"बूँद-बूँद से घड़ा भरता है"
मेरे एक बहुत अच्छे मित्र हैं जो मेरे ऑस्ट्रलिया निवास के दौरान मेरे साथ काम करते थे. जो लोग मुझे और उन्हें जानते हैं वह तो तुरंत समझ ही जायेंगे कि किसकी बात कर रहा हूँ. पर बाकी दूसरों कि सुविधा के लिए चलिए उन्हें गणपति बुला लेते हैं. गणपति एक अदभुत प्रितिभा संपन्न व्यक्तित्व के मालिक हैं. वैसे तो महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में उसका जन्म हुआ. जन्मजात उसकी गणित की प्रतिभा भरपूर थी. इस बात को उनके गाँव के छोटे से स्कूल के किसी अच्छे से अध्यापक ने पहचाना और उन्हें आगे पढ़ने का वजीफा दिलवाया. एक बार गणपति साईकिल पर बैठ कर अपने गाँव से १०-१५ किलोमीटर दूर एक बड़े कस्बे में पढ़ने क्या गए, भारत के एक बड़े संस्थान से एम् टेक करके ही गर्व के साथ वापिस आये.
गणपति बताते हैं की उसकी दादी जी, जो अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी, उसको बहुत पसंद करती थीं और उसकी सारी अच्छाइयों और बुराइयों से परिचित थी. गनपत में बुराई? जी हाँ, हम सब में होती है, उसमे में भी थी. उसमे एक बुराई यह थी की कोई चीज़ नई मार्केट में आई, गणपति को वह मांगता ही मांगता है. जब तक खबर आये की बाज़ार में एक नया गेजेट आया है, गणपति उसका डीमोंसट्रेशन कर रहा होता था. इस बात का अंदाज़ा उसकी दादी को था, पर वह उसे उसकी इस आदत को कैसे भी छुड़ा पाने में सफल नहीं हुई.
ख़ैर, गणपति बताते हैं कि जब उसकी जॉब पुणे में लगी तो वह दादी जी का आशीर्वाद लेने गए. दादी जी एक बहुत ही साधारण से घर में सात्विक तौर-तरीके से रहती थीं. किसी प्रकार उनका गुजर-बसर होता था. गणपति ने कहा, "दादी, तुम्हारी छत से बरसात का पानी टपकता है, फर्श टूट गया है, खिड़की भी लुंज-पुंज हो गई है, ऐसे कैसे चलेगा." दादी ने कहा, "बेटा, मैं तो ठीक करवा लूं, पर पिछली बार जब राज-मजदूर को बुलाया था तो वह कहते थे कि पैसे बहुत लगेंगे, और मेरे लिए तो ऐसे ही ठीक है."
गणपति को उसकी बात बिलकुल रास ना आई. "कहने लगे अब तुम्हारा पोता कमाता है तो आई! तुझे चिंता करने का नहीं है. मैं हर महिने पैसा भेजेगा. तुम बस सब ठीक करो लो."
उस दिन का दिन था कि गणपति हर महीने दादी को २५०-३०० रुपये भेजते रहे. थोडा बहुत दादी का घर ठीक भी हो गया, पर दादी फिर भी वैसे ही मितव्यता के साथ गुजर-बसर करती रहीं. ट्रेनिंग ख़तम होने के पांच साल बाद, गणपति की कम्पनी ने उसका ट्रान्सफर फैक्ट्री से हेड ऑफिस कर दिया. बहुत बड़ा प्रमोशन था, गणपति माना भी ना कर सके, पर बहुत दिक्कत में आ गए. ऑफिस जाने के लिए ऑफिस की ही एक बस सुबह-सवेरे उन्हें हेड ऑफिस ले जाये और फिर गई रात तक उन्हें वापिस घर छोड़े. गणपति की सारी दिनचर्या बदल गई. हफ्ते में छह दिन काम, बाज़ार हाट करने का भी समय नहीं. पर मोटर-साईकिल खरीद लें इतने पैसे भी तो पास नहीं. सारा पैसा तो फालतू के गेजेट्स और साजो-सामान में लगा चुके थे.
एक दिन दादी ने बुला भेजा कि "भई तीज-त्यौहार का समय है, आ के मिल जाओ. फिर पाता नहीं कब मिलना हो." बस दादी की यही बात गणपति को पसंद नहीं आती थी, ख़ुशी के मौके पर भी दुनिया से छोड़ जाने की, भगवान के पास चले जाने की बिना-बात की बात ले कर बैठ जाती हैं. अच्छा खासा मूड ऑफ हो जाता है. "क्या दादी, तुम भी ना..." वाला भाव ले कर गणपति ने गाँव की राह की.
गाँव पहुच कर देखा की दादी बिलकुल ठीक-ठाक हैं और जब गणपति ने पूछा क्या दादी क्यों ऐसी उलटी-सीधी बातें करतीं हो कि फिर मिलना हो या न हो. तो दादी ने अपने बचे-कुछे दाँत निपोर कर कहा कि बेटा तुझे देखने को बहुत मन था इसलिए ऐसे ही कह दिया.
गणपति कहने लगे, "दादी ऐसे मत सताया करो, वैसे ही आजकल मैं बहुत परेशान हूँ."
"क्यों रे! तुझे क्या परेशानी हैं."
"बस है दादी! तुझे क्या बताऊँ?"
"अरे! तो और किसे बताएगा. बहू तो अब तक लाया नहीं."
"बहू कहाँ से लाऊं दादी! सुबह से शाम तक काम. पैसे भी नहीं कि मोटर साइकिल ले लूं, और तुम हो कि बहू लाने की बात करती हो."
"कितने की आती है मोटर साइकिल?"
"छोडो दादी, बहुत महंगी आती है."
"कितने की? लाख भर की?"
पुराने ज़माने की बात है, आज कल जैसा नहीं, मंदी का ज़माना था. गणपति हँसने लगा दादी के भोलेपन पर, "नहीं दादी, कोई नौलखा हार थोड़ी है. समझ लो अगर पुरानी लूँगा तो करीब आठ-दस हज़ार की और नयी बीस हज़ार की."
"तब तो तू नई ही लेना. अच्छा बता मोटर साइकिल आ गई तो फिर बहू भी ले आएगा ना?" दादी ने कहा.
गणपति ठंडी सांस भर कर बोला, "मजाक कर रही हो दादी. कहाँ से आएगा इतना पैसा?"
दादी कहने लगी,"उठ जा पलंग से और नीचे जो ट्रंक रखा खीच बाहर."
गणपति ने कौतुक भरे आश्चर्य से उठ कर ट्रंक बाहर खीचा. ट्रंक खोला तो उसमें मुचुड़े-मुचड़े बहुत सारे से रुपये ठुंसे थे.
गणपति का मुँह खुला का खुला रह गया, कहने लगा, "दादी इतने रुपये कहाँ से आये?"
दादी बोली, "बताती हूँ, पहले गिन तो सही."
गणपति आज भी यह कहानी सुनाते-सुनाते भावुक हो जाते हैं. उन्हें अच्छी तरह से याद है, जब गिना तो बाईस हज़ार तीन सौ नौ रुपये थे. गणपति ने दादी को प्रश्नवाचक नज़रों से देखा.
दादी कहने लगी "अरे, तेरे भेजे हुए ही रुपये हैं. ले ले, तेरी कमाई के ही हैं."
"यह वह पैसे हैं जो मैं भेजता था तुम्हें हर महीने."
"तो और कहाँ से आयेंगे?"
"और दादी तुम खर्च नहीं करती थीं? ऐसे ही रख लेती थी."
"मुझे तो ज़रुरत थी नहीं, पर तुझसे कहती मत भेज तो यह भी खर्च कर देता. देख ले बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है. अब ले आ ना मोटर साइकिल."
"नहीं दादी, यह रुपये तो तेरे हैं."
"मैं क्या करूगीं? तेरे हैं, तेरे काम आ जायेंगे, वरना यही रखे रहेंगे."
गणपति बताते हैं की जब उन्होंने पहली बार अपनी दादी के सौगात वाले पैसे से मोटर साइकिल खरीदी और उस पर बैठ कर अपने गाँव गए तो उन्हें लगा की सारी दुनिया उनके क़दमों में है. पर इस तरह अनजाने में गणपति की दादी ने सिर्फ गणपति को ही नहीं, हम सबको एक अज़ीम सीख दी. उन्हें पाता ही नहीं की उन्होंने मेरे जैसे कितने लोगों को बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है यह बिना बड़ा उपदेश दिए कैसी सरलता से सिखा दिया. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद दादी जी.
Saturday, May 01, 2010
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2 comments:
बहुत सही!!!!...और ये कला शायद हम हिन्दुस्तानी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं मितव्ययता और धन संचय की बात, चाहे बेटी की शादी या बेटे की पढाई......
बहुत अच्छा लिखा!
Very nice! Absolutely fantastic!
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