Monday, November 29, 2010

हिंगलिश की पंचमेल खिचड़ी या हिन्दी की मानक बिंदी?



यह बात मुझे बहुत गुदगुदाने वाली रही और मैं देर तक मन ही मन हँसता रहा. मेरे एक हिन्दी मित्र ने मेरी हिंगलिश में 2G स्कैम पर लिखे व्यंग पर टिप्पणी की. कहा कि भैया आप में प्रतिभा है, पर आप शुद्ध हिन्दी में क्यों नहीं लिखते? इतने उर्दू और अंग्रेजी के शब्द पढ़ कर अच्छा नहीं लगता.

इस बात पर, उनको मेरा उत्तर था कुछ यूँ:

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"जब दूसरी भाषा का G हमारे जी को भाया

और हमारे नेताओं के मन को ऐसा भरमाया

कि हमारी कविता में अलबेला व्यंग घुस आया.

तब बहुत चाहा कि भाषा को शुद्ध-पवित्र रखूँ

पर "2G" का हिन्दुस्तानी तर्जुमा ना कर पाया

और करता यदि अनुवाद तो कोई समझ पाता?

अरे अगर मैं खिड़की खुली ना रखता तो क्या

आज इस संगणक पर देवनागरी में लिख पाता?

क्षमा चाहता हूँ, सीखा है जैसा देश वैसा भेष

मैं टेक्नोलोजी ना ओढ़ता तो आपसे मेल हो पता?"

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आप पूछ रहें हैं कि, "यार! आपने व्यंग क्या लिखा था यह तो बताओ."

यदि आप मेरे "status" फेसबुक पर पढ़ते हैं तो आपने संभवतः मेरी यह "चार लेईने" पढ़ीं होगीं, जिसकी वजह से यह सब हुआ. चलिए यदि आपने नहीं पढ़ा तो वह पंक्तियाँ यह थीं:

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"देश में जी लगाना हो तो टेक्नोलोजी विदेश से लायेंगे,

जनता तो मिस्ड कोल से है खुश हम करोड़ों कमाएंगे,

आप क्यों हवा में हैं अपनी मुठियाँ बेकार रहें उछाल?

अरे मोबाइल करे यूज़ तो हम सब विकसित कहलायेंगे."

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अभी मैं इस सबका मज़ा ले ही रहा था कि मेरे एक और अज़ीज़ का फ़ोन आया, कहने लगे, "यह सब तो ठीक है, पर क्या हुआ उस संजय माथुर का जो परिष्कृत हिन्दी लिखता था, मानक हिन्दी में भी ठीक ठाक था, और जिसके लेखों को बचपन में पुरस्कृत किया गया था."

मैं मज़ाक के मूड में था तो कहा, "भैया वह तो अभी भी 'वैसा-सा' लिख सकता है, पर क्या अब आप 'उस-सा' पढ़ सकते हैं?"

दूसरी तरफ भाई जी की झुंझलाहट साफ़ नज़र आई. कहने लगे, "अब क्या कहें? अच्छे-अच्छे नयी टेक्नोलोजी की आंधी में बह गए. फेसबुक का ज़माना है. तुम्हारी भाषा भी बिगड़ गई तो इसमें किसी का क्या कसूर?"

मैंने कहा, "भाई जी! मैं आज फेसबुक पर लिखता हूँ तो मेरी बात देश-विशेष में त्वरित प्रेषित होती है, और मेरे पाठकों के विचार मुझ तक तुरंत आ जाते हैं. जिससे मैं अपने लिखाई में फटाफट फेर-बदल करके उसे और तीखा और धारदार बना लेता हूँ तो इसमें बुरा ही क्या है?"

"और सारा-सारा दिन लेपटोप का मुँह देखते रहते हो. कितने दिन हो गए कलम से लिखे हुए?"

"भाई जी! क्या अंतर है, बात तो वही है ना?"

"कितने दिनों से शब्दकोष का मुहँ नहीं देखा?"

"आवश्यकता ही नहीं पड़ी."

"बस यही, यही कारण है कि तुम आजकल इतना छिछोरा लिख रहे हो. शब्द तो भूल बैठे हो, जो उर्दू-अंग्रेजी और जिस भी भाषा का शब्द याद आ जाता है, लिखाई से जुड़ जाता है. और मेरे भगवान! यह लिखाई भी कहाँ? यह तो टिपर-टिपर है, जो चाहो छापो!"

"भाई जी! पहले मैं लिखता जनवरी में था, जो छपता जुलाई में था. तब तक बात बदल जाती थी. एक-आध ने पढ़ा, ना पढ़ा. कभी-कभी तो कारवाँ यूँ ही गुज़र जाता था किसी रहेगीर की नजर भी नहीं पड़ती थी."

"एक बार पुरानी, अच्छी भाषा में फिर से लिख कर तो देखो. यदि तुम्हारे पाठक उसे स्वीकार करें तो तुम्हें क्या कष्ट है? मुझे तुम्हारे फेसबुक पर लिखने में इतनी आपत्ति नहीं है जितनी जो चाहो लिखने पर है."

मैंने भाई जी की बात पर विचार किया और सोचा कि अगला लेख मैं उस भाषा में लिखूँगा जिसको मेरे भाईजी याद करते रहते हैं. अधिक से अधिक क्या होगा, बहुत से लोग उसे पढ़ कर समझ नहीं पाएंगे. तो पूछ लेंगे, शब्दकोष देख लेंगें.

फिर मैंने "मिशन सुहानी" की समीक्षा लिखी. जो शब्द बचपन के हमजोली थे, उन्हें याद किया और उन्ही को प्रयोग किया. जब लिख डाला तो पढ़ा. दिल बैठ गया. कौन पढ़ेगा इसे और कौन तो समझेगा? पत्नी को सुनाया. उसने किसी भी शब्द पर आपत्ति नहीं की. आश्चर्य! उसे लेख पसंद आया. उल्लास!! उसने कुछ संशोधन कराया. ठीक!!! वह भी पुरानी शैली में. बहुत अच्छा!!!!

फिर उस लेख को राम का नाम ले कर छाप दिया. लगभग बीस-पच्चीस लोगों की प्रतिक्रिया मिली. किसी ने शब्दों पर कुछ नहीं कहा. उन सबका ध्यान कथ्य पर था, तथ्य पर था, अर्थ पर था. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम यह सोच कर कि कौन समझेगा, गली-कूचे कि भाषा को अपना रहें हैं? त्वरित प्रकाशन के लोभ में भाषा का बलात्कार कर रहे हैं?

तभी मेरे अज़ीज़ मित्र ने अपने फेसबुक के "page" पर मेरे लेख को प्रकाशित किया. इस बार कुछ ऐसे लोगों की प्रतिक्रिया मिली जो हिन्दी भाषी नहीं हैं. पर उन्होंने भी शब्दों के पीछे छुपे भाव पर ही अधिक ध्यान दिया, शब्दों के चयन पर नहीं.

तो भाई, अब से तो मैं अपनी पुरानी शैली में ही लिखने वाला हूँ, जब तक कि कोई मुझसे यह नहीं कहता कि यह क्या हो गया. पढ़ते हैं, अच्छा लगता है पर समझ में कुछ नहीं आता.

आप क्या चाहते हैं, मैं किस भाषा-शैली में लिखूँ? आप क्या पसंद करेंगे- हिंगलिश की पंचमेल खिचड़ी या हिन्दी की मानक बिंदी?

Copyright 2010 Sanjay Mathur


Saturday, May 22, 2010

जो सोया सो रोया

जब पहली
बार मैंने तुग़लक के बारे में सुना था तो मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा. उन दिनों मेरे पिताजी का तबादला बनारस से गाज़ीपुर का हो गया था. हम सब बनारस में बहुत आराम से रह रहे थे, और यह मेरे बड़े होने के बाद का पहला मौका था जब हमारा परिवार एक जगह से दूसरी जगह जाने की बात कर रहा था. यदि आपका कोई अनुभव रहा है जब आपके परिवार को lock-stock-n-barrel के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान स्थान्तरित होना पड़ा हो, तो आप जान सकेंगे कि हम किस मनःस्थिति से गुज़र रहे थे.

मुझे यह ही समझ में नहीं आ रहा था कि जब मेरा स्कूल 'इत्ता-अच्छा' है, अपना घर 'इत्ता-अच्छा' है, 'अबी-अबी' तो भैया के दोस्तों ने मुझे अपने साथ गेंद-बल्ला खिलाना शुरू किया है, तो यहाँ से नई जगह क्यों जाएँ? फिर उस दिन मैंने सुना माँ पापा से कह रहीं थी, "आप भी ना जी, तुग़लक की तरह बात कर रहे हैं. आपको promotion और independent charge मिल रहा है तो आप जाइये, हम लोगों की दिल्ली उजाड़ कर दौलताबाद क्यों ले जा रहें है." माँ भी न कभी-कभी ऐसी भाषा में बात करती थीं की मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. यह तुग़लक कौन हैं? उनका पापा के ट्रान्सफर से क्या मतलब? हम तो बनारस से गाज़ीपुर जा रहें हैं ना. तो, माँ बनारस को दिल्ली और गाज़ीपुर को दौलताबाद जैसा क्यों बता रहीं है? दिल्ली तो मुझे पता है, पर यह दौलताबाद कहाँ है? हो सकता है, अगर बनारस दिल्ली हुआ, तो गाज़ीपुर दौलताबाद हुआ. कौन जाने?
शाम को गेंद-बल्ला खेलते हुए जब भैया के सारे दोस्त लोग मुझे बच्चे की तरह ट्रीट करने लगे तो मुझे लगा की मुझे कोई ऐसी बात कहनी होगी की जिससे इन लोगों को यकीन हो जाये की मैं बड़ा हो गया हूँ, और हो सकता है फिर वह लोग फील्डिंग के साथ-साथ मुझे बेटिंग करने का भी चांस दे दें. तो बिना किसी रेफेरेंस के मैंने कहा की "पता है हमारे पापा हम सबको गाज़ीपुर ले जा रहें है बिलकुल तुग़लक की तरह." भैया मुझसे छह साल बड़े हैं, उन्हें पता था तुग़लक कौन था और उनकी समझ में ही नहीं आया कि मैं यह कह क्या रहा हूँ. सारे दोस्तों के सामने मेरी ऐसे अल्लल-टप्प बात सुन कर वह झुंझला गए. "पता नहीं कहाँ से क्या सुन लेता यह संजय, फिर बिना सोचे-समझे कुछ का कुछ बोलता रहता हैं." मैंने भी अड़ गया, "नहीं, मैंने खुद सुना, माँ कह रही थी."
भैया को और कुछ तो समझ में आया नहीं, कहने लगे, "चल हट! ऐसा माँ क्यों कहेंगी? चल माँ के पास."

"चलो!" मैं भी अड़ गया.

भैया ने गुस्से में तीनों विकिट उखाड़ कर बगल में दबा लिए. खेल हुआ एकदम से बंद, सारे दोस्त चुपचाप चले अपने-अपने घर, और हम दौनों लाल-मुँह लिए वापिस अन्दर के आंगन में पहुंचे, जहाँ भैया ने माँ से मेरी शिकायत लगाई. माँ ने मुझे बुलाया और पूछा, "क्यों रे, क्या हुआ? क्या बोला भैया के दोस्तों से?"

मुझे लगा की आज कुछ गड़बड़ हो गई. पता नहीं क्यों जब-जब मैं सच बोलता हूँ, ऐसा ही क्यों होता है. मैंने भी ख़ूब तेज़ी से अपनी तरह से सारी बात बताई कि "असल में" हुआ क्या था.

अजीब से बात हुई. मेरी बात सुन कर माँ हंसने लगी. बोली, "पता भी है तुग़लक कौन था?"

"तुम बताओगी नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा?" मैं रुआंसा तो था ही, बिलकुल रोने-रोने को हो गया.

"अच्छा, जाओ, हाथ-पाँव धो कर खाना खा लो. मैं रात में तुम्हें तुग़लक कहानी सुनाऊँगी."

भैया ने कहा, "माँ, समझाओ ना इसको. मेरे सारे दोस्तों के सामने..."

"अच्छा-अच्छा. मैं समझा दूँगी."

मैं रोते-रोते हाथ-पाँव धोने चला गया.
वह रात मैंने मोहम्मद बिन तुग़लक के साथ बितायी. माँ इतनी अच्छी कहानी सुनाती थी कि लगा तुग़लक एकदम से नज़रों के सामने आ गया.

"एक बार, बहुत पहले दिल्ली में एक पागल सुल्तान था. जो सोचता था, वही करता था. किसकी हिम्मत कि रोक ले. एक बार उससे किसी ने एक सुनार की शिकायत की वह सुनार कहता फिरता है 'सुल्तान क्या चीज़ है? अरे! देश में तो सिक्का तो मेरे सोने का चलता है. देश तो सुनार ही चला रहा है. सुल्तान तो नाम का है.' बस यह सुनना था की पागल सुल्तान का तो सिर फिर गया. बोला, 'हिंदुस्तान का सुल्तान कौन है? मैं या वह सुनार?' बस वह दिन का दिन कि सुल्तान ने देश में सोने के सिक्के कि जगह चलवा दिया चमड़े का सिक्का."

"चमड़े का सिक्का कैसा होता है, माँ?"

"अरे, न किसी ने पहले कभी देखा ना सुना. अब कहीं नहीं होता चमड़े का सिक्का. बस वह तो सुल्तान का फरमान था तो कुछ दिन चल भी गया."

"फिर?"

"फिर, धीरे-धीरे सारे सोने के सिक्के वापिस आ गए. वही अशर्फी, और वही दीनार."

"माँ, तुमने मुझे कब्बी भी कोई अशर्फी, दीनार नई दिकाई." जब माँ मुझे सुलाते-सुलाते कहानी सुनाती थी तो मैं छोटा बच्चा बन जाता था.

"तुम जब बड़े हो कर अच्छे काम करोगे तो भगवान जी तुम्हें अशर्फी, और दीनार देंगे."

"अच्छा! फिर?"

"फिर?"

"फिर सुल्तान का क्या हुआ?"

"अच्छा, सुल्तान का हुआ यह कि पश्चिम से तुर्क, उत्तर से मंगोल और मुग़ल राजा और लुटेरे आते थे और दिल्ली में लूट-पाट करते थे. सुल्तान कुछ भी नहीं कर पाता था."

"फिर?"

"फिर, सुल्तान ने सोचा कि अगर वह अपनी राजधानी दिल्ली की बजाय कहीं दक्खिन में ले जाये तो लुटेरे वहाँ तक आसानी से नहीं पहुँच पाएंगे."

"अच्छा! फिर?"

"फिर, बस वही पागलपन. सुल्तान का फरमान जारी हो गया की फलां-फलां दिन दिल्ली के सभी आम और ख़ास का तबादला दौलताबाद होगा."

"तबादला क्या?"

"ट्रान्सफर."

"ओह! जैसा हमारा हो रहा है."

"हाँ वैसा ही."

"फिर लोगों ने कहा नहीं कि हम नहीं जायेंगे, जैसे तुम कह रहीं थी"

"बेटा यही तो फर्क है. पापा से तो बात कर लो और वह सुन भी लें. पर उस पागल सुल्तान से कौन कहे और किसकी बात वह सुने? बस मन ने आया तो आया. सबको जबरदस्ती ले गया तुग़लकबाद."

"तुग़लकबाद नहीं माँ, दौलताबाद!" मैंने टोका. माँ को जब नींद आने लगती थी तो कुछ का कुछ बोलती थी.

"हाँ, हाँ वही. सबको ले गया दौलताबाद. यहाँ तक की कुत्ते-बिल्ली को भी ले गया. आधे तो रास्ते में ही मर-खप गए. कोई लंगड़ा आदमी किसी तरह से एक टांग पर घिसटता हुआ दौलताबाद पंहुचा. बीमार चीखते-चिल्लते पहुंचे. पर बेरहम सुल्तान को रहम नहीं आया."

"माँ, हमको भी घिसटते-घिसटते गाज़ीपुर जाना पड़ेगा?"

"नहीं बेटा, तुम्हारे पापा कोई तुग़लक हैं क्या?"

"फिर तुम उनसे कल ऐसा क्यों कह रही थी की आप तुग़लक की तरह बात कर रहे है."

"बेटा, घर में तो बहुत से बातें होती रहती है. पूरी बात सुने बगैर बाहर जा कर ऐसी ही थोड़ी न बोलते हैं. अच्छे बच्चे तो सोच-समझ कर बोलते हैं."

"अच्छा माँ!"

"तो अब सो जाओ."

उस दिन तो मैं तुग़लक के बारे में सोचते-सोचते सो गया. बहुत सारे से दिन बीत गए. मैंने इतिहास में १४ वीं शताब्दी के मुग़ल सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के बारे में पढ़ा. इतनी मजेदार कहानी किसी और सुल्तान की नहीं थी. बहुत मज़ा आया. फिर जब और बड़े हुए तो एक दिन ऐसा आया कि मुझे स्वम अपनी राजधानी को यू पी से दिल्ली ले जाना पड़ा. पढाई का मामला था, ज्ञान तो माँ दे दें, पर विज्ञान पढ़ने मुझे दिल्ली जाना ही पड़ा. पढ़ने गए थे विज्ञान के मंदिर आईआईटी में, पर वहाँ मुलाकात हुई बहुत से नए लोगों से, जिनमे से कुछ का कोई दूर-दूर तक विज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं था. उनमे कोमरेड भैया भी एक थे. उनका शौक नाटक, उनका काम नाटक पर विरोधभास देखिये. वह निवास करते थे विज्ञान के मंदिर आईआईटी के विध्याचल हॉस्टल में. माओ के बारे में, चर्चिल के बारे में, नेहरु और लोहिया के बारे में कोमरेड भैया को सब पता था. सिर घुटा कर उस पर लाल पेन से कुल्हाड़ा-हंसिया बना कर, लाल कपड़े पहन कर जब वह हॉस्टल के कमरे से बाहर निकलते थे तो सब उन्हें या तो "तुग़लक" या "चो (रामास्वामी)" के नाम से पुकारते थे. सबको पता था कि मुझे इतिहास पढ़ने का जूनून है, तो सब मुझसे तुग़लक के बारे में पूछते थे और मैं खोज-खोज कर तुग़लक की कहानियां सुनाया करता था. हमारा पूरा ग्रुप "चो-तुग़लक" के नाम से जाना जाता था.

फिर एक दिन सुना की हल क़ाज़ी गिरीश कर्नाड का ड्रामा तुग़लक के कर जा रहे हैं. काजी साब का निर्देशन और गिरीश कर्नाड का नाटक, वह भी कमानी ऑडिटोरियम में. इसे देखने तो जाना ही जाना है. पर टिकेट खरीदने पैसे किसके पास हैं? पैसे होते तो बीडी की जगह सिगरेट न पीते और टेस्टी-टोस्ट की जगह मुगलाई परांठा न खाते? ऐसे में कोमरेड भैया बहुत काम आते थे. पता नहीं क्या-जुगाड़ किया कि हम सब जा पहुंचे तुग़लक का ड्रेस रिहर्सल देखने. नीचे के थिएटर में बोरा बिछा कर हम सब पसर गए और करीब चार घंटों तक, जब तक ड्रेस-रिहर्सल चलता रहा, चुपचाप बैठे सम्मोहित से देखते रहे. मैं एक बार भी बाथरूम जाने के लिए नहीं उठा. यह बात उस बात के सामने फीकी पड़ गई कि 'चो' को सारे समय में एक बार भी सिगरेट पीने कि तलब नहीं हुई. एक बार भी नहीं--कमाल ही हो गया. हममे से कोई भी रात में ठीक से सो नहीं सका. लगा इतिहास में वापिस पहुँच गए.

"अरे! काजी साब खुद उठ कर हम लोगों के पास आये, पूछा आप आई-आई-टी वालों को कैसा लगा?"

"पहली बार लगा कि सुल्तान उतना क्रूर और पागल नहीं था जितना हमारी इतिहास कि किताब में बताया गया था."

फिर तो बीती रात के अधजले माहौल में एक जुनूनी, इखलाकी, तारीखी और फलसफे से भरा लम्बा वाद-विवाद छिड़ गया.

मैं तो यह सब भूल भी गया था पर याद आ गया, जब कुछ दिन पहले मेरे करीबी दोस्त अरविन्द भाई ने मुझे बताया कि नाटक वाले तुग़लक का मंचन कर रहें है.

"कब? कौन कर रहा है निर्देशन? तुग़लक कौन बन रहा है?" मेरी तो बचपन और जवानी जैसे लौट आई.

पता चला कि नाटक का प्रोडक्शन तो प्रदीप जी कर रहें है. मनीष साबु कर रहे है निर्देशन.

"अच्छा! और कब है मंचन?"

"जून में? यहाँ? बे एरिया में?"
मैं इतना उत्तेजित रहा हूउँगा कि मेरे शोर से ऊपर से परितोष नीचे आ गया और किचेन से रीना.

"क्या हुआ?"

"अरे, प्रदीप मौसाजी गिरीश कर्नाड के तुग़लक का मंचन यहाँ बे एरिया में कर रहे हैं."

"अच्छा वही तुग़लक जो आपने अपने आई-आईटी के टाइम में देखा था?"

"वही!"

"तो यहाँ के लोगों को कुछ पता भी होगा उसके बारे में?"

"अगर भारत में बड़े हुए हैं, और उन्हें इस बात में रूचि है कि कैसे किसी सिरफिरे मगर दूरंदाज़ लीडर की दूरंदाज़ी से किसी मुल्क को क्या फर्क पड़ता है, तो वह इस नाटक को देखने के लिए ज़रूर उत्साहित होंगे."

मैंने देखा कि परितोष बहुत ध्यान से मेरी बात सुन रहा है. यहाँ पैदा हुआ है, पर उसने तुग़लक के बारे में सुना है. वाह! अगर उसकी तरह से और भी नौजवान लोगों ने तुग़लक के बारे में सुना है तो शो तो हाउस-फुल जायेगा. अरविन्द भाई ने बताया कि इस नाटक में इंग्लिश सब-टाईटिल होंगे ताकि नौजवान और हिंदी-उद्रू ना बोलने वाले भी इसका मज़ा उठा सकें. और, इस बार नाटक तुग़लक के सात-सात मंचन कर रहा है."

"कब, कहाँ?"

"आप भी संजय भाई! बच्चों की तरह बात करते हैं. अरे Visit http://www.naatak.com/current_event.html और टिकेट बुक करा लें. यहीं सेन-होज़े में कोजी-सा थिअटर है, वहीँ. अभी खरीदेंगे तो अच्छी सीट मिलेगी, वर्ना बोरे पर बैठ कर देखने का मौका पता नहीं मिले या न मिले. आप ही कहते हैं न, 'जो सोया सो रोया' "

"अच्छा! मेरा तेल मेरे ही सिर?"

"जो आपसे पाते हैं, वही तो देंगे आपको."

अरविन्द भाई से कौन जीते? आप भी टिकेट बुक करा लें ना. देखे तुग़लक शाही अंदाज़ में. वहीँ कहीं मैं आपको बोरे पर बैठा मिलूंगा. सच्ची!

Monday, May 10, 2010

जैसी हरि-इच्छा

माँ कहानी सुनाती थी तो आँखों के सामने जैसे चलचित्र-सा बन जाता था. कहानी के किरदार मेरी आँखों के सामने कहानी जीते दिखाई देते थे और लगता था कि मैं भी कहानी से जुड़ गया हूँ. कभी माँ कहानी सुनाते-सुनाते भावुक हो जाती और कहानी के किरदार की त्रासदी पर दो आंसू बहा लेती. मैं भी रोने लगता तो कहती, "हट, कोई ऐसे रोते हैं? यह तो कहानी है." पर मेरा मन नहीं मानता था. ऐसे सच्चे किरदार सिर्फ कहानी में ही नहीं हो सकते. मेरे लिए तो वह जीते-जागते इंसान थे, और एक बार जो कहानी से चल कर मेरे जेहेन में आ जाते, तो फिर वहीँ घर कर लेते थे. कुछ तो आज भी मेरे साथ हैं. उनमे ही एक हैं सत्यदेव जी.

सत्यदेव बेचारे गरीब से किसान थे, पर कुछ बातें दूसरे गाँव वालों से एकदम अलग थीं. माँ बताती थी कि चाहें सत्यदेव जी कि जान पर ही क्यों न बन आये, मजाल है कि वह झूठ बोल दे. वह एक छोटे-से, मझोले कद वाले, देखने में एक दम से साधारण से दिखने वाले गवईं से इंसान थे. पर उनमे था बला का इखलाक और चेहरे पर था सत्य का तेज. कितनी बार ऐसा हुआ कि सत्यदेव ने सच का साथ दिया और अपना बहुत सारा सा नुकसान कर लिया. पर कभी सच से डिगे नहीं.

माँ मेरे बालों में हाथ फेरती रहती और कहानी सुनाती जाती. मैं "हूँ-हूँ" करके, "फिर क्या हुआ" "तो फिर" या "अच्छा" कर-कर के कहानी आगे बढाता जाता. मुझे पता है आप कह रहे हैं, "अच्छा! ठीक है, यह तो सभी बच्चे करते हैं, आगे बताओ." अब आप कह रहे हैं तो सुनिए. बीच-बीच में हूँ-हूँ का हुंकारा करते जाईयेगा ताकि मुझे पता चले कि आप ऊँघ नहीं रहे और कहानी सुन रहे हैं.

तो कहानी तेज़ी से आगे बढती. माँ को कहानी ख़त्म करके और काम भी तो करने होते थे. तो बस, सुनिए. सत्यदेव जी की दो सुन्दर-सुघड़ सी लड़कियां थी जिनका ब्याह अपनी औकात के मुताबिक सत्यदेव और उनकी पत्नी ने किया. एक को मिला पास के गाँव का कुम्हार और दूसरी के पति उसी गाँव में एक और किसान का लड़का. मैं कहता, "अरे माँ, सत्यदेव जी की दो लडकियां थीं, और उनकी शादी हो चुकी थी. तो फिर तो सत्यदेव जी बूढ़े से दीखते होंगे."

"नहीं, सत्यदेव जी के पास था सत्य का तेज. कौन कह सकता था कि वह ४५-५० साल के हैं? सादा खाना खाते थे, ताज़ा दूध-दही पीते थे. मेहनत करते थे, और भगवान के भजन करते थे. इसलिए देह के और मन के मज़बूत बन्दे थे."

"अच्छा!" और मेरे माँ में सत्यदेव जी का खाका खिच जाता. आज भी अगर वह सामने आ जाएँ तो मैं उन्हें हजारों में पहचान लूँगा. चलिए वापिस कहानी पर चलते हैं. उस साल, जब भादों कि बदरी छाई, सत्यदेव की पत्नी की आँखे भर आई. कहने लगी, "चलो, चल के देख के आयें कि मेरी प्यारी बेटियां कैसी हैं. अपने ससुराल में खुश तो हैं न. यहाँ होती तो अमराई में झूला डालते. कितना पसंद था बडकी को झूला झूलना. और छोटी कैसा प्यारा गाती थी झूले के गीत! सच मैं तो अकेली हो गई बडकी-छुटकी के ब्याह के बाद." माँ यह बताते-बताते भावुक हो जाती. फिर एक ठंडी सांस ले कर कहती, "बेटियों को तो एक ना एक दिन दूसरे घर जाना ही होता है, और जब बेटी विदा हो कर अपने घर चली जाती है, तो उसके माँ-बाप का मन तो सावन-भादों की बदरी की तरह भर ही आता है."

मुझे लगता है माँ को अपनी विदाई या फिर एक न एक दिन भविष्य ने होने वाली बेटियों की विदाई शूल की तरह मन में चुभती थी और वही चुभन कहानी सुनाते-सुनाते आंसू बन कर व्यक्त होती थी. आज तो मैं इतना सोच सकता हूँ, पर तब? तब तो बस मैं कहानी की रवानी में बहता चला जाता था.

कहानी में डूब कर, आप ही तरह, मैं भी कहता, "तो फिर?"

"फिर, सत्यदेव जी को भी अपनी प्यारी बिटियाएँ याद हों आई. और उन्होंने ठान लिया की आज तो उनसे मिल के ही आते हैं. तो सतदेव जी और उनकी पत्नी तैयार हो कर घर से बाहर निकले."

"सतदेव नहीं, माँ! सत्यदेव."

"हाँ, हाँ, वही. एक ही बात है."

पर मेरे माँ में तो सत्यदेव जी का तसव्वुर पूरा बन चुका होता था. "एक बात कैसे हैं? माँ!"

"अच्छा तो चलो, सतदेवजी नहीं, स त्य दे व जी तैयार हो कर, जो भी घर में था अनाज, घी, मिठाई ले कर पहले चले बडकी से मिलने. बडकी का गाँव था दूर और सिर पर थी भादों की धूप, जिसमे हिरन भी काला हो जाये. कभी बदरी छा जाये तो कुछ चैन आ जाये, वरना फिर चिलचिलाती धूप. दुपहर होते-होते, बादल घिर आये और एक-आध बूँद भी पड़ गई. किसी तरह चलते-चलते, थके-हारे, वह दोनों बडकी के घर पहुचें. बडकी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. हिरन के छौने की तरह हुलस कर दौड़ी आई और लग गई अपने माँ-बाप के गले. उसके ससुराल वालों ने भी ख़ूब अवोभागत की सत्यदेव और उनकी पत्नी की. शाम को मौका पा कर सत्यदेव ने बडकी से पूछा, "तू खुश तो है न. कोई कष्ट तो नहीं हैं तुझे यहाँ " तो बडकी बोली, "नहीं बाबा! मुझे कोई कष्ट नहीं है. सास तो माँ जैसी है और पिता जी आप जैसे. यह तो इतने सीधे हैं की क्या बताऊँ. चुपचाप बस रात-दिन बरतन बनाते रहते हैं. मैं अपनी सास माँ के साथ जा कर हाट में बर्तन बेच देती हूँ. उस कमाई से घर बहुत अच्छी तरह चल जाता हैं. बस आप एक काम कीजियेगा कि जब आप पूजा करें तो भगवान जी से यह कहियेगा कि अभी कुछ दिन बरसात ना हो. इन्होने इतने अच्छे बर्तन बनाये हैं, जो अभी सूखे नहीं हैं. राखी के दिन बड़ा हाट लगेगा. अगर उससे पहले बरसात हो गई तो सारे बर्तन भीग जायेंगे और एक भी बिक नहीं पायेगा."

सत्यदेव जी ने कहा कि वह ज़रूर भगवान ने बडकी के लिए प्रार्थना करेंगे.

"तो फिर?" मैंने पूछा.

"फिर? फिर वहाँ से वह लोग चल पड़े छुटकी से मिलने. कहीं से वापिस आने का रस्ता तो वहाँ जाने के रास्ते से छोटा होता है न, तो वह दोनों शाम होते होते वापिस गाँव पहुँच गए. पहले सीधे गए छुटकी के यहाँ. छुटकी गाय को भूसा और खली खिला रही थी, देखते ही दौड़ी आई. उसके ससुराल वाले भी इतनी आवाजें सुन कर बाहर निकाल आये. शाम हो गई थी तो सब बाहर चबूतरे पर ही बैठ गए और फिर दुःख-सुख के चर्चे होने लगे. मौका देख कर सत्यदेवजी ने छुटकी से पूछा कि "तू खुश तो है ना बेटी?" तो छुटकी ने कहा "बहुत! ये तो इतने मेहनती हैं, सारा-सारा दिन खेत और खलिहान में जुटे रहते हैं. बस, आप भगवान से यह कहियेगा कि इस भादों बारिश जम कर हो, वर्ना सारी फसल चौपट हो जाएगी और फिर महाजन से उधर लेना पड़ेगा."

सत्यदेव जी ने छुटकी को भी पूरा विश्वास दिलाया कि वह ज़रूर भगवान ने उसके लिए प्रार्थना करेंगे.

सत्यदेव कि पत्नी को मन में तभी खटका हुआ कि ये कैसे बडकी और छुटकी के लिए भगवान से प्रार्थना करेंगे? एक को चहिए बारिश ना हो, एक को चहिए कि ख़ूब जम के बारिश हो. ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकती हैं. पर वह बिचारी छुटकी के ससुरालवालों के सामने क्या बोलती? चुप रह गई.

यह सुन कर तो मैं भी सोच में पड़ जाता. बेचारे सत्यदेव जी. "तो अब सत्यदेव जी क्या करेंगीं, माँ? दोनों बातें तो नहीं हो सकती ना."

"हाँ. यही बात तो उनकी पत्नी को भी खाए जा रही थी. छुटकी के यहाँ से लौटते-लौटते रात हो गई थी और रस्ता ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था, तो सत्यदेव जी ने अपनी पत्नी से कहा, "भागवान. मेरे पायेंते-पे-पांयता रखते हुए सावधानी से चलती चलो.""

"माँ! पायेंते-पे-पांयता क्या?"

"जहाँ-जहाँ मैं पैर रक्खूं, वहीँ तुम भी रखो, तो हो गया पायेंते-पे-पांयता."

"अच्छा! फिर?"

"फिर! सत्यदेव के पायेंते-पे-पांयता रख कर चलते हुए उनकी पत्नी बोली, "सुनिए जी? आप बडकी और छुटकी दोनों के लिए एक साथ कैसे भगवान से प्रार्थना करेंगे?"

सत्यदेव जी बोलो, "हाँ! कठिन तो हैं, पर मैं कोशिश ज़रूर करूंगा."

"कोशिश? आपने तो दोनों को वादा किया कि उनके लिए आप भगवान से प्रार्थना करेंगे. आप तो कभी झूठ नहीं बोलते तो फिर?"

"नहीं, इसमें झूठ बोलने की क्या सवाल है?"

"तो फिर आप क्या कहेंगे भगवान से?"

सत्यदेव जी उस समय तो कुछ नहीं बोले. घर आ कर अपनी पूजा में भगवान जी के सामने बैठ गए और आँख बंद करके बोले, "भगवान! आज दोनों लड़कियों से मिले जा कर. दोनों आपने-अपने घर में खुश हैं. उन्हें खुश रखना. और हाँ, बडकी चाहती है की इस भादों में बारिश बिलकुल न हो. और छुटकी चाहती है की ख़ूब बारिश हो. तुम सर्व-ज्ञाता, सर्व-शक्तिमान परमेश्वेर हो, तुम्हें जो अच्छा लगे वह करो, हम तुम्हारी इच्छा को शिरोधार्य करेंगे."

मैं यह सुन कर चकरा गया. "यह क्या बात हुई माँ?"

माँ ने कहा, "देखो इस तरह सत्यदेव जी ने झूठ भी नहीं बोला. दोनों लड़कियों की बात भगवान जी तक पहुंचा दी और साथ-साथ हरि-इच्छा का सम्मान भी किया."

"तो फिर भगवान जी ने क्या किया?"

"जो भगवान जो को पसंद आया होगा वह किया होगा."

"क्या किया होगा?"

"जो हरि इच्छा. और हम सबको वह माननी पड़ेगी. बस उनके पायेंते-पे-पांयता रख कर चलना होगा."

तबसे आज का दिन है, मुझे कभी भी भगवान जी यह बात अच्छी नहीं लगी. जब भी इतनी अच्छी कहानी चल रही होती है, तो बीच में आ जाती है हरि-इच्छा. अब आप ही बताइए यह भी कोई बात हुई कि हमको हर हाल में हरि-इच्छा मनानी पड़ती है. माँ तो कहानी सुना कर सो गई, मेरी तो अब तलक बीच रात में नींद खुल जाती है, और देर तक सोचता रहता हूँ की उस भादों बरसात हुई होगी या नहीं? पता नहीं, पर जैसी हरि इच्छा!

आप पूछ रहे हैं कहानी खत्म? हाँ जी, कहानी खत्म! जैसी हरि इच्छा!

Sunday, May 09, 2010

माँ का अंदाज़

मुझे माँ से बस यही एक गिला रह गया कि उन्होंने मुझे कभी अपनी कोई रेसिपी नहीं दी. ऐसा नहीं था कि उनकी रेसिपीस कोई खुफिया होती थीं, या वह मुझे कोई रेसिपी देना ही नहीं चाहती थीं. पर बात यूं थी कि उनका रेसिपी देने का तरीका फर्क था, जिसे में लिख नहीं पता था.

"माँ! बताओ न, इतने अच्छे दम-आलू कैसे बनाती हो?"

"अरे! मरे दम-आलू बनाने में क्या है? बिना काटे पूरे-पूरे आलू बनाओ."

"हाँ, वह तो ठीक है. पर इसका मसाला भी तो कुछ फर्क है."

"हाँ, तो अंदाज़ से मसाला ज्यादा डालो, ज्यादा भूनो. और पानी कम डालो."

"वही मसाला?"

"हाँ वही! बस थोड़ा ज्यादा, और साथ में थोड़ा खड़ा मसाला भी."

खड़े मसाले का मसला वहीं छोड़ कर, अभी दम आलू में सादे आलू से कितना ज्यादा मसाला डालना है यह तय कर लें. तो सोच-साच के फिर पूछा, "माँ!"

"हाँ"

"एक बार पूरा बताओ न, कौन सा मसाला कितना डालना है. बिलकुल वैसे ही बताना जैसा "women 'n Home" की रेसिपी में आता है."

इस बात पर माँ को बहुत हंसी आती.

"तो अब, मरे दम-आलू बनाने के लिए तुम्हें केक बनाने जैसी पूरी रेसेपी चहिए. अरे, अंदाज़ से मसाले डालो, और भून-भान के छुट्टी करो."

"अरे माँ! छुट्टी तो मेरी हो गई. एक अंदाज़ तो मियाँ ग़ालिब का था, और एक है तुम्हारा. यह तो समझ में आता है कि क्या कहना चाह रही हो, पर मैं कैसे बनाऊं यह पता नहीं चलता? तुम बनाती हो तो इतना स्वादिष्ट, और मैं? अरे मुझे तो समझ ही में नहीं आता की कहाँ से शुरू करूँ."

इस बात पर माँ को दया आ जाती. वह कहती, "अच्छा, देखो आलू छील लिए? उन्हें पानी में भिगो दो."

"अच्छा. पर कितने आलू लूँ?"

"कितने जने हैं खाने वाले-उतने अंदाज़ से?"

"अच्छा, फिर?"

"फिर, प्रेशर कुकर में तेल डालो."

"कितना?"

"जितने आलू, उस अंदाज़ से"

"अच्छा, फिर?"

"फिर क्या? जैसे मसाला लेते हैं वैसे ले कर, पीस लो. जीरा, धनिया, मिर्च और हल्दी."

"कितना-कितना?"

"जितने आलू बनाने हों उस अंदाज़ से."

"अच्छा, और आलू उतने, जितने जने खाने वाले..."

"हाँ! और खड़ा मसाला अलग से."

"यह खड़ा मसाला क्या बला है, माँ?"

"अरे, खड़ा मसाला नहीं पता? पूरा-पूरा मसाला."

"अच्छा-अच्छा. कौन-कौन सा? कितना?"

"जौन-जौन सा हो, अंदाज़ से डाल दो."

"अरे मगर कौन सा?"
...
यह वार्तालाप हर बार कुछ इसी अंदाज़ से बहुत देर तक चलता रहता. पर मैं कभी भी माँ जैसे दमदार दम-आलू बनाने कि रेसिपी नहीं पा सका. शायद मैं वैसे आलू बना ही ना सकूं जैसे माँ बनाती थी. आज इस "अम्मा दिवस" पर बस इतना संतोष है कि माँ ने अपना "अंदाज़" मुझे सिखा दिया. उसी अंदाज़ से मैंने जिंदगी जीयी. "जितने जने खाने वाले, उतने आलू लिए. और जितने आलू लिए उतना मसाला डाला." माँ की दुआ से जो भी, जितना भी मसाला मिला, उससे अपने अंदाज़ से खाना पकाया, खाया-खिलाया; और यह जीवन बिना रेसिपी के भरपूर जिया.

माँ तुझे सलाम!

Monday, May 03, 2010

"बोले सो कुंडा खोले"

खाने को मेज़ पर बैठ कर खाने का प्रचलन तो बहुत बाद में हमारे परिवार में आया. पहले ऐसे थोड़े ही था की अगर दाल में नमक कम है तो अपने पास बैठे व्यक्ति से कहा कि, "कृपया, क्या आप नमक उठाने की ज़हमत करेंगे?" और नमकदानी ले कर, धन्यवाद दे कर, बहुत शिष्टाचार-पूर्वक अपनी दाल में नमक छिड़क लिया. जब आप रसोई में बैठ कर खाना खा रहे होते है, और आपको दाल में नमक कम लगता है, और आपने जो कहा की इसमें नमक कम है तो आप फसें. अब बाकी सारे लोग जो चुपचाप कम-नमक की बेस्वाद दाल सपोड़ रहे थे, एकदम से चिल्लायेंगे, "जो बोले सो कुंडा खोले." अब आपको मिसरानी जी के पास जा कर नमक मांगना पड़ेगा.

यह कोई आसन काम तो होता नहीं था. आपको मिसरानी जी के पास जा कर, बिलकुल पास जा कर, हलके से मिन्नत भरे स्वर में यह याचना करनी पड़ती थी कि "मिसरानी जी, हमें आज दाल में नमक कम लग रहा है." मिसरानी जी इस बात को बिलकुल हँस कर नहीं ले सकती थी कि कोई उनकी बनाई हुई दाल में मीन-मेख निकाल दे. हालाँकि यह बात जानते हुए, आपने बहुत मक्खन लगाते हुए केवल यही कहा था कि आपको आज दाल में नमक कम लग रहा है. वह भी ऐसे कहा कि लगे इसमें मिसरानी जी का तो कोई दोष हो ही नहीं सकता. यह समस्या तो हमारी है. पर क्या मिसरानी जी समझती नहीं है कि यह कल का छोरा, मेरे खाने में दोष निकाल रहा है. इसका बाप भी मेरे सामने कुछ कह नहीं सकता, और इसे देखो! चला आया नमक मांगने. बहुत झाँये-झाँये करने के बाद एक छोटी कटोरी में नमक तो मिल जाता था, पर जब तक उसे वापिस अपनी थाली तक ले कर जाएँ, उससे पहले ही उसको बाकी सारे लोग झपट लेते थे. यानि, बोले भी, कुंडा खोला भी पर गले मिला कोई और!

फिर पिटे-पिटाये एक दिन पहुँच गए माँ के पास. "क्या है यह माँ? एक तो मिसरानी जी कम नमक डालती है दाल में. बोलो, तो सब कहते हैं, 'बोले सो कुंडा खोले.' फिर दस बातें मिसरानीजी की सुनो, और फिर किसी तरह नमक ले कर आओ. बीच में दूसरे खानेवाले लूट लें. और कुल मिला कर नमक फिर भी ना मिले."

तो माँ हंसने लगी, "हर बार तुम ही क्यों बोलते हो?"

"तो और कोई बोलता ही नहीं ना, इसलिए!"

"अच्छा, तुम्हें वह कहानी सुनाई थी, उस आदमी की जिसने अपनी ही छवि के कई आदमी बना डाले थे."

"सच में? नहीं पाता, माँ! तुमने कभी सुनाई ही नहीं."

"अच्छा? तो सुनो, एक आदमी था, उसने बहुत किताबें पढ़ी, बहुत ज्ञान अर्जित किया और ऐसी विधि ईजाद की कि उसने अपने जैसे कई लोगों को बना दिया."

"अपने जैसे?"

"हाँ, बिलकुल. ऐसे कि कोई पहचान नहीं सके कि कौन असली और कौन नकली."

"फिर?"

"फिर क्या! फिर एक दिन उसका समय इस दुनिया में पूरा हो गया और यमदूत उसे लेने आये. अब यमदूत परेशान? कौन है असली, कौन है नकली? किसको ले कर जाएँ, किसकी मौत आई है. यमदूत सोच में पड़ गए. क्या करें कि पता लग जाये कि कौन असली है और कौन नकली. इतने में जब देर पर देर हुई तो चित्रगुप्त जी परेशान हुए. दौड़े-दौड़े गए ब्रह्मलोक की ओर, और भगवान से सब हाल कहा."

"फिर?"

"फिर? फिर भगवान समझ गए कि यह तो बात तो यमदूत के बस की नहीं, ना ही चित्रगुप्त के बस की. तो उन्होंने स्वम वहाँ जाने का विचार किया."

"स्वम भगवान ने?"

"हाँ! और भगवान ने जब सोचा तो बस वह प्रगट हो गए जहाँ यमदूत पहले से ही अपना सिर खपा रहे थे कि पता करें कौन असली है और कौन नकली है. भगवान जी ने इतने सारे एक से लोगों को देखा. फिर हँस के कहने लगे कि बहुत अच्छा काम किया है इस इंसान ने, पर देखो तो एक कमी रह गई, वर्ना बिलकुल पता ही नहीं लग पाता."

"अच्छा!"

"बस यह सुनना था कि जो असली आदमी था, जिसने अपनी बाकी प्रतिमूर्तियाँ बनाई थीं, उससे रहा नहीं गया. लपक के बोला, 'क्या कमी रह गई, बताइए तो ज़रा.'"

"भगवान जी ने हंस कर कहा, 'बस यही कमी रह गई. तुम चुप न रह सके. बोले सो कुंडा खोले. अब जाओ, इस लोक में तुम्हारा समय समाप्त हो गया.'"

"ओह-हो! तो मम्मी, अगर वह आदमी कुछ न बोलता तो नहीं मरता. तो बोलना ही गलत है. बस फीकी दाल खाते रहो, कुछ ना बोलो."

"नहीं. बोलो, मगर सोच के."

"सोच के? सोच के क्या?"

"यह तुम सोचो."

"मम्मी! माँ, माँ! ओफ्फो, बताओ तो सही."

"चलो सो जाओ. अब रात बहुत हो गई. कल सोचेंगे."

यही बात मुझे पसंद नहीं आती. बस यह कह देंगे कि सोचो, पर क्या सोचो यह बताएँगे नहीं. कितनी गलत बात है. अब मैं क्या कहूं कि फीकी दाल भी न खानी पड़े और कुण्डी भी ना खोलनी पड़े. सोचते-सोचते कब नींद आ गई पाता ही नहीं चला.

सुबह उठे तो कुछ-कुछ समझ में आया. उस रात जब खाना खाने बैठे तो पता चला कि फिर नमक कम है. पर अब तो मैं समझ गया था कि इधर मैं बोला तो उधर यमदूत, ना बोला तो फीकी दाल. तो मैंने सोच कर कुछ और ही कहा, "वाह! आज तो दाल कमाल की बनी है. नमक, मिर्ची, खटाई सब बिलकुल बढ़िया."

भैया ने आश्चर्य से देखा और बोले, "क्या बात कर रहे हो? नमक तो है ही नहीं."

सबसे जोर से मैं चिल्लाया, "बोले सो कुंडा खोले!"

पाता नहीं भैया ने माँ से वह कहानी सुनी भी थी या नहीं. पर इस बार बढ़िया दाल खाने की बारी मेरी थी, कुंडा खोल कर मिसरानिजी से डांट खाने की उनकी. मैंने देखा माँ भी मिसरानी जी के पास बैठी-बैठी मुँह पर आँचल रख कर हंस रही थीं.

३ मई, २०१०

Saturday, May 01, 2010

"बूँद-बूँद से घड़ा भरता है"

मेरे एक बहुत अच्छे मित्र हैं जो मेरे ऑस्ट्रलिया निवास के दौरान मेरे साथ काम करते थे. जो लोग मुझे और उन्हें जानते हैं वह तो तुरंत समझ ही जायेंगे कि किसकी बात कर रहा हूँ. पर बाकी दूसरों कि सुविधा के लिए चलिए उन्हें गणपति बुला लेते हैं. गणपति एक अदभुत प्रितिभा संपन्न व्यक्तित्व के मालिक हैं. वैसे तो महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में उसका जन्म हुआ. जन्मजात उसकी गणित की प्रतिभा भरपूर थी. इस बात को उनके गाँव के छोटे से स्कूल के किसी अच्छे से अध्यापक ने पहचाना और उन्हें आगे पढ़ने का वजीफा दिलवाया. एक बार गणपति साईकिल पर बैठ कर अपने गाँव से १०-१५ किलोमीटर दूर एक बड़े कस्बे में पढ़ने क्या गए, भारत के एक बड़े संस्थान से एम् टेक करके ही गर्व के साथ वापिस आये.

गणपति बताते हैं की उसकी दादी जी, जो अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी, उसको बहुत पसंद करती थीं और उसकी सारी अच्छाइयों और बुराइयों से परिचित थी. गनपत में बुराई? जी हाँ, हम सब में होती है, उसमे में भी थी. उसमे एक बुराई यह थी की कोई चीज़ नई मार्केट में आई, गणपति को वह मांगता ही मांगता है. जब तक खबर आये की बाज़ार में एक नया गेजेट आया है, गणपति उसका डीमोंसट्रेशन कर रहा होता था. इस बात का अंदाज़ा उसकी दादी को था, पर वह उसे उसकी इस आदत को कैसे भी छुड़ा पाने में सफल नहीं हुई.

ख़ैर, गणपति बताते हैं कि जब उसकी जॉब पुणे में लगी तो वह दादी जी का आशीर्वाद लेने गए. दादी जी एक बहुत ही साधारण से घर में सात्विक तौर-तरीके से रहती थीं. किसी प्रकार उनका गुजर-बसर होता था. गणपति ने कहा, "दादी, तुम्हारी छत से बरसात का पानी टपकता है, फर्श टूट गया है, खिड़की भी लुंज-पुंज हो गई है, ऐसे कैसे चलेगा." दादी ने कहा, "बेटा, मैं तो ठीक करवा लूं, पर पिछली बार जब राज-मजदूर को बुलाया था तो वह कहते थे कि पैसे बहुत लगेंगे, और मेरे लिए तो ऐसे ही ठीक है."

गणपति को उसकी बात बिलकुल रास ना आई. "कहने लगे अब तुम्हारा पोता कमाता है तो आई! तुझे चिंता करने का नहीं है. मैं हर महिने पैसा भेजेगा. तुम बस सब ठीक करो लो."

उस दिन का दिन था कि गणपति हर महीने दादी को २५०-३०० रुपये भेजते रहे. थोडा बहुत दादी का घर ठीक भी हो गया, पर दादी फिर भी वैसे ही मितव्यता के साथ गुजर-बसर करती रहीं. ट्रेनिंग ख़तम होने के पांच साल बाद, गणपति की कम्पनी ने उसका ट्रान्सफर फैक्ट्री से हेड ऑफिस कर दिया. बहुत बड़ा प्रमोशन था, गणपति माना भी ना कर सके, पर बहुत दिक्कत में आ गए. ऑफिस जाने के लिए ऑफिस की ही एक बस सुबह-सवेरे उन्हें हेड ऑफिस ले जाये और फिर गई रात तक उन्हें वापिस घर छोड़े. गणपति की सारी दिनचर्या बदल गई. हफ्ते में छह दिन काम, बाज़ार हाट करने का भी समय नहीं. पर मोटर-साईकिल खरीद लें इतने पैसे भी तो पास नहीं. सारा पैसा तो फालतू के गेजेट्स और साजो-सामान में लगा चुके थे.

एक दिन दादी ने बुला भेजा कि "भई तीज-त्यौहार का समय है, आ के मिल जाओ. फिर पाता नहीं कब मिलना हो." बस दादी की यही बात गणपति को पसंद नहीं आती थी, ख़ुशी के मौके पर भी दुनिया से छोड़ जाने की, भगवान के पास चले जाने की बिना-बात की बात ले कर बैठ जाती हैं. अच्छा खासा मूड ऑफ हो जाता है. "क्या दादी, तुम भी ना..." वाला भाव ले कर गणपति ने गाँव की राह की.

गाँव पहुच कर देखा की दादी बिलकुल ठीक-ठाक हैं और जब गणपति ने पूछा क्या दादी क्यों ऐसी उलटी-सीधी बातें करतीं हो कि फिर मिलना हो या न हो. तो दादी ने अपने बचे-कुछे दाँत निपोर कर कहा कि बेटा तुझे देखने को बहुत मन था इसलिए ऐसे ही कह दिया.

गणपति कहने लगे, "दादी ऐसे मत सताया करो, वैसे ही आजकल मैं बहुत परेशान हूँ."

"क्यों रे! तुझे क्या परेशानी हैं."

"बस है दादी! तुझे क्या बताऊँ?"

"अरे! तो और किसे बताएगा. बहू तो अब तक लाया नहीं."

"बहू कहाँ से लाऊं दादी! सुबह से शाम तक काम. पैसे भी नहीं कि मोटर साइकिल ले लूं, और तुम हो कि बहू लाने की बात करती हो."

"कितने की आती है मोटर साइकिल?"

"छोडो दादी, बहुत महंगी आती है."

"कितने की? लाख भर की?"

पुराने ज़माने की बात है, आज कल जैसा नहीं, मंदी का ज़माना था. गणपति हँसने लगा दादी के भोलेपन पर, "नहीं दादी, कोई नौलखा हार थोड़ी है. समझ लो अगर पुरानी लूँगा तो करीब आठ-दस हज़ार की और नयी बीस हज़ार की."

"तब तो तू नई ही लेना. अच्छा बता मोटर साइकिल आ गई तो फिर बहू भी ले आएगा ना?" दादी ने कहा.

गणपति ठंडी सांस भर कर बोला, "मजाक कर रही हो दादी. कहाँ से आएगा इतना पैसा?"

दादी कहने लगी,"उठ जा पलंग से और नीचे जो ट्रंक रखा खीच बाहर."

गणपति ने कौतुक भरे आश्चर्य से उठ कर ट्रंक बाहर खीचा. ट्रंक खोला तो उसमें मुचुड़े-मुचड़े बहुत सारे से रुपये ठुंसे थे.

गणपति का मुँह खुला का खुला रह गया, कहने लगा, "दादी इतने रुपये कहाँ से आये?"

दादी बोली, "बताती हूँ, पहले गिन तो सही."

गणपति आज भी यह कहानी सुनाते-सुनाते भावुक हो जाते हैं. उन्हें अच्छी तरह से याद है, जब गिना तो बाईस हज़ार तीन सौ नौ रुपये थे. गणपति ने दादी को प्रश्नवाचक नज़रों से देखा.

दादी कहने लगी "अरे, तेरे भेजे हुए ही रुपये हैं. ले ले, तेरी कमाई के ही हैं."

"यह वह पैसे हैं जो मैं भेजता था तुम्हें हर महीने."

"तो और कहाँ से आयेंगे?"

"और दादी तुम खर्च नहीं करती थीं? ऐसे ही रख लेती थी."

"मुझे तो ज़रुरत थी नहीं, पर तुझसे कहती मत भेज तो यह भी खर्च कर देता. देख ले बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है. अब ले आ ना मोटर साइकिल."

"नहीं दादी, यह रुपये तो तेरे हैं."

"मैं क्या करूगीं? तेरे हैं, तेरे काम आ जायेंगे, वरना यही रखे रहेंगे."

गणपति बताते हैं की जब उन्होंने पहली बार अपनी दादी के सौगात वाले पैसे से मोटर साइकिल खरीदी और उस पर बैठ कर अपने गाँव गए तो उन्हें लगा की सारी दुनिया उनके क़दमों में है. पर इस तरह अनजाने में गणपति की दादी ने सिर्फ गणपति को ही नहीं, हम सबको एक अज़ीम सीख दी. उन्हें पाता ही नहीं की उन्होंने मेरे जैसे कितने लोगों को बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है यह बिना बड़ा उपदेश दिए कैसी सरलता से सिखा दिया. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद दादी जी.

Wednesday, April 28, 2010

कांजीवरम इडली
[यह किस्सा मैंने पहले फेसबुक पर लिखा था. पर बहुत से लोगों ने इसे नहीं पढ़ा था, तो इस को यहाँ लगा रहा हूँ, उन सब से क्षमा याचना के साथ, जिन्होंने इसे पहले पढ़ा है.]

मेरे एक मित्र हैं जिन्हें हम मगर के नाम से बुलाते हैं. नहीं, उनका असली नाम मगर नहीं है, और मगरमच्छ आदि से उनका कोई दूर दूर तक सम्बन्ध भी नहीं है. बात यह है कि उनके पास एक अनोखी प्रतिभा है. आप कुछ भी, अच्छी से अच्छी बात बताएं, सुन कर वह ग़मगीन हो जायेंगे. कहेंगे कि "हाँ, यह तो ठीक है, मगर उसका क्या?" मज़े कि बात यह है कि "मगर भाई" हर अच्छी खबर का कोई इतना खतरनाक पहलू निकाल लायेंगे कि कुछ पल पहले आपके चहरे पर जो चमक थी वह उड़ जायेगी और रह जायेगी एक बदहवासी. आप सोचते रह जायेंगे कि मगर यह तो हमने सोचा ही नहीं था. फिर एक बार आपके काल्पनिक सुन्दर सफ़ेद बगुले को मगर खा जायेगा. मैंने मगर भाई से इतना कहा कि भैया! मैं ठहरा एक कवि, मुझे कुछ देर तो अपनी काल्पनिक दुनिया में खुश रहने दिया करो, कुछ देर तो अपने मगर को बाँध कर रखा करो. जब मेरी कल्पना कि उडान थोडी पुरानी हो जाये, तो धीरे से मगर को बाहर निकला करो. मगर नहीं, मगर भाई का मगर तो खुला घूमता है.

कल मेरी कांजीवरम इडली खाने की तीव्र इच्छा हुई. आप भी कहेंगे कि क्या यार, तुम्हारी इच्छा भी क्या स्पेशल है, हुई भी तो कांजीवरम इडली खाने की. क्या करें, दिल ही तो है, उस पर यह कमबख्त TV वाले! एक प्रोग्राम दिखाते हैं "यह है इंडिया." सुन्दर सी नीलगिरी वादियों में बसा एक छोटा सा गाँव, गाँव में एक छोटी-सी दूकान. देखिये यहाँ पर इस हरी-भरी वादी में यह कैसे सुन्दर बादल छाये हुए हैं. क्या आप महसूस कर सकते है खुशबु की नाचती हुई लहरें. जी हाँ! नाचती हैं खुशबु की लहरे यहाँ, सुबह-सुबह, जब इस दूकान पर कांजीवरम इडली बनती है. लोग दूर-दूर से आते हैं, बस कांजीवरम इडली खाने और फिल्टर काफ़ी पीने. कैमरे का एंगिल घूमता है, दिखती है कारों की लम्बी कतार. लोग यहाँ-वहां बैठ कर कांजीवरम इडली खा रहे है. लुक-आउट पॉइंट से सुन्दर मनभावन दृश्य देख रहें है और प्लास्टिक के कप में गर्मागर्म काफी पी रहे हैं. एक नॉर्थ इंडियन कपिल इडली में छिपे मसाले से उत्तेजित हो कर सी-सी कर रहा है. दूर एक माता जी बैठी ऊँगली से नारियल चटनी चाट रही हैं. एंकर लेडी फ्रेम में आती है. वह उस नॉर्थ इंडियन कपिल से मुखातिब है. आदमी से पूछ रही है, "भाई-साहब! आपने कितनी इडली खायी हैं?" भाई-साहब बस मुस्कुरा रहें है, कुछ बोल नहीं पा रहे हैं. पर उसके चहरे का नूर बता रहा है कि उसने छक कर कांजीवरम इडली खाई हैं. उनकी पत्नी बीच में आ कर कहती है, "हाय, इतनी खाई, (कूदते हुए), इतनी खाई, कि बस, पेट जो है न वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक ठसाठस भर गया." यहाँ कैलिफोर्निया में बेठे, यह प्रोग्राम देखते मेरी आँखों के सामने ऐसा खाका खिच गया कि मुझे लगा कि अगर मुझे अभी के अभी कांजीवरम इडली नहीं मिली तो मेरा पेट कश्मीर से कन्याकुमारी तक हड़ताल कर देगा. कांजीवरम इडली की खुशबू की याद, फिल्टर काफ़ी की सुहास और नीलगिरी जाने की आस सब एक फितना बन कर मेरे ज़हन से चिपट गए और मैं थूक निगलता, लार टपकता अपनी कल्पना की दुनिया में खो गया. काश, अगर मैं इंडिया में होता तो सब कुछ छोड़ कर बंगलोर चला जाता. वहां से नीलगिरी की पहाडियां, वादियां, सुन्दर दृश्य. अगर मेरे पास समय होता तो मैं तो इसी गाँव में बस जाता. अगर कांजीवरम इडली और अनलिमिटेड फिल्टर काफ़ी मिलती रहे तो और क्या चाहियें? अगर, अगर अगर...

मगर मैं "अगर" पर था, उधर से "मगर" आ रहा था. देख के कहने लगा, "तुम्हारे चहरे को देख के लग रहा है की तुम्हे कोई कविता या कहानी लग रही है. मैं उसके जन्म होने के बाद तुमसे मिलता हूँ." मैंने कहा, "नहीं भाई! मुझे कोई कविता या कहानी नहीं आई है, बस कांजीवरम इडली खाने की तीव्र इच्छा हो रही है." मगर भाई कहने लगे, "अच्छा, कांजीवरम इडली, वह जो मसालेदार होती हैं." मैंने कहा, "हाँ, और नारियल चटनी साथ हो तो बस, याद है कैसा मुंह खुल जाता है कि बस खाते जाओ, खाते जाओ."

मगर भाई ग़मगीन हो गए, कहने लगे, "स्वादिष्ट तो होती ही है, मगर पता है उसमे कितनी केलोरी होती हैं?" मेरी कल्पना की उडान में आया व्यवधान. यह तो मैंने सोचा ही नहीं. मैंने कहा, "नहीं. कितनी?" कहने लगे, "एक इडली में करीब ७५ केलोरी होती हैं. एक दो खाओ तो ठीक, मगर खाते जाओ, खाते जाओ तो बहुत हो जाती हैं." मैंने कहा, "यार ठीक है. जिम में आधा घंटा और लगा देंगे." मगर भाई कहने लगे, "हाँ जिम जाना तो अच्छा है, मगर आधे घंटें में कितनी सी केलोरी बर्न होंगी? ज्यादे-से-ज्यादे ४०० केलोरी? अगर तुम सोचो, नारियल चटनी के साथ ६ इडली खा लीं तो ७५ छकका ४५०, और नारयल चटनी के पकडो ३५० तो ७५० तो यह ही हो गए. अनलिमिटेड काफी के अलग." मैं अभी सकते में आया ही था कि उसने एकदम से फिर पूछा, "चीनी डालोगे?" मैं चौंका, "किसमे?" कहने लगे, "कोफी में." मैंने कहा, "ज़रूर डालूँगा. मसाले वाली इडली खाने के बाद मीठी गरम फिल्टर काफ़ी का मज़ा ही कुछ और है." मगर भाई कहने लगे, "तुम पिओगे तो दो-तीन काफी तो पी ही जाओगे. तो समझो १५० केलोरी हो गए उसके. कुल हो गई ९०० केलरी. जिम जाना तो ठीक पर आधे घंटे ज्यादे जाने से क्या फर्क पड़ेगा?" मैंने मगर भाई को रोक कर कहा, "यार! कहाँ रखते तो यह सारा डाटा?" गर्व से सीना फुला कर मगर भाई बोले, "अरे सारा का सारा इन्टरनेट भरा हुआ है, मगर तुम देखते ही नहीं." मेरी कल्पना की उडान अब तक नीचे आ कर कई बार ज़मीन से टकरा चुकी थी. झुंझलाहट में मुंह का सारा जायका भी ख़राब हो गया था. अब तक जो यादों की खुशबू शराब का नशा लग रही थी वह हेंग-ओवर की तरह चुभने लगी थी. क्रिकेट की हारती हुई टीम के कैप्टिन की तरह मैंने कहा, "अगर-मगर कुछ नहीं, अगली बार मैं इंडिया जाऊँगा तो कांजीवरम इडली छक कर खा के आऊँगा." मगर भाई कहने लगे, "वह तो ठीक है, मगर तुम तो लखनऊ जाते हो, कांजीवरम इडली कहाँ से खाओगे." मेरी आँखों में अब तक आंसू आ गए थे और आवाज़ भर्रा गई थी. पहले ओवर की पहली गेंद पर आउट हुए ओपनिंग बैट्समैन की तरह से मैंने अपने हाथ झटके, आँखे रोल की, जोर से ठंडी सांस ली और एक मोटी से गाली देते हुए बोला, "मगर भाई, पिच गीला था, फिर भी मैं खेला. अब और नहीं, कोई अगर-मगर नहीं, मैं कांजीवरम इडली खाऊँगा, खाऊँगा और देखता हूँ कौन मुझे रोकता है. मैं लखनऊ नहीं, बंगलोर जाऊँगा. हफ्तों तक बस कांजीवरम इडली खाऊँगा. भाड़ में गई केलोरी और उसकी अम्मा."

मगर भाई कहने लगे, "यार आप आदमी अच्छे हो, मगर बड़े इमोशनल हो." मैंने कहा, "हाँ, अभी तुम यहाँ से चले जाओ, नहीं तो तुम्हे कांजीवरम इडली उठा-उठा के मारूंगा, मगर भाई!" मगर भाई बोले, "यह तो ठीक है, मगर कहाँ है कांजीवरम इडली?" पहली बार मुझे लगा कि यह साला मगर कह तो सही रहा है, कहाँ है कांजीवरम इडली?

Tuesday, April 20, 2010


"बीच का बीज"

आधुनिक संभ्रांत मानव को यह बात कचोटती है कि उसकी वजह से प्रकृति-माता प्रदूषित हो गई, जंगल नष्ट हो गए, सारा प्राकृतिक सौंदर्य चला गया. मैं सोचता हूँ, यह भान होना तो बहुत अच्छी बात है, इससे नये प्रयोग होंगे, हमारे रहने और सोचने के तरीके बदलेंगे, प्रदूषण कम होगा--धरती माँ फिर से हरी-भरी होंगी. पर यदि इस बात से आज का मानव मन में एक ग्रंथि बना ले, और सोचे कि उसे इस दुनिया में आना ही नहीं चाहिए था, वही वजह है प्रकृति माता की दुर्गति के लिए, और दुखी हो कर बैठ जाये... तो संभवतः यह ठीक नहीं होगा. या तो उसे या फिर प्रकृति माता को कुछ करना पड़ेगा ताकि स्थिति बेहतर हो. सही कहा न मैंने? आप सोच रहें होगे कि यह तो ठीक है, पर इस बात का मेरे बचपन से, बचपन की मेरी माँ से, उसके सर्व-साधारण मुहावरे, कहावतें, और जन-श्रुति से क्या सम्बन्ध है?

मज़े की बात है कि सम्बन्ध है. आज आपको बताता हूँ. मुझे बचपन में बहुत बार यह सुनने को मिलता था कि "तुझे पता है बेटा, तेरी माँ कितनी सुन्दर थी जब उसकी और तेरे पापा की शादी हुई? गोरा रंग, गुलाबी आभा और सुन्दरता ऐसी कि सारे शहर में शोर मच गया कि चलो देख कर आयें डॉक्टर साहिब के घर परी जैसी बहू आई है." मैं कहता, "सच्ची भुआ!" भुआ कहती "और क्या!"

मैं अविश्वास से माँ को देखता: एक साधारण-सी धोती पहने हुए, अपने आधे काले और आधे सुफेद होते बालों को कंघी करती, घर का सारा काम निबटाती हुई माँ को! और सोचता कि "मेरी माँ, परी? सच्ची?" फिर-फिर पूछता, "माँ! अपनी परी वाली कहानी सुनाओ." तो माँ हंस देती, "अब क्या सुनाये बेटा. पांच-पांच बच्चों को पेट मैं रखा, कहाँ रह गई वह परी?" और मैंने धीरे-धीरे मन में गांठ बंध ली, "हाय! हम पांच भाई-बहन माँ के पेट में पले, तो माँ तो परी से माँ हो गई. कितना बड़ा नुकसान कर दिया माँ का हमने. तभी तो माँ मुझे इतना डांटती है. मैं गन्दा बच्चा हूँ, क्या ज़रुरत थी मुझे पैदा होने की?"

वैसे तो माँ को क्या पता चलता की मन ही मन मैंने निर्णय कर लिया था कि मैं एक सुन्दर सी, कोमल सी परी को साधारण-सी माँ बनाने का दोषी हूँ, और मुझे तो पैदा ही नहीं होना चाहिए था. पर हुआ यह कि मैं उस दिन जिद कर बैठा, और कुछ ज्यादे ही परेशान किया होगा माँ को कि वह सिर पर हाथ रख कर बैठ गई और पापा से कहने लगी, "देखो जी, यह शहर अच्छा नहीं है. यहाँ संजय की कम्पनी उज्जड लड़कों से होती है, बिगड़ता जा रहा है, कोई बात नहीं सुनता, ऐसे कैसे चलेगा? आप अपना ट्रान्सफर किसी अच्छे शहर में करवा लीजिये वर्ना..." यह बात मेरे सुनने की सीमा में कही गई थी तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने चीख कर कहा, "हाँ, मैं उज्जड हो गया हूँ. तुम लोग किसी अच्छे शहर चले जाओ, मैं यहीं रहूँगा उज्जड बच्चों के साथ. तुम परी बन कर रहना अच्छे शहर में, मुझे कहीं नहीं जाना."

जैसा मैंने बताया, माँ ने तो पांच-पांच बच्चे पाले थे, उनका माथा ठनका कि यह मैं क्या कह रहा हूँ. भाग्यवश, मेरे पापा का धैर्य असीमित था. उस समय दोनों चुप हो गए, कुछ नहीं बोलो. मुझे खुद रोते रोते नींद आ गई. अगले दिन मैंने देखा माहौल चुपचाप है, पर कहीं गरज के साथ छींटे पड़ने की सम्भावना नज़र नहीं आ रही. देखा, माँ किचिन में नौकरों से कुछ काम करवा रहीं हैं, और आँगन में पापा एक टेबिल पर एक जार में कुछ सेटिंग कर रहे थे. कुछ कौतुहल हुआ. पास जा कर देखा. जार में आधा पानी भरा था. पापा ने एक लकड़ी के टुकड़े पर तीन बड़े-बड़े बीज बांधे हुए थे, जिसे वह पानी में डुबो रहे थे. मैंने पूछा, "पापा, यह क्या है?" तो कहने लगे, "यह एक एक्सपेरीमेंट है जो तुम्हारे लिए बना रहें है." मुझे पापा के बनाये हुए एक्सपेरीमेंट बहुत पसंद आते थे. यह एक्सपेरीमेंट तो खासा मजेदार लग रहा था. "बताओ तुम क्या देख रहे हो?" मैंने उनींदी आँखों से मिचमिचाते हुए देखा फिर कहा, "ओह, एक बीज तो पूरा पानी में डूबा है. एक हवा में है, और एक पानी के उपर."

"बिलकुल ठीक. अब इसको हम धूप में रख देंगे."

पापा ने टेबिल को सरका के धूप में कर दिया. फिर कहने लगे, "तुम्हारा काम है, जब धूप में पानी सूखने लगे और यह "बीच का बीज" हवा में आ जाये तो फिर से बस इतना पानी भरना की यह बीज आधा पानी में, आधा हवा में रहे."

"अच्छा. इससे क्या होगा?"

"हम लोग देखेंगे इससे कुछ दिन में क्या होगा. अभी तुम तैयार हो कर स्कूल जाओ."

फिर उस दिन क्या, उससे अगले चार-पांच दिन तक किसी ने ना मुझे डांटा, ना परी की बात के बारे पूछा. बस माँ चुप-चुप अपना और मेरा काम करती रही. मैं माँ के मुहावरे सुनने को तरस गया. पर माँ तो चुप थी. कभी कभी पता नहीं माँ को क्या हो जाता था, चुपचुप हो जाती थी. मुझे पता था वह पापा से बोल रहीं हैं और चुपचाप कुछ हो रहा है, पर क्या हो रहा है मुझे पता नहीं था. क्या वाकई यह लोग मुझे यहाँ इस उज्जड शहर में छोड़ कर परियों वाले शहर चलें जायेंगे? ज़रूर चले जाना चाहिए, मैं गन्दा बच्चा हूँ, माँ को परी से माँ बना दिया, वह कैसे माफ़ करेगी? यही सब सोचते-सोचते मैं कई दिन तक जार में बीच के बीज तक पानी भरता रहा. धीरे-धीरे "बीच का बीज" अंकुरित होने लगा. नीचे का बीज फूल कर कुप्पा हो गया. ऊपर का बीज रहा वैसे का वैसा.

उस दिन इतवार था और सुबह-सवेरे मेरी आँख खुली पापा की आवाज़ से, "देखो, संजय के एक्सपेरीमेंट में कितने अच्छे फूल आये हैं?"

"फूल?" मैं हडबडा कर उठा और दौड़ कर आँगन में पहुंचा. देखा, बीच के बीज के अंकुर से बढ़ कर एक बेल निकली है और उसके एकदम सिरे पर एक मुनामुनिया-सा, सुफेद फूल उग आया है. नीचे का बीज कुप्पा हो कर फट गया था और उपर का था वैसा का वैसा.

पापा कहने लगे, "क्यों? कैसा लगा यह एक्सपेरीमेंट?"

मैंने खुश हो कर कहा, "बहुत अच्छा!"

तभी मम्मी ने पूछा, "इससे क्या सीखे?"

मैंने सोच का घोड़ा दौड़ाया पर कुछ समझ में नहीं आया कि क्या सीखा. मैंने सरल रस्ता पकड़ा, "माँ, तुम बताओ न."

मैंने सोचा था हमेशा की तरह पापा-मम्मी बताएँगे तो पर थोड़ी देर के बाद, मुझे सोचने पर मजबूर करने के बाद. पर इस बार माँ तुरंत ही बताने लगी, "देखो बेटा, यह जो बीज है न, इसके सिर्फ तीन जीवन हो सकते हैं. या तो यह नीचे वाले बीज की तरह पानी और कीचड़ में पड़ा में सड़ जाये, या ऊपर वाले बीज की तरह वैसा का वैसा रहे और भोजन की तरह काम आये. या फिर बीच वाले बीज की तरह इसमें से बेल या पौधा निकले, और उसमे फूल और बीज आयें."

मैंने अचरज से सिर हिलाया.

पापा ने पूछा, "तुम्हें कौन सा बीज पसंद आया?"

"बीच वाला" मैंने कहा.

तो माँ ने अजब बात कही. कहने लगी, "यह बीच का बीज मैं हूँ. और यह जो फूल है न यह हो तुम. प्यारे से."

पापा ने मुस्कुरा के पूछा, "और मैं क्या हूँ?"

"आप हैं इस उपवन के माली." मम्मी बोली.

मैंने पूछा, "और बेल क्या है?"

"बेल वह परी है जो बीज में छुपी थी. अब तेरी माँ है. देखा कितनी खुश है, हवा में लहरा रही है."

मैं हुलस कर माँ से चुपट गया.

पापा ने पूछा, "अच्छा बताओ, ऊपर का बीज कौन?"

मैंने कहा, "नहीं पता." तो कहने लगे, "तुम्हारे स्कूल कि नन्स और टीचर्स, जिन्होंने यह इरादा किया कि उनके खुद के बच्चे नहीं होंगे और वह दूसरों के बच्चों को पढ़ाएंगे, लिखाएंगे, उनके लिए काम आ जायेंगे."

मेरा अचरज से मुँह खुला का खुला रह गया. तभी मम्मी कहने लगी, "और जानते हो यह पानी में डूबा हुआ बीज क्यों सड़ गया?"

मैंने कहा, "नहीं! पर पहले यह बताओ, तीसरा बीज कौन है?"

मम्मी कहने लगी, "यह हैं यहाँ के उज्जड बच्चे, जिन्हें सिर्फ पानी और कीचड मिला, खुली हवा नहीं मिली, तो वह सड़ गए."

पापा कहने लगे, "बीज तो अच्छे ही होते हैं, पर किसी को खुली हवा और धूप नहीं मिलती तो बेचारे सड़ जाते हैं."

माँ ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, "कोई बच्चा माँ के पेट से गन्दा नहीं आता. गंदे बच्चों को कोई बताने वाला, सम्हालने वाला नहीं होता."

पर मेरी तो परी जैसी माँ और सागर से धैर्यवान पापा थे न. बिना पता लगे, बिना बताये, खेल-खेल में, वह मेरे मन की कठिन से कठिन ग्रंथि को बिना काटे-पीटे खोल देते थे. कल वह मेरे लिए "बीच का बीज" थे, आज क्या हम-और आप अपने और दूसरों के बच्चों के लिए "बीच का बीज" बनाने को तैयार हैं? अगर हैं, तो मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यह जगत फिर से हरा-भरा हो जायेगा, चाहें अभी कितना भी प्रदूषण दिखे.

Monday, April 19, 2010

"बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."


हुआ यह की उस बार घर के आम के पेड़ में कुछ ज्यादा ही आम आये. माँ ने कच्चे आम उतरवाए तो डलिया भर हो गए. एक लम्बी साँस ले कर कहने लगी, "बिटिया को इतना पसंद हैं आम का अचार, वह होती तो बनाते कलोंजी वाला अचार. सच्ची हाथ कट गए हमारे तो उसको विदा करने के बाद." हम सब को पता था की इस बात का समापन तो माँ थोड़ी सुकड़-सुड़क करने के बाद आँचल से आंसू पोछ कर ही करेंगी. हम इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि इस बार कुछ अलग ही हुआ. अचानक माँ को कुछ याद आया, कहने लगीं, "अरे बेटा, तुम्हारे एक्जाम्स तो हो गए, छुट्टी शुरू हो गई हैं. तो तुम जा के दे आओ ना अपनी बहना को घर के आम. कितना खुश हो जाएगी. इतना बुलाती है तुम्हें. पिछली बार जीजाजी भी कितना कह कर गए थे. ओफ्फो, कौन दूर है. बस में बैठो तो कानपूर पहुँचने में दो घंटे भी नहीं लगाते. गर्मी? अरे हम तुम्हारी उम्र के थे तो ...."

"बस, बस, माँ! ठीक है, हम चले जायेंगे ले कर. तुम बस अच्छा सा तोशा बना देना."

"तोशा" यानि के सफ़र का टिफिन जिसमे अमूमन एक-या दो फली आम के अचार की, ४-६ पूरियाँ, आलू या भिन्डी की भुनी हुई सब्जी, और एक टुकड़ा मीठा होता था. सोच कर ही मुँह में पानी आ जाता है. साथ में सुराही का ठंडा पानी. उसके बाद का जुगाड़ मैं खुद कर लेता था और वह था मघई पान का जोड़ा जिसे खा कर सिर ठंडा और कान गरम हो जाते थे. फिर क्या कानपूर और क्या नागपुर, सफ़र आराम से कट जाता था.

मज़े की बात है, इन सब चीज़ों से ऊपर होती थी रास्ते की चट-पट. जिसके लिए राह खर्च भी मिलता था. और उस राह खर्च में आता था बनी के मोड़ का गुलाब जामुन या कानपूर की चाट वा सोंफिया पान. कानपूर में खातिरदारी और लौटते में बहन जो टीका करेगी उस पैसे से फिर लौटने में मस्ती. बताइए? आम के आम और गुठलियों के दाम. ऐसे में कौन भाई अपनी बहन को कच्चे आम देने कानपूर नहीं जायेगा?

तो वही हुआ. हमने यू पी एस आर टी से की कानपूर स्पेशल बस पकड़ी. बनी में जो बस रुकी तो वहाँ की जगत-प्रसिद्ध गुलाब-जामुन खाने की तीव्र इच्छा ने जोर मारा. जैसे ही दुकान की तरफ बढ़े तो देखा कि वहाँ तो कौल साहिब अपने मित्रों के साथ विराजमान है. आनन्-फानन में सबसे परिचय हुआ और कौल साहिब कहने लगे, "यार, बताया नहीं कानपूर जा रहे हो, हमारे साथ आ जाते." मैंने पूछा, "क्या तुम लोग भी कानपूर जा रहे हो?" तो कहने लगे, "हाँ, भाई! इन लोगों को थोडा नवाबगंज घुमा दें फिर इन्हें कानपूर ही तो छोड़ना है. सिस्टर के यहाँ जा रहे हो न. अरे हम छोड़ देंगे. चलो, हमारे साथ adjust हो जाओ. छोडो इस खटारा बस को." फिर उसने अपने दोस्तों से मेरी इतनी तारीफ़ कि मैं लज्जित हो गया. कहने लगा, "जोक तो बहुत लोग सुनते है, पर जैसा संजय सुनाता है...तुम यार बस, कुछ नहीं, सामान निकालो बस से." उसके दोस्त भी सब बहुत रोचक थे. ऐसे पकड़ लिया कि मैं मना ही नहीं कर पाया. मेरा बैग और आम कि डलिया कौल साहिब की मारुती ८०० की बूट में किसी तरह से ढूंस दी गई. बूट पहले से ही बिलकुल लबालब भरी थी. पता नहीं क्या जुगाड़ कर के समान तो फिट हो गया. अब आई कार में मेरी बैठने की बारी तो आगे की दो सीटों के बीच में एक बैग फसायाँ गया और उस पर मैं बैठा पैर फैला के, यानि गीयर को अपनी दोनों टांगों के बीच में फंसा कर. मज़ा तो तब आया जब मित्रा साहिब ने पीछे बीच वाले सीट पर फंसने के बाद आपने घुटने मेरी पीठ पर अड़ा दिए और बोले, "अरे, आप "कम्फरटेबिल" हो के बैठें माथुर जी!" मैं कुछ कह पाऊँ, तब तक कौल ने सामने से गेयर बदला और मेरी जान जाती रही. कुछ मिनटों तक तो अँधेरा छाया रहा. मित्रा साहिब और उनकी मिसेस से पहली बार मिला था, उनके सामने कौल को गाली भी नहीं दे पाया. फिर जब होश आया तो मारुती सड़क छोड़ कर नवाबगंज की कच्ची-पक्की सड़क की तरफ मुड़ चुकी थी. हर एक गड्ढे पर मैं उछल जाता था, मित्रा साहिब के घुटने और कौल साहिब की कार के लो गेयर के बीच अड़े-फंसे बैग पर पुनःस्थापित हो जाता था. पर यह लय बीच-बीच में भंग हो जाती थी जब कोई ना कोई पूछ लेता था की माथुर साहिब, "कोम्फोरटेबिल" तो हैं ना आप." इसका जवाब मैं गा कर देता था, "पीछे से मित्रा मारे घुटने, आगे से कौल बदले गीयर, बोलो भाई वाह, वाह, वाह!" सब हँसते-खिलखिलाते कब नवाबगंज पहुँच गए पता ही नहीं चला. जब उतरने की कोशिश की तो पिछवाड़े ने एक बड़ी शिकायत की, पर जब बूट खोली गई तो मेरी तो जान ही निकल गई. टोकरी टूट गई थी, और सारे आम बूट में छितरा से गए थे. खैर! सारे आम फिर से पकड़-पकड़ कर टूटी टोकरी में डाले गए. आब क्योंकि टोकरी टूट गई थी तो उसे एक कपडे की गढ़री में बांधा गया. बस वही गलती हो गई! मतलब, बस बेकार में छोड़ने, कौल साहिब के साथ "खुले प्रोग्राम" में आने, बैग पर गीयर और मित्रा साहिब के घुटनों के बीच सैंडविच बनने के बाद, और कानपूर की जगह नवाबगंज पहुँचने के बाद की यह सबसे बड़ी गलती थी. मगर, जब कौल साहिब ने गढ़री बाँधी, उसे बूट में पीछे को तरफ उरस दिया और विजयभाव से कहा "देखा, प्रॉब्लम सोल्व्ड!" तो सबने बहुत समझदारी से सिर हिला कर हामी भरी. पर अगले दिन जब आम चेक किये गए, कौल मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था.

अगला दिन? जी हाँ! हालाँकि, उस दिन किसी को भी यह इल्म नहीं था की हमें रात नवाबगंज में गुजारनी पड़ेगी. हुआ यह कि कमबख्त मारुती का इंजन गर्म हो गया और उसका एयर कुलिंग सिस्टम इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हो पाया कि पहले से ही ठुसी गाड़ी में एक और यात्री घुस आये अपने बेग, आम की टोकरी और सुराही के साथ. खैर सुराही तो नवाबगंज पहुँचते-पहुँचते ही टूट ही गई थी, पर उसका लकड़ी का फ्रेम फिर भी मिसिस कौल के पांव में गड़ता रहा. अगर सुराही ना टूटती और उसमे पानी होता तो हम उसे गर्म रेडीएटर पर डाल देते, और शायद इंजन चलता रहता. पर केवल सुराही के फ्रेम से इंजन कैसे ठंडा होता? जब इंजन नवाबगंज पहुँच कर फिर स्टार्ट ना हो तो हम सब क्या करते? वहां रात में कोई मेकनिक कहाँ मिलता. तो रात नवाबगंज के डाक-बंगले में बितायी गई. इस बिना प्लान की पिकनिक के अलावा चारा ही क्या था. मुझे लगता है कि बिना किसी को बताये कौल साहिब ने थम्प्स अप में कुछ मिला दिया था, तभी तो मिसेस कौल इतना हंसती रही और पीठ में इतना दर्द होने के बावजूद मैं इतना नाचता रहा. और बातें तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. जगह लाजवाब, साथ बढ़िया तो पिकनिक कमाल!

राम-राम करके अगले दिन गाड़ी ठीक हुई तो कानपूर के लिए चले. रास्ते में मित्रा साहिब और पार्टी को उनके ठिकाने पहुँचाया और जब तक लंच करके जीजी के घर पहुंचे, शाम हो गई थी. जब वहाँ आम की गठरी उतारी तो उस पर कुछ पीले दाग़ उभर आये थे. खोला तो दिल धुक. सारे आम अजीब तरह से पक गए थे. पक गए थे मतलब ३० घंटे गर्मी और धूल में दूसरे सामान के साथ दबने से, समय से पहले ही पीले पड़ गए थे. खैर, अब जो था सो था.

सारी बात सुनने के बाद जीजी के ससुराल में सब हंसने लगे. मैंने कहा कि, "जीजी! मम्मी की बड़ी इच्छा थी कि तुम इन आम कि कलोंजी बनाओ." जीजी हँसे लगी, "इन आम की? इनका अब कुछ नहीं हो सकता. तुम चिंता मत करो, चलो हाथ मुँह धो कर खाना खा लो."

फिर, आम को भूल कर, एक-दो दिन खातिर करवा के, अपने पुराने सुराही के फ्रेम में नई सुराही लगाये, ताज़ी मिठाई का डिब्बा और जीजी के हाथ का तोशा ले कर घर वापिस आये. लौट कर माँ ने पूछा, "तो बहना ने बनाई कलोंजी? कैसी बनी?" माँ से झूठ कैसे बोलें? तो मैंने कुछ सोच कर सच-सच कहा, "नहीं, मेरे सामने तो जीजी ने कलोंजी नहीं बनाई."

"तो फिर?"

"हम तो बात चीत करते रहे, घूमने-फिरते रहे."

"अरे! और आम तो सड़ गए होंगे."

मैंने चाणक्य नीति अपनाते हुए कहा, "शायद. और क्या? कच्चे आम तो सड़ ही गए होंगे."

माँ की नाराज़गी ठीक ही थी, "तुम भाई-बहन मिल जाओ तो बस बातें ही बाते. चाहें आम सड़ जाएँ. सच में, बातूनी आदमी और लम्बा धागा, कभी इधर उलझा कभी उधर अटका."

पता नहीं माँ को कभी सच्चाई पता चली या नहीं. पर मैं कल जब यह निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख रहा था तो मुझे लगा मुझे माँ को सच्चाई बता ही देनी चाहिए थी. पर कल भी और आज भी मेरी हालात तो वैसी की वैसी ही है. जाना होता है कानपूर, तो पहुँच जाता हूँ नवाबगंज. कल माँ तो आज बीवी परेशान रहती है...

"सोचा था थोड़ी तारीफ़ कर दूँगा तुम्हारी जुल्फों की
तो पा जाऊंगा चाय के साथ ब्रेड-स्लाइस पतली सी.
कहाँ फँस गया लिखते हुए मोटे कसीदे तुम्हारे हुस्न पे!"

Tuesday, April 13, 2010

"सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये"

उन दिनों एक अजीब हवा चली थी देश में--भाषा को ले कर आन्दोलन हो रहे थे. हिंदी और अहिन्दी भाषी आपस में लड़ पड़े थे. तथाकथित और कपोल-कल्पित डर से भ्रमित हो कर लोग सड़कों पर निकल आये थे. राम जाने, हमारे हिंदी भाषी प्रदेश में किसको किस चीज़ से खतरा था, पर हम सब विद्यार्थी हवा में हाथ फ़ेंक-फ़ेंक कर यह उद्घोष करते फिरते थे कि "हिंदी हमारी माँ सामान है, कोई अगर हिंदी को अपमानित करेगा तो हम उसे नहीं छोड़ेंगे." रातों-रात, बाज़ार से सारे अंग्रेजी और दूसरी किसी भी भाषा के बोर्ड तोड़-फोड़ कर सड़कों पर ढेर लगा दिए गए और पेंटर्स ओवर टाइम हिंदी के बोर्ड और साइन बनाने में जुट गए.

हम लोगों का कोलेज बंद कर दिया गया, और उस दिन मैं जलूस के साथ-साथ घर से काफी दूर तक निकल गया. बाद में, मैं थक कर वापिस घर लौटा. बहुत देर हो गई थी और नारेबाजी से मेरा मुंह लाल हो रहा था. घर के पास पहुंचे ही थे कि डी सेक्शन वाले शर्माजी मिल गए. उन्होंने बताया कि किसी ने उन्हें बताया है कि साउथ इंडिया में लड़कों ने हिंदी के विरोध में नारे लगाये और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता. उस ज़माने में इन्टरनेट तो था नहीं कि किसी खबर कि कोई पुष्टि की जा सके. शर्माजी कह रहें हैं तो ठीक ही होगा. बस मेरा दिमाख तो ख़राब ओ गया. उन सालों की इतनी हिम्मत? राष्ट्र-भाषा का अपमान? यह तय हुआ कि जितने साउथ-इंडियन यहाँ "हमारे इलाके" में रहते हैं उनसे बात की जाये. अगर किसी ने इस बात का समर्थन किया और कहा कि कोई हम पर हिंदी थोप नहीं सकता, तो बस हम भी ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.

जब मैं घर में घुसा तो चेहरा तमतमाया हुआ था और मुठियाँ भिंची हुई थीं. माँ आंगन में बैठी धोबी का हिसाब कर रही थी. बस उन्हें पता चल गया कि कोई गहरा मसला है. पूछा तो मैंने तैश में कहा कि "हम भी चूडियाँ पहने नहीं बैठे, उनके ईंट का जवाब पत्थर से देंगे."

माँ कहने लगी, "ठीक है, पहले हाथ-मुंह धो कर ठंडा पानी पीओ, गर्मी बहुत है. फिर कटोरदान में कुछ पराठें रखें है, और जाली की अलमारी में सब्जी और दही रखा है. खा लो, फिर देना ईंट का जवाब पत्थर से, जिसको भी देना हो."

मुझे भूख लगी थी और ठन्डे पराठे के साथ ताज़ी बनी सब्जी, और दही का नाम सुन कर भूख और ज़ोरों में भड़क उठी. जब तक हाथ-मुंह धो कर आये, माँ ने तश्तरी में खाना परोस दिया था. जल्दी-जल्दी, लपड़-लपड़ खाना शुरू किया तो माँ ने पूछा किसकी ईंट का जवाब देना है? मैं फिर भड़क गया, "अरे, यह साउथ इंडियन क्या समझते हैं अपने-आप को? हिंदी राष्ट्र-भाषा है. कोई उसका विरोध करेगा तो हम ईंट का जवाब ..."

"अच्छा! तो यह बात है. तो वह ईंट मारेंगे, और तुम पत्थर. फिर तो बहुत जल्दी बस ईंट और पत्थर रह जायेंगे, लोग तो अस्पताल में होंगे."

"अब जो होगा सो होगा. हमने भी तो चूडियाँ नहीं पहन रखी."

"तो तुम उन्हें ज़बरदस्ती हिंदी बोलने और लिखने पर मजबूर कर दोगे?"

"इसमें मजबूरी की क्या बात है. हिंदी राष्ट्र-भाषा है कि नहीं?"

"है तो बेटा! मानो तो है न मानो तो नहीं है."

"ना मानो का क्या सवाल उठता है. अरे! वाह! उनकी ईंट का जवाब...."

"तो तुम वह करोगे जो दूसरे करेंगे. वह ईंट उठाएंगे तो तुम पत्थर."

"और जो हम पत्थर नहीं उठाएंगे तो वह जो चाहेंगे करेंगे?"

"और उनका विरोध पत्थर उठाये बगैर तो हो ही नहीं सकता?"

"कैसे?"

"तुम अपने स्वाभाव पर अडिग रहो. तुम्हें लगता है वह गलत कर रहें हैं?"

"बिलकुल!"

"और अगर तुम वही करोगे जो वह कर रहें हैं, तो फिर उनमे और तुममे क्या फर्क रह जायेगा?"

मैंने भावों कि रौ में आ कर कहा, "ना रह जाये, पर अब तो उनकी ईंट का जवाब पत्थर से ही दिया जाएगा." पर मन ही मन सोचा की माँ कि बात में दम तो है.

तभी माँ ने एक बात कही जो मुझे अब तक याद रह गई. बोलीं, "बेटा, हर मुहावरा हर जगह के लिए सिद्ध नहीं होता. एक मुहावरे की टांग पकड़ कर बार-बार खेंचोगे तो गिर जाओगे. यह क्या बात-बात में ईंट का जवाब पत्थर दे देने की बात कर रहे हो. पहले बताओ किसने ईंट फेंकी?"

"शर्मा बता रहा था की साउथ इंडिया में हिंदी का जम के विरोध हो रहा है और वहाँ लड़के नारे लगा रहें हैं कि कोई हमारे ऊपर हिंदी थोप नहीं सकता."

"साउथ इंडिया में कहाँ?"

"यह पता नहीं.."

"कौन लोग ऐसा कह रहे हैं?"

"इससे क्या फरक पड़ता है? कह तो रहे हैं ना?"

"अच्छा, तो क्यों कह रहे हैं?"

"गधे हैं, इस लिए कह रहे हैं."

"यहाँ के गधे क्यों ऐसा ही क्यों नहीं कह रहे हैं?"

"कह के तो देंखे..."

"हाँ, समझे. तुम उन्हें पत्थर मार दोगे."

"और क्या.."

"तो तुम्हें इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है, क्यों कह रहा है. बस अगर कहा तो पत्थर मार दोगे."

"बिलकुल."

"तो थोपना किसे कहते हैं."

"तुमसे बात करना बेकार है, माँ."

"तो मुझे भी पत्थर मारोगे?"

"कैसी बात कर रही हो माँ?

"क्यों, तुम क्या सोचते हो, तुम पत्थर मारोगे तो तुम्हारी राष्ट्र-भाषा, तुम्हारी मात्रभाषा, हिंदी माँ बहुत खुश होगी? तुम्हारे सारे पत्थर तुम्हारी हिंदी माँ को ही लगेंगे."

मैं रोने-रोने को हो गया. "तो तुम चाहती हो मैं और सभी हाथ में चूडियाँ पहन कर बैठ जाएँ? कुछ न करें."

"यह कहा मैंने? या तो पत्थर मारों या चूडियाँ पहन कर बैठ जाओ. अरे, इन मुहावरों से आगे बढ़ो बेटा. पता करो कौन, क्यों विरोध कर रहा है. कहाँ अवरोध है. उसे हटाओ, और सबको गले लगाओ."

"पर शर्मा कह रहा था..."

"शर्मा क्या बी-बी-सी रेडियो है या वोइस ऑफ़ अमेरिका का संवाददाता? उसने कहा और तुमने सुन लिया. और सुना भी क्या--कोई कहीं पर किसी कारण से हिंदी का विरोध कर रहा है, और बस हाथ में पत्थर उठा लिया."

"पर ऐसी बात एक कान से सुन के दूसरे कान से कैसे निकल दें?"

"हे भगवान! फिर मुहावरा. पहले कथ्य को समझो फिर तथ्य को. मुहावरों को मारो गोली. अच्छा, चलो ठीक है. मुहावरा ही सुनना है, तो सुनो. लोग पता नहीं क्या-क्या कहेंगे. तुमको सूप के स्वाभाव का होना है, जोकि अनाज को रख लेता है और छिलके को उड़ा देता है. "सार-सार को गेह रहे और थोथा देये उडाये" समझे. लोग तो पता नहीं क्या-क्या करेंगे, तुम उन्हें देख कर अपना स्वभाब बदलने लगे तो बस थाली के बेगन की तरह, इधर से उधर तक लुढ़कते ही रहोगे."

गई रात तक काफी कुछ सोचने के बाद नींद आई. अगले दिन पहले जा कर शर्मा को ढूंडा. लाइब्रेरी के पास बैठा बेनर बना रहा था. मैंने पूछा तुम्हें कौन बता रहा था साउथ इंडिया में हिंदी के विरोध के बारे में. वह लटपटा गया कहने लगा, "तुम्हें यकीं नहीं? गंगा कसम वहाँ दंगा हुआ और.."

मैंने पूछा "कहाँ?" तो कहने लगा, "साउथ इंडिया में."

मैंने कहा "साउथ इंडिया में कहाँ पर?"

तो नाराज़ हो गया, "यह मुझे पता नहीं."

मैंने फिर पूछा, "क्यों कर रहें है वहाँ लोग ऐसा?"

तो वह भी वोही बोला जो मैंने माँ से कहा था, "इससे क्या फर्क पड़ता है?"

पर अब मैं माँ की तरफ था. "बहुत फर्क पड़ता है. बिना सोचे समझे तुम उन्हें पत्थर मारोगे?"

"और तू चूड़ियाँ पहन कर बैठेगा, हैं न?"

"क्या सिर्फ पत्थर मारना और चूड़ियाँ पहनना, दो ही रास्ते हैं?" मैंने पूरे विश्वास से पूछा. शर्मा कुछ न बोल सका.

अच्छा हुआ मैं उस दिन माँ की साइड हो गया, वर्ना बेकार ही मेरा पत्थर का वार ज़ाया होता या फिर मैं चूड़ियाँ पहने बैठा होता. उस शाम शर्मा को और लड़कों के साथ पुलिस पकड़ कर ले गई. लौट कर आया तो ऐसा चुप की जैसे मुंह में जुबान ही नहीं. कहते हैं की उसकी पेंट उतार कर उसे डंडे मारे गए थे. इधर मैंने साहित्यिक हिंदी परिषद् के रिसाले में एक ज़ोरदार लेख लिखा, "हिंदी का विरोध क्यों?" लोगों ने उसे बहुत पसंद किया और उस लेख से प्रेरित हो कर एक वाद-विवाद प्रितियोगिता का आयोजन किया गया. मुझे परिषद् ने ५० रूपये का पारितोषक दिया.

इस बार माँ ने मुहावरों के परे मुझको एक नया रास्ता दिखाया.

Sunday, April 11, 2010

चली-चली रे पतंग मेरी चली रे

बीवी ने डाटा, "यह क्या बात है, अगर मैं घूमने नहीं जा सकती तो आप भी घर में पड़े रहो? जाओ घूम कर आओ ना." अगर उसने "आप भी घर में पड़े रहो" की जगह "आप भी घर में रहो" कहा होता तो शायद मैं घूमने नहीं जाता. पर "पड़े रहो" के उलहाने में इतना दम है कि कोई बिलकुल बेगेरत इन्सान ही इसे सुन कर पड़ा रह सकता है. मैंने सोचा इतना गिरा-पड़ा तो नहीं हूँ मैं, तो बस वाकिंग शूज़ पहने और चल दिए ओर्टेगा पार्क.

ओर्टेगा पार्क घर से मुश्किल से आधा मील भी नहीं है, पर कुछ गरमी ज्यादा थी, कुछ उमस भी थी; तो वहां तक पहुँचते-पहुँचते हांप गए. ध्यान आया कि पानी कि बोतल ले आनी चाहिये थी. पर देर से आई समझ का क्या लाभ? फिर याद आया कि पार्क के साथ जो स्कूल है, उसमे water fountain है, तो धीरे-धीरे उधर की तरफ चल दिए. शुक्र है कि water fountain चालू था, पर दिक्कत यह थी कि मुझे जानवर कि तरह पानी कि धार को लपड-लपड पीना नहीं आता. तो मैंने एक हाथ से water fountain चलाया और दुसरे हाथ को ओक बना कर थोडा थोड़ा पानी ले कर पीने लगा. उधर से एक परिवार चला आ रहा था: पापा, मम्मी, बेटा और बेटी. बेटा कोई १०-११ साल का रहा होगा. मुझे उस तरह पानी पीता देख कर उत्साहित हो कर बोला, "मम्मी, मम्मी देखो यह अंकिल बाबाजी की तरह से पानी पी रहें हैं." उसके पापा-मम्मी ने मुझे देखा, मम्मी को आभास हुआ कि मैं हिंदी समझता हूँ, तो उसने थोडा सकुचा कर, मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा. मुझे मुस्कुराता हुआ पा कर कहने लगी, "सॉरी, यह ऐसे ही कुछ भी बोलता है." इससे पहले कि मैं कुछ कहता, छोटी बेबी ने बोल उठी, "नहीं मम्मी, दादा ठीक कह रहा है, यह अंकिल बिलकुल बाबाजी की तरह से पानी पी रहे थे." उनकी भाषा और व्यवहार से यह तो निश्चित था कि वह लोग उत्तर भारत के हैं, पर बेबी के भाई को दादा कहने से मैंने अनुमान लगाया कि वह लोग शायद मेरे प्रान्त उत्तर प्रदेश के हों. मैंने हंस कर कहा, "बच्चों ठीक कह रहे हो, दुनिया भर के बाबाजी लोग ऐसे ही पानी पीते हैं." बच्ची को पता नहीं क्या लगा कि वह दौड़ के मेरे पास आ गयी और पूछने लगी, "आप भी बाबाजी हैं?" मैंने कहा, "बिलकुल!" तो वह खुश हो गयी.

यह तो मुझे समझ में आ गया था कि यह बच्चे भारत में पैदा हुएं हैं, थोडा समय पहले यहाँ आयें है इसलिए इनकी हिंदी इतनी अच्छी है, और इनके बाबाजी या तो इनके साथ हैं, या फिर इनको विजिट कर के वापिस गए हैं. थोडी देर के दुआ-सलाम के दौरान पता लगा कि वह वर्मा फॅमिली कानपूर की हैं और यहाँ पिछले एक साल से हैं. क्योंकि वह लोग घर में हिंदी बोलते हैं, और बच्चे स्काइप पर अपने ग्रैंड-पैरेंट्स से बराबर बात करते हैं इसलिए उनकी हिंदी अभी भी जिन्दा है. हाँ, उनके बाबाजी गर्मियों में आये थे तो हर दिन घूमने पार्क में आते थे, और जैसे अभी मैं पानी पी रहा था वैसे ही पीते थे. मुझे वैसे ही पानी पीते देख कर और वैसी ही हिंदी बोलते सुन कर बच्चों को लाजिमी था कि अपने बाबाजी याद आ गए.

खैर, दो मिनट की औपचारिक बात-चीत के बाद मैंने फिर से अपनी वाकिंग चालू की. वर्मा परिवार स्कूल के परिसर की और चला गया और मैं बच्चों के झूलों की तरफ. थोडा आगे जाते ही मैंने देखा की कुछ वृद्ध ओरिएण्टल लोग ताई-ची कर रहे थे. मैं सामने गुलाब की क्यारी के पास की बेंच पर थोडा सुस्ताने बैठ गया. मन में विचार आया कि बच्चे तो अब मुझे बाबाजी कहते ही हैं, मुझे अब ताई-ची ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. देखा दूर स्कूल के ग्राउंड में वर्मा परिवार पतंग उडाने की तैयारी कर रहा है. मन में आया कि चलो वापिस चलते हैं, आज के लिए वाक् काफी हो गया.

जब तक मैं वापिस स्कूल के पास पहुंचा तो देखा कि मिसेज़ एंड मिस्टर वर्मा, दोनो एक-एक पतंग उडा रहें हैं. मिसेज़ वर्मा सुपरमैन वाली पतंग उडा रही थी, और दादा उनके साथ था, मिस्टर वर्मा बटर-फ्लाई वाली पतंग उडा रहीं थी और बेबी उनके साथ थी. मेरे चहरे पर मुस्कराहट आ गयी. कितना खुश परिवार है. तभी बेबी ने मुझे देखा तो किलकारी मार कर हंसी. फिर पता नहीं क्या सोच कर, दौड़ते हुए मेरे पास आई और हाथ पकड़ कर खींच कर अपने पापा-मम्मी की तरफ ले गयी. पूछने लगी, "बाबाजी आपको पतंग वाला गाना आता है?" वैसे तो मुझे वक्त पर कोई चीज़ अचानक याद नहीं आती, पर पता नहीं कैसे मुझे अपने बचपन का पतंग वाला गाना याद आ गया. मैंने कहा , "हाँ! आता है."

पूरे वर्मा परिवार ने कोतुहल से मेरी और देखा. मैंने हँसते-हंसते एक लाईन गाई, "चली-चली रे पतंग मेरी चली रे." बेबी का चेहरा चमक उठा, और उसने भी गाने में अपना स्वर मिला दिया. मैंने देखा की दादा के भी होठ हिल रहे हैं. अब यह एक अच्छा इतेफाक था कि उनके बाबा जी भी यह गाना गाते थे. बेबी कहने लगी, "मम्मी, मम्मी! छोटे बाबाजी तो बाबाजी से भी अच्छा गाते हैं."

थोडी देर बच्चों से बात करके, फिर मिलने का वादा करके मैं वापिस घर कि ओर चल दिया. रस्ते भर सोचता रहा कि वाकई मैं चाहूं या नहीं, मदर नेचर तो मुझे बाबा बना ही दिया. मेरे अपने बच्चे अभी भले ही बच्चों के लिए तैयार हों या न हों. पर मैं तो बन गया छोटा बाबा! यह कोई इत्तेफाक है? शायद नहीं.

घर पहुंचा तो बीवी ने मेरा दमकता हुआ चेहरा देखा और कहने लगी, "देखा मैं कह रही थी ना कि घूम के आओ तो फ्रेश फील करोगे, कितने खुश नज़र आ रहे हो." मैंने हंस कर कहा, "सच कह रही हो छोटी दादी!.. चली-चली रे पतंग मेरी चली रे."

बीवी ने मेरी ओर अचरज से देखा, "हें! बौरा गए हैं क्या?"

मैंने कहा, "हाँ बेग़म, अब तो आये हैं बौराने के दिन, हमारे-तुम्हारे! घुटने का दर्द कैसा है तुम्हारा, छोटी दादी?"

Friday, April 09, 2010

"जग दर्शन का मेला"

जब मैं बहुत पीछे पड़ता कि माँ बताओ तुम किस कोलेज में पढ़ी हो? पप्पू की माँ ने एम् ऐ किया है संस्कृत में, तुमने किसमे किया है? तो माँ पता है क्या कहती? वह कहती कि मैं तो गृहस्ती की क्लास में पढ़ी हूँ, जोइंट फॅमिली मेरा कोलेज था और तुम्हारे पापा उसके प्रिंसिपल.

"और तुम्हारे सब्जेक्ट्स क्या थे?"

"जुगत, दर्शन, होम साइंस और धरम-करम, बस यही सब.."

"ये सब पापा ने पढाये तुम्हें?"

"नहीं! मैंने खुद पढ़े, पापा तो प्रिंसिपल थे ना."

"खुद कैसे पढ़े?"

"वैसे ही, जैसे तुम पराग, नंदन, चंदा मामा, बेताल वगेरह पढ़ते हो."

"तुम क्या पढ़ती थीं?"

"वो सारी किताबें जो अलमारी हैं."

जी हाँ! हमारे यहाँ एक लकड़ी की बड़ी अलमारी थी. उसमे पता नहीं क्या-क्या अंगड़-खंगड़ भरा रहता था. वह मम्मी की अलमारी कहलाती थी, और उसे खोलने से पहले हमें माँ से इजाज़त लेनी पड़ती थी. पता नहीं क्यों? उसमे ना तो कोई मंहगी चीज़ थे, ना कोई नायब हीरा. कम से कम मुझे तो यही लगता था. था क्या? पुराने वीमेन एंड होम, कल्याण के रिसाले, सूर, कबीर, मीरा की पोथियाँ, घर का जिल्द किया हुआ शिव पुराण, उर्दू के अफ़साने, प्रेमचंद की रोवनटी कहानियां, शिवानी और गुलशन नंदा के नोवल्स, वृन्दावन लाल वर्मा, महादेवी वर्मा, नेहरु, विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण के उपदेश, एक योगी की आत्मकथा, सत्यनारायण पूजा के पर्चे के बचे हुए वर्क, दीमक खाई डायरियां, और यही सब.

"इन किताबों में क्या है माँ?" हम पूछते तो माँ कहती, "इसमें जग-दर्शन का मेला है."

"कैसे?"

तो माँ बताती, "इन साधारण आँखों से तो हम भगवानजी के दर्शन नहीं कर सकते ना, तो भगवान जी किताबों के ज़रिये हमें नयी नज़र देते हैं जिससे हम उसे देख सकें. तुमने पढ़ा था न कैसे जेम्स वाट ने चाय की केतली से निकलती हुई भाप में स्टीम इंजन के दर्शन किये थे, गाँधीजी ने प्लैटफॉर्म पर गिर कर अपने बेईज्ज़ती में अहिंसा के दर्शन किये थे, रामकिशना परमहंस ने विवेकानंद में भगवान के दर्शन किये थे, वह सब करने के लिए कहीं से तो उन्हें नयी नज़र मिली...वर्ना सब लोग अपनी साधारण आँख से इनसे बहुत पहले यह दर्शन नहीं कर लेते?"

बात तो पते की थी. जेम्स वाट से पहले किसी ने केतली से निकलती हुई भाप में स्टीम इंजन के दर्शन क्यों नहीं किये? सभी लोग कभी ना कभी बेईज्ज़त होते हैं, पहले भी हुए होंगे ही, पर उनमे किसी को अहिंसा या आज़ादी के दर्शन क्यों नहीं हुए? रामकृष्णा परमहंस ने विवेकानंद में ऐसा क्या और कैसे देख लिया?

मैं माँ के पीछे पड़ जाता. "बताओ माँ, मुझे भगवान जी किस किताब के ज़रिये दर्शन देंगे?"

माँ कहती, "वह तो तुम्हें खुद ही ढूंढनी पड़ेगी. बस हमेशा मुक़द्दस, और कल्याणकारी किताबें पढ़ते रहो, तुम्हें तुम्हारी किताब ज़रूर मिल जाएगी. वह तुम्हें तुम्हारा सही नज़रिया देगी."

मैंने माँ की अलमारी की सारी किताबें पढ़ी. फिर पागलों की तरह कॉलेज में, क्लास में, यहाँ-वहाँ, सफ़र में, देश-विदेश में किताबें, रिसाले, पर्चे और अखबार पढ़े. दुनिया भर की मुक़द्दस और कल्याणकारी किताबें जमा की, सहेजी, सम्हाली. यहाँ तक की मेरे कम्प्यूटर पर सैकड़ों किताबें मौजूद हैं. इन्टरनेट पर मेरी कल्पना से भी अधिक किताबें मौजूद हैं, पर मैं आज भी अपनी किताब ढूंढ रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि इतना पढने के बाद भी मैं अपनी माँ की व्यावारिक बुद्धि के धरातल को भी नहीं छू पाया. पता नहीं किस किताब से, किस टीचर से पाया था उसने वह मुक़द्दस और कल्याणकारी नज़रिया, "जग दर्शन का मेला!!"

Thursday, April 08, 2010

"दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ"

सुबह शाम काम करते-करते माँ यह लाइन गुनगुनाती रहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" और हम सब इसको सुनते-सुनते बोर हो गए थे. बाकी भाई-बहन बड़े थे, वह शायद माँ को यह कह कर कि 'बहुत हुआ, अब बस भी कीजिये,' उनके दिल को ठेस नहीं पहुचना चाहते थे. पर एक दिन मेरे सब्र की सीमा समाप्त हो गई. मैं छोटा था और मुंह लगा भी, तो पूछ ही बैठा, "माँ! यह तुम क्या गाती रहती रहती हो? दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ. अगर तुम्हारी डोर दीनबंधु के हाथ में है तो उन्हें पता है ना, बार बार उनसे कहने से क्या फायदा?" माँ कुछ नहीं बोली बस मुस्कुराती रही और गुनगुनाती रही. अब यह तो मुझे भी मालूम था की जब कोई खास बात बतानी होती है, तो माँ ऐसे ही नहीं बता देती. वह थोड़ी भूमिका बनाएगी, थोड़ी देर लगाएगी पर ऐसे मौके पर बताएगी की ताउम्र याद रहे.

तो उस दिन मेरा साइंस का कोई प्रोजेक्ट ड्यू था और माँ कहने लगी, "इसे पूरा करके "एतिहात" के साथ स्कूल ले कर जाना ताकि इसे टीचरजी "सही सलामत" देख लें और चेक ले. अगर रास्ते में इसमे "जर्ब" आ गया तो परेशानी हो जाएगी." जी हाँ, जहाँ माँ शुद्ध हिंदी बोल सकती थीं वहाँ बोल-चाल की भाषा, हिन्दुस्तानी में भी माहिर थीं. हमें किसी ने कभी बताया ही नहीं कि 'एतिहात' उर्दू का लफ्ज़ है और जी! इसका मतलब होता है सावधानी. 'जर्ब' फारसी से आया है, और इसका मतलब होता है 'चोट या अघात.' यह सब लफ्ज़ या शब्द हमारी बोलचाल में ऐसे आ जाते थे जैसे सुबह की पहली किरण के साथ चिड़ियाँ हमारे आँगन में दबे पाँव आ जाती थी और चहचहाना शुरू कर देती थीं. माँ कहती थी यह मैना फारस से आई है, यह तोता गुजरात से और कौआ लंका से. राम जाने, कहाँ से उड़ कर आते थे वह चिड़ी-चिड़े हमारे घर.

अब देखिये मैं बहक गया न, बात कर रहा था माँ के गाने की, फिर जिक्र किया अपने प्रोजेक्ट का, और पहुँच गया बचपन के चिड़ी-चिड़े की दुनिया में. दिमाख भी गज़ब की चक्की है. एक विचार से दूसरा, दूसरे से तीसरा, बस चलता ही रहता है, चलता ही रहता है. खैर! वापिस अपने किस्से पर चलते हैं. माँ के यह कहने पर कि मैं अपने प्रोजेक्ट को एतिहात से स्कूल ले कर जाऊं, मैं और फ़िक्र में पड़ गया. कैसे ले कर जाऊँगा? बस्ता भी होगा, खाने का डिब्बा भी, और फिर इस प्रोजेक्ट को हाथ में ले लिया तो साईकिल पर बैठेंगे कैसे? उन दिनों या तो रामनाथ, हमारा चौकीदार, मुझे साईकिल पर स्कूल छोड़ आता था, या फिर बहुत मिन्नतें करने पर भाईसाहेब छोड़ के आते थे. उस दिन तय हुआ कि भाईसाहेब छोड़ देंगे. अच्छा है! कम से कम भाईसाहेब साईकिल तो ठीक चलाएंगे. रामनाथ तो बस तीर की तरह जाता है, प्रोजेक्ट गिरे या टूटे उसे कौन सी परवाह है!

चलते-चलते माँ ने कहा बेस्ट ऑफ़ लक, और यह कि रास्ते में हनुमानजी के सामने हाथ जोड़ते हुए जाना. मैं किसी तरह से सायकिल के हेंडल पर प्रोजेक्ट को टिका कर, सामने वाले डंडे पर एक साइड पर हो कर टेढ़ा सा बैठा था और इतना परेशान था कि भाईसाहेब के लिए हेंडल घुमा पाना भी मुश्किल हो रहा था. सारे रास्ते वह "हेंडल मत पकड़ो" कहते रहे, और बड़े एहितात से साईकिल चलाते रहे. पर स्कूल के पास पहुँचते-पहुंचते मैंने हेंडल पर इतना जोर डाला कि भाईसाहेब उसे घुमा नहीं पाए और हम लोग सामने एक दूसरी साईकिल से भिड़ गए. भाईसाहेब ने किसी तरह से सम्हाला, पर साईकिल टेडी हो गई और प्रोजेक्ट में "ज़र्ब" आ गया. अब मैं रोऊँ तो बस रोऊँ, भाईसाहेब के लाख मनाने पर भी कोई असर नहीं. भाईसाहेब ने किसी तरह मुझे सम्हाला, साईकिल खड़ी की और मुझे ले कर क्लास में गए. पता नहीं टीचरजी से क्या बात की. टीचर जी ने मुझे अपने पास बुलाया और दिलासा दिया. कहा अगर मैं ब्लेक बोर्ड पर पूरी क्लास को यह समझा दूँ कि मेरा प्रोजेक्ट क्या था, और मैंने क्यों बनाया था, तो इसी को वह मेरा प्रोजेक्ट मान लेंगे. मेरी जान में जान आई. अब मुझे जल्दी यह सोचना था कि क्या डाईग्राम बनाऊंगा और क्या बोलूँगा. दिमाख में हजारों विचार एकसाथ आ रहे थे, यह होगा तो क्या होगा, वह होगा तो क्या होगा. फिर माँ कि याद आई, माँ होती तो क्या करती. वह तो बस कहती, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." ओ-हो, इससे याद आया कि रास्ते में हनुमान जी के सामने हाथ जोड़ना भी भूल गए थे. शायद इसीलिए तो एक्सिडेंट हुआ और प्रोजेक्ट में जर्ब आ गया. हे भगवान! अब क्या होगा. अब तो बस, "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ." मैंने बार-बार मन ही मन यह कई बार कहा तो कुछ बल मिला. फिर टीचर जी ने क्लास में अनाउन्स किया अब संजय हम सबको बतायगा कि उसका प्रोजेक्ट जो यहाँ तक लाते-लाते टूट गया, वह क्या करता और किस काम आता.

खैर, जब एक बार उठ कर बोर्ड तक पहुँच गए तो फिर यह बताना कि मेरा प्रोजेक्ट क्या करता और किस काम आता, कोई मुश्किल काम नहीं था. आखिर मैंने उस प्रोजेक्ट पर कितनी मेहनत की थी. टीचरजी ने खुश हो कर अच्छे नम्बर दिए.

घर पहुंचे तो सबने मुझे ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, "क्या हुआ?" मैंने उत्साह से सब हाल बताये. माँ कहने लगी तो तुम्हारी समझ में आ गया कि "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का क्या मतलब है.

मैंने कहा, "इसका मतलब तो मुझे पता है, पर बार-बार गाने का क्या मतलब, यह नहीं पता."

तो पता है माँ क्या बोली? वह पूछने लगी कि जब मेरा प्रोजेक्ट टूट गया था तो मेरे दिमाख में क्या आया.

मैंने कहा, "मेरे दिमाख में क्या आया? मुझे लगा कि अब मैं फेल हो जाऊंगा और शुक्ला फर्स्ट आ जायगा. मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी."

माँ ने कहा और तुम रोने लगे, इतना कि भाईसाहेब के हाथ ही नहीं आ रहे थे.

भाईसाहेब ने हंस कर कहा, "यह तो प्रोजेक्ट ज़मीन पर पटक कर भाग गया था. बड़ी मुश्किल से पकड़ में आया. रोये सो रोये."

"तो फिर, तुमने कैसे सारी क्लास से सामने प्रोजेक्ट के बारे में बताया?" माँ ने मुझसे पूछा.

"वह तो बार-बार मन में "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" कहने से कुछ बल मिला और एक बार चोक हाथ में ले कर बोर्ड पर डायग्राम बनाया तो फिर सब कुछ अपने आप याद आ गया और मैंने क्लास को अच्छी तरह से समझा दिया."

"अच्छा जब तुम "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" मन ही मन गुनगुना रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"बस, तुम्हारा चेहरा सामने आ रहा था. और मैं क्या सोच रहा था? हूँ..कुछ नहीं, कुछ भी नहीं सोच रहा था."

"और जब प्रोजेक्ट ले कर सायकिल पर जा रहे थे तो क्या सोच रहे थे?"

"कैसे इसे पकडूँ कि गिरे नहीं. इसमें जर्ब ना आ जाये. टीचर जी को प्रोजेक्ट अच्छा लगेगा या नहीं..."

"फिर भी प्रोजेक्ट टूट गया."

"यही तो.."

"फिर जब तुमने "दीनबंधु, दीनानाथ! मेरी डोरी तेरे हाथ" का पाठ किया तो सब ठीक हो गया?"

"हाँ, माँ!"

"तो बस!"

"बस?"

'हाँ, बस!"

यही कमाल है माँ का, कुछ कहती भी नहीं, और सब कुछ सिखा जाती है. पता नहीं कहाँ से आते ऐसे विचार उनके दिमाख में. माँ तो होती ही है ऐसी, आपकी भी ऐसी ही माँ होगी ना!!

Monday, April 05, 2010

"जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा"

हलाकि मैं घर में सबसे छोटा था, और सबकी कॉपी केट था, पर माँ ने मुझसे पहले चार-चार बच्चे बड़े किये थे. उसे पता था की कैसे बच्चों को सही रस्ता दिखाना है. हमारे पास एक रोडेशियन कुत्ता था, नाम था गिनी. क्या कहा, आपने कभी कोई रोडेशियन कुता नहीं देखा? भाई पता नहीं, हमारे यहाँ तो था. गिनी की बाप था रोड-साइड कुत्ता, और माँ अल्सिअशन, तो गिनी हो गई ना रोडेशियन. उसमे अपने बाप और माँ दौने के गुन आये थे. पटाखों की आवाज़ से उसकी वाट लग जाती थी, पर खाने के मामले में बिलकुल अपने बाप पर गई थी. पर आप पूछ रहें है यह किस्सा मुहावरों की जानिब है या गिनी के? तो मैं आपको बता दूँ की यह किस्सा गिनी के साथ या यह कहूं की गिनी की याद के साथ जुड़ा है तो गलत नहीं होगा.

हुआ यह की जब मैंने बहुत जिद की कि मुझे भी कोई छोटा भाई या बहन चाहिए, तो माँ क्या करती? वह तो 'पांच हो गये, बहुत हो गए' वाले मूड में थी. और इधर मैं जिद पर अड़ा हुआ. तो पापा-मम्मी पता नहीं कहाँ से गिनी को ले आये और कहने लगे कि यह ही है अब तुम्हारे छोटे भाई-बहन की तरह. पहले तो मुझे लगा कि 'ठगे गए यार,' पर फिर धीरे-धीरे गिनी से दोस्ती हो गई.

अब तो यह की गिनी भूखी है तो मैं नहीं खाऊंगा, गिनी सोयगी तो मैं सोऊंगा, गिनी यह तो वह, नहीं तो बस भैं-भैं करके रोना. आफत आ गई सबकी. तो माँ ने एकदिन पूछा, "पता है गिनी
तुम्हारी बात क्यों नहीं मानती?"

मैं पूछा, "क्यों?"

"क्योंकि वह देखती रहती
है ना कि तुम क्या कर रहे हो. वह तुमसे छोटी है ना, इसलिए वही करेगी जो तुम करोगे. जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."

मुझे सुन कर अच्छा लगा कि कोई मुझे भी फोलो करता है. "अच्छा, माँ. सचमुच?"

"और क्या, तुम आँख बंद करके लेट जाओ, देखो फिर गिनी क्या करती है."

मैं आंख भीच कर, बनावटी नींद ओढ़ कर लेट गया. गिनी ने आ कर सूंघा, "ऊँ-ऊँ" किया. फिर जब मैं नहीं उठा तो बोर हो कर वहीं नीचे ज़मीन पर पसर गई. मम्मी ने फुसफुसा कर कहा, "देखा! चुप हो कर लेट गई गिनी. अब सो जाओ, वह भी सो जाएगी. थक गई है, "हें-हें" कर रही है.

खैर ऑंखें मीचे मैं भी सो गया और
थोड़ी देर, मुंह खोल कर "हें-हें" करने के बाद गिनी भी सो गई.

फिर तो जो गिनी को सिखाना होता, वह पहले मुझसे कहा जाता कि करो, और गिनी फोलो करती. थोड़े समय में मैं बैठ कर खाऊँ
तो गिनी बैठ कर खाए, मैं अच्छा बच्चा बन कर बैठूं तो गिनी भी ढंग से बैठे, वगेहरा, वगेहरा. अब सोचता हूँ तो लगता है कि गिनी के बहाने माँ मुझे सिखा रही थीं. पर क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में पूरी आ गई थी, "जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."

बहुत सालों बाद जब गिनी हमारे पास नहीं रही, हम सभी गिनी को याद कर रहे थे. बातों-बातों में मैंने माँ से कहा, "भला हो बेचारी गिनी का, उसके बहाने तुमने मुझे जो भी सिखाना था सिखा दिया," तो माँ हँसने लगी, "हम अपने आचरण से ही दूसरों को ज्यादा अच्छा सिखाते हैं."

इतने दिनों के बाद, आज मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि केवल जो बात मैंने दूसरों के आचरण से सीखीं वह ही मेरा व्यवहार बन गई. जीवन में उपदेश और उपदेशक तो अधिक काम नहीं आये. सच है, "सिर्फ कहने से गधा वहीं अड़ा...जैसा करे बड़ा, छोटा भी वोही करे पीछे खड़ा."