लिखे जुम्ले और इबारतों के स्तर तक पहुँच पाऊँ। कठिन है, असम्भव नहीं। आख़िर मुझे ख़ुद अपने आप को साबित करना है कि मैं इल्म से ताल्लुक़ रखता हँू!

3 comments:

Unknown said...

Bahut sundar rachana. Padh kar mazaa aa gaya. Hamein bhi aise ibaratein padh kar hansee aati hai jab hum bharat bhraman ko jate hain.

Unknown said...

Bahut sundar rachana. Padh kar mazaa aa gaya. Hamein bhi aise ibaratein padh kar hansee aati hai jab hum bharat bhraman ko jate hain.

नितिन माथुर said...

बहुत उम्दा लेखन, ड्राइवरों की सोच का मैं बहुत हद तक कायल रहा हूं। और इसी अबूझ कल्पना के सहारे ही भारत की सड़कों पर वाहन चलाना संभव बनता है। आपने इसे लेखनी से उकेर पर मूर्त बना दिया।