Saturday, May 22, 2010

जो सोया सो रोया

जब पहली
बार मैंने तुग़लक के बारे में सुना था तो मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा. उन दिनों मेरे पिताजी का तबादला बनारस से गाज़ीपुर का हो गया था. हम सब बनारस में बहुत आराम से रह रहे थे, और यह मेरे बड़े होने के बाद का पहला मौका था जब हमारा परिवार एक जगह से दूसरी जगह जाने की बात कर रहा था. यदि आपका कोई अनुभव रहा है जब आपके परिवार को lock-stock-n-barrel के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान स्थान्तरित होना पड़ा हो, तो आप जान सकेंगे कि हम किस मनःस्थिति से गुज़र रहे थे.

मुझे यह ही समझ में नहीं आ रहा था कि जब मेरा स्कूल 'इत्ता-अच्छा' है, अपना घर 'इत्ता-अच्छा' है, 'अबी-अबी' तो भैया के दोस्तों ने मुझे अपने साथ गेंद-बल्ला खिलाना शुरू किया है, तो यहाँ से नई जगह क्यों जाएँ? फिर उस दिन मैंने सुना माँ पापा से कह रहीं थी, "आप भी ना जी, तुग़लक की तरह बात कर रहे हैं. आपको promotion और independent charge मिल रहा है तो आप जाइये, हम लोगों की दिल्ली उजाड़ कर दौलताबाद क्यों ले जा रहें है." माँ भी न कभी-कभी ऐसी भाषा में बात करती थीं की मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. यह तुग़लक कौन हैं? उनका पापा के ट्रान्सफर से क्या मतलब? हम तो बनारस से गाज़ीपुर जा रहें हैं ना. तो, माँ बनारस को दिल्ली और गाज़ीपुर को दौलताबाद जैसा क्यों बता रहीं है? दिल्ली तो मुझे पता है, पर यह दौलताबाद कहाँ है? हो सकता है, अगर बनारस दिल्ली हुआ, तो गाज़ीपुर दौलताबाद हुआ. कौन जाने?
शाम को गेंद-बल्ला खेलते हुए जब भैया के सारे दोस्त लोग मुझे बच्चे की तरह ट्रीट करने लगे तो मुझे लगा की मुझे कोई ऐसी बात कहनी होगी की जिससे इन लोगों को यकीन हो जाये की मैं बड़ा हो गया हूँ, और हो सकता है फिर वह लोग फील्डिंग के साथ-साथ मुझे बेटिंग करने का भी चांस दे दें. तो बिना किसी रेफेरेंस के मैंने कहा की "पता है हमारे पापा हम सबको गाज़ीपुर ले जा रहें है बिलकुल तुग़लक की तरह." भैया मुझसे छह साल बड़े हैं, उन्हें पता था तुग़लक कौन था और उनकी समझ में ही नहीं आया कि मैं यह कह क्या रहा हूँ. सारे दोस्तों के सामने मेरी ऐसे अल्लल-टप्प बात सुन कर वह झुंझला गए. "पता नहीं कहाँ से क्या सुन लेता यह संजय, फिर बिना सोचे-समझे कुछ का कुछ बोलता रहता हैं." मैंने भी अड़ गया, "नहीं, मैंने खुद सुना, माँ कह रही थी."
भैया को और कुछ तो समझ में आया नहीं, कहने लगे, "चल हट! ऐसा माँ क्यों कहेंगी? चल माँ के पास."

"चलो!" मैं भी अड़ गया.

भैया ने गुस्से में तीनों विकिट उखाड़ कर बगल में दबा लिए. खेल हुआ एकदम से बंद, सारे दोस्त चुपचाप चले अपने-अपने घर, और हम दौनों लाल-मुँह लिए वापिस अन्दर के आंगन में पहुंचे, जहाँ भैया ने माँ से मेरी शिकायत लगाई. माँ ने मुझे बुलाया और पूछा, "क्यों रे, क्या हुआ? क्या बोला भैया के दोस्तों से?"

मुझे लगा की आज कुछ गड़बड़ हो गई. पता नहीं क्यों जब-जब मैं सच बोलता हूँ, ऐसा ही क्यों होता है. मैंने भी ख़ूब तेज़ी से अपनी तरह से सारी बात बताई कि "असल में" हुआ क्या था.

अजीब से बात हुई. मेरी बात सुन कर माँ हंसने लगी. बोली, "पता भी है तुग़लक कौन था?"

"तुम बताओगी नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा?" मैं रुआंसा तो था ही, बिलकुल रोने-रोने को हो गया.

"अच्छा, जाओ, हाथ-पाँव धो कर खाना खा लो. मैं रात में तुम्हें तुग़लक कहानी सुनाऊँगी."

भैया ने कहा, "माँ, समझाओ ना इसको. मेरे सारे दोस्तों के सामने..."

"अच्छा-अच्छा. मैं समझा दूँगी."

मैं रोते-रोते हाथ-पाँव धोने चला गया.
वह रात मैंने मोहम्मद बिन तुग़लक के साथ बितायी. माँ इतनी अच्छी कहानी सुनाती थी कि लगा तुग़लक एकदम से नज़रों के सामने आ गया.

"एक बार, बहुत पहले दिल्ली में एक पागल सुल्तान था. जो सोचता था, वही करता था. किसकी हिम्मत कि रोक ले. एक बार उससे किसी ने एक सुनार की शिकायत की वह सुनार कहता फिरता है 'सुल्तान क्या चीज़ है? अरे! देश में तो सिक्का तो मेरे सोने का चलता है. देश तो सुनार ही चला रहा है. सुल्तान तो नाम का है.' बस यह सुनना था की पागल सुल्तान का तो सिर फिर गया. बोला, 'हिंदुस्तान का सुल्तान कौन है? मैं या वह सुनार?' बस वह दिन का दिन कि सुल्तान ने देश में सोने के सिक्के कि जगह चलवा दिया चमड़े का सिक्का."

"चमड़े का सिक्का कैसा होता है, माँ?"

"अरे, न किसी ने पहले कभी देखा ना सुना. अब कहीं नहीं होता चमड़े का सिक्का. बस वह तो सुल्तान का फरमान था तो कुछ दिन चल भी गया."

"फिर?"

"फिर, धीरे-धीरे सारे सोने के सिक्के वापिस आ गए. वही अशर्फी, और वही दीनार."

"माँ, तुमने मुझे कब्बी भी कोई अशर्फी, दीनार नई दिकाई." जब माँ मुझे सुलाते-सुलाते कहानी सुनाती थी तो मैं छोटा बच्चा बन जाता था.

"तुम जब बड़े हो कर अच्छे काम करोगे तो भगवान जी तुम्हें अशर्फी, और दीनार देंगे."

"अच्छा! फिर?"

"फिर?"

"फिर सुल्तान का क्या हुआ?"

"अच्छा, सुल्तान का हुआ यह कि पश्चिम से तुर्क, उत्तर से मंगोल और मुग़ल राजा और लुटेरे आते थे और दिल्ली में लूट-पाट करते थे. सुल्तान कुछ भी नहीं कर पाता था."

"फिर?"

"फिर, सुल्तान ने सोचा कि अगर वह अपनी राजधानी दिल्ली की बजाय कहीं दक्खिन में ले जाये तो लुटेरे वहाँ तक आसानी से नहीं पहुँच पाएंगे."

"अच्छा! फिर?"

"फिर, बस वही पागलपन. सुल्तान का फरमान जारी हो गया की फलां-फलां दिन दिल्ली के सभी आम और ख़ास का तबादला दौलताबाद होगा."

"तबादला क्या?"

"ट्रान्सफर."

"ओह! जैसा हमारा हो रहा है."

"हाँ वैसा ही."

"फिर लोगों ने कहा नहीं कि हम नहीं जायेंगे, जैसे तुम कह रहीं थी"

"बेटा यही तो फर्क है. पापा से तो बात कर लो और वह सुन भी लें. पर उस पागल सुल्तान से कौन कहे और किसकी बात वह सुने? बस मन ने आया तो आया. सबको जबरदस्ती ले गया तुग़लकबाद."

"तुग़लकबाद नहीं माँ, दौलताबाद!" मैंने टोका. माँ को जब नींद आने लगती थी तो कुछ का कुछ बोलती थी.

"हाँ, हाँ वही. सबको ले गया दौलताबाद. यहाँ तक की कुत्ते-बिल्ली को भी ले गया. आधे तो रास्ते में ही मर-खप गए. कोई लंगड़ा आदमी किसी तरह से एक टांग पर घिसटता हुआ दौलताबाद पंहुचा. बीमार चीखते-चिल्लते पहुंचे. पर बेरहम सुल्तान को रहम नहीं आया."

"माँ, हमको भी घिसटते-घिसटते गाज़ीपुर जाना पड़ेगा?"

"नहीं बेटा, तुम्हारे पापा कोई तुग़लक हैं क्या?"

"फिर तुम उनसे कल ऐसा क्यों कह रही थी की आप तुग़लक की तरह बात कर रहे है."

"बेटा, घर में तो बहुत से बातें होती रहती है. पूरी बात सुने बगैर बाहर जा कर ऐसी ही थोड़ी न बोलते हैं. अच्छे बच्चे तो सोच-समझ कर बोलते हैं."

"अच्छा माँ!"

"तो अब सो जाओ."

उस दिन तो मैं तुग़लक के बारे में सोचते-सोचते सो गया. बहुत सारे से दिन बीत गए. मैंने इतिहास में १४ वीं शताब्दी के मुग़ल सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के बारे में पढ़ा. इतनी मजेदार कहानी किसी और सुल्तान की नहीं थी. बहुत मज़ा आया. फिर जब और बड़े हुए तो एक दिन ऐसा आया कि मुझे स्वम अपनी राजधानी को यू पी से दिल्ली ले जाना पड़ा. पढाई का मामला था, ज्ञान तो माँ दे दें, पर विज्ञान पढ़ने मुझे दिल्ली जाना ही पड़ा. पढ़ने गए थे विज्ञान के मंदिर आईआईटी में, पर वहाँ मुलाकात हुई बहुत से नए लोगों से, जिनमे से कुछ का कोई दूर-दूर तक विज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं था. उनमे कोमरेड भैया भी एक थे. उनका शौक नाटक, उनका काम नाटक पर विरोधभास देखिये. वह निवास करते थे विज्ञान के मंदिर आईआईटी के विध्याचल हॉस्टल में. माओ के बारे में, चर्चिल के बारे में, नेहरु और लोहिया के बारे में कोमरेड भैया को सब पता था. सिर घुटा कर उस पर लाल पेन से कुल्हाड़ा-हंसिया बना कर, लाल कपड़े पहन कर जब वह हॉस्टल के कमरे से बाहर निकलते थे तो सब उन्हें या तो "तुग़लक" या "चो (रामास्वामी)" के नाम से पुकारते थे. सबको पता था कि मुझे इतिहास पढ़ने का जूनून है, तो सब मुझसे तुग़लक के बारे में पूछते थे और मैं खोज-खोज कर तुग़लक की कहानियां सुनाया करता था. हमारा पूरा ग्रुप "चो-तुग़लक" के नाम से जाना जाता था.

फिर एक दिन सुना की हल क़ाज़ी गिरीश कर्नाड का ड्रामा तुग़लक के कर जा रहे हैं. काजी साब का निर्देशन और गिरीश कर्नाड का नाटक, वह भी कमानी ऑडिटोरियम में. इसे देखने तो जाना ही जाना है. पर टिकेट खरीदने पैसे किसके पास हैं? पैसे होते तो बीडी की जगह सिगरेट न पीते और टेस्टी-टोस्ट की जगह मुगलाई परांठा न खाते? ऐसे में कोमरेड भैया बहुत काम आते थे. पता नहीं क्या-जुगाड़ किया कि हम सब जा पहुंचे तुग़लक का ड्रेस रिहर्सल देखने. नीचे के थिएटर में बोरा बिछा कर हम सब पसर गए और करीब चार घंटों तक, जब तक ड्रेस-रिहर्सल चलता रहा, चुपचाप बैठे सम्मोहित से देखते रहे. मैं एक बार भी बाथरूम जाने के लिए नहीं उठा. यह बात उस बात के सामने फीकी पड़ गई कि 'चो' को सारे समय में एक बार भी सिगरेट पीने कि तलब नहीं हुई. एक बार भी नहीं--कमाल ही हो गया. हममे से कोई भी रात में ठीक से सो नहीं सका. लगा इतिहास में वापिस पहुँच गए.

"अरे! काजी साब खुद उठ कर हम लोगों के पास आये, पूछा आप आई-आई-टी वालों को कैसा लगा?"

"पहली बार लगा कि सुल्तान उतना क्रूर और पागल नहीं था जितना हमारी इतिहास कि किताब में बताया गया था."

फिर तो बीती रात के अधजले माहौल में एक जुनूनी, इखलाकी, तारीखी और फलसफे से भरा लम्बा वाद-विवाद छिड़ गया.

मैं तो यह सब भूल भी गया था पर याद आ गया, जब कुछ दिन पहले मेरे करीबी दोस्त अरविन्द भाई ने मुझे बताया कि नाटक वाले तुग़लक का मंचन कर रहें है.

"कब? कौन कर रहा है निर्देशन? तुग़लक कौन बन रहा है?" मेरी तो बचपन और जवानी जैसे लौट आई.

पता चला कि नाटक का प्रोडक्शन तो प्रदीप जी कर रहें है. मनीष साबु कर रहे है निर्देशन.

"अच्छा! और कब है मंचन?"

"जून में? यहाँ? बे एरिया में?"
मैं इतना उत्तेजित रहा हूउँगा कि मेरे शोर से ऊपर से परितोष नीचे आ गया और किचेन से रीना.

"क्या हुआ?"

"अरे, प्रदीप मौसाजी गिरीश कर्नाड के तुग़लक का मंचन यहाँ बे एरिया में कर रहे हैं."

"अच्छा वही तुग़लक जो आपने अपने आई-आईटी के टाइम में देखा था?"

"वही!"

"तो यहाँ के लोगों को कुछ पता भी होगा उसके बारे में?"

"अगर भारत में बड़े हुए हैं, और उन्हें इस बात में रूचि है कि कैसे किसी सिरफिरे मगर दूरंदाज़ लीडर की दूरंदाज़ी से किसी मुल्क को क्या फर्क पड़ता है, तो वह इस नाटक को देखने के लिए ज़रूर उत्साहित होंगे."

मैंने देखा कि परितोष बहुत ध्यान से मेरी बात सुन रहा है. यहाँ पैदा हुआ है, पर उसने तुग़लक के बारे में सुना है. वाह! अगर उसकी तरह से और भी नौजवान लोगों ने तुग़लक के बारे में सुना है तो शो तो हाउस-फुल जायेगा. अरविन्द भाई ने बताया कि इस नाटक में इंग्लिश सब-टाईटिल होंगे ताकि नौजवान और हिंदी-उद्रू ना बोलने वाले भी इसका मज़ा उठा सकें. और, इस बार नाटक तुग़लक के सात-सात मंचन कर रहा है."

"कब, कहाँ?"

"आप भी संजय भाई! बच्चों की तरह बात करते हैं. अरे Visit http://www.naatak.com/current_event.html और टिकेट बुक करा लें. यहीं सेन-होज़े में कोजी-सा थिअटर है, वहीँ. अभी खरीदेंगे तो अच्छी सीट मिलेगी, वर्ना बोरे पर बैठ कर देखने का मौका पता नहीं मिले या न मिले. आप ही कहते हैं न, 'जो सोया सो रोया' "

"अच्छा! मेरा तेल मेरे ही सिर?"

"जो आपसे पाते हैं, वही तो देंगे आपको."

अरविन्द भाई से कौन जीते? आप भी टिकेट बुक करा लें ना. देखे तुग़लक शाही अंदाज़ में. वहीँ कहीं मैं आपको बोरे पर बैठा मिलूंगा. सच्ची!

Monday, May 10, 2010

जैसी हरि-इच्छा

माँ कहानी सुनाती थी तो आँखों के सामने जैसे चलचित्र-सा बन जाता था. कहानी के किरदार मेरी आँखों के सामने कहानी जीते दिखाई देते थे और लगता था कि मैं भी कहानी से जुड़ गया हूँ. कभी माँ कहानी सुनाते-सुनाते भावुक हो जाती और कहानी के किरदार की त्रासदी पर दो आंसू बहा लेती. मैं भी रोने लगता तो कहती, "हट, कोई ऐसे रोते हैं? यह तो कहानी है." पर मेरा मन नहीं मानता था. ऐसे सच्चे किरदार सिर्फ कहानी में ही नहीं हो सकते. मेरे लिए तो वह जीते-जागते इंसान थे, और एक बार जो कहानी से चल कर मेरे जेहेन में आ जाते, तो फिर वहीँ घर कर लेते थे. कुछ तो आज भी मेरे साथ हैं. उनमे ही एक हैं सत्यदेव जी.

सत्यदेव बेचारे गरीब से किसान थे, पर कुछ बातें दूसरे गाँव वालों से एकदम अलग थीं. माँ बताती थी कि चाहें सत्यदेव जी कि जान पर ही क्यों न बन आये, मजाल है कि वह झूठ बोल दे. वह एक छोटे-से, मझोले कद वाले, देखने में एक दम से साधारण से दिखने वाले गवईं से इंसान थे. पर उनमे था बला का इखलाक और चेहरे पर था सत्य का तेज. कितनी बार ऐसा हुआ कि सत्यदेव ने सच का साथ दिया और अपना बहुत सारा सा नुकसान कर लिया. पर कभी सच से डिगे नहीं.

माँ मेरे बालों में हाथ फेरती रहती और कहानी सुनाती जाती. मैं "हूँ-हूँ" करके, "फिर क्या हुआ" "तो फिर" या "अच्छा" कर-कर के कहानी आगे बढाता जाता. मुझे पता है आप कह रहे हैं, "अच्छा! ठीक है, यह तो सभी बच्चे करते हैं, आगे बताओ." अब आप कह रहे हैं तो सुनिए. बीच-बीच में हूँ-हूँ का हुंकारा करते जाईयेगा ताकि मुझे पता चले कि आप ऊँघ नहीं रहे और कहानी सुन रहे हैं.

तो कहानी तेज़ी से आगे बढती. माँ को कहानी ख़त्म करके और काम भी तो करने होते थे. तो बस, सुनिए. सत्यदेव जी की दो सुन्दर-सुघड़ सी लड़कियां थी जिनका ब्याह अपनी औकात के मुताबिक सत्यदेव और उनकी पत्नी ने किया. एक को मिला पास के गाँव का कुम्हार और दूसरी के पति उसी गाँव में एक और किसान का लड़का. मैं कहता, "अरे माँ, सत्यदेव जी की दो लडकियां थीं, और उनकी शादी हो चुकी थी. तो फिर तो सत्यदेव जी बूढ़े से दीखते होंगे."

"नहीं, सत्यदेव जी के पास था सत्य का तेज. कौन कह सकता था कि वह ४५-५० साल के हैं? सादा खाना खाते थे, ताज़ा दूध-दही पीते थे. मेहनत करते थे, और भगवान के भजन करते थे. इसलिए देह के और मन के मज़बूत बन्दे थे."

"अच्छा!" और मेरे माँ में सत्यदेव जी का खाका खिच जाता. आज भी अगर वह सामने आ जाएँ तो मैं उन्हें हजारों में पहचान लूँगा. चलिए वापिस कहानी पर चलते हैं. उस साल, जब भादों कि बदरी छाई, सत्यदेव की पत्नी की आँखे भर आई. कहने लगी, "चलो, चल के देख के आयें कि मेरी प्यारी बेटियां कैसी हैं. अपने ससुराल में खुश तो हैं न. यहाँ होती तो अमराई में झूला डालते. कितना पसंद था बडकी को झूला झूलना. और छोटी कैसा प्यारा गाती थी झूले के गीत! सच मैं तो अकेली हो गई बडकी-छुटकी के ब्याह के बाद." माँ यह बताते-बताते भावुक हो जाती. फिर एक ठंडी सांस ले कर कहती, "बेटियों को तो एक ना एक दिन दूसरे घर जाना ही होता है, और जब बेटी विदा हो कर अपने घर चली जाती है, तो उसके माँ-बाप का मन तो सावन-भादों की बदरी की तरह भर ही आता है."

मुझे लगता है माँ को अपनी विदाई या फिर एक न एक दिन भविष्य ने होने वाली बेटियों की विदाई शूल की तरह मन में चुभती थी और वही चुभन कहानी सुनाते-सुनाते आंसू बन कर व्यक्त होती थी. आज तो मैं इतना सोच सकता हूँ, पर तब? तब तो बस मैं कहानी की रवानी में बहता चला जाता था.

कहानी में डूब कर, आप ही तरह, मैं भी कहता, "तो फिर?"

"फिर, सत्यदेव जी को भी अपनी प्यारी बिटियाएँ याद हों आई. और उन्होंने ठान लिया की आज तो उनसे मिल के ही आते हैं. तो सतदेव जी और उनकी पत्नी तैयार हो कर घर से बाहर निकले."

"सतदेव नहीं, माँ! सत्यदेव."

"हाँ, हाँ, वही. एक ही बात है."

पर मेरे माँ में तो सत्यदेव जी का तसव्वुर पूरा बन चुका होता था. "एक बात कैसे हैं? माँ!"

"अच्छा तो चलो, सतदेवजी नहीं, स त्य दे व जी तैयार हो कर, जो भी घर में था अनाज, घी, मिठाई ले कर पहले चले बडकी से मिलने. बडकी का गाँव था दूर और सिर पर थी भादों की धूप, जिसमे हिरन भी काला हो जाये. कभी बदरी छा जाये तो कुछ चैन आ जाये, वरना फिर चिलचिलाती धूप. दुपहर होते-होते, बादल घिर आये और एक-आध बूँद भी पड़ गई. किसी तरह चलते-चलते, थके-हारे, वह दोनों बडकी के घर पहुचें. बडकी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. हिरन के छौने की तरह हुलस कर दौड़ी आई और लग गई अपने माँ-बाप के गले. उसके ससुराल वालों ने भी ख़ूब अवोभागत की सत्यदेव और उनकी पत्नी की. शाम को मौका पा कर सत्यदेव ने बडकी से पूछा, "तू खुश तो है न. कोई कष्ट तो नहीं हैं तुझे यहाँ " तो बडकी बोली, "नहीं बाबा! मुझे कोई कष्ट नहीं है. सास तो माँ जैसी है और पिता जी आप जैसे. यह तो इतने सीधे हैं की क्या बताऊँ. चुपचाप बस रात-दिन बरतन बनाते रहते हैं. मैं अपनी सास माँ के साथ जा कर हाट में बर्तन बेच देती हूँ. उस कमाई से घर बहुत अच्छी तरह चल जाता हैं. बस आप एक काम कीजियेगा कि जब आप पूजा करें तो भगवान जी से यह कहियेगा कि अभी कुछ दिन बरसात ना हो. इन्होने इतने अच्छे बर्तन बनाये हैं, जो अभी सूखे नहीं हैं. राखी के दिन बड़ा हाट लगेगा. अगर उससे पहले बरसात हो गई तो सारे बर्तन भीग जायेंगे और एक भी बिक नहीं पायेगा."

सत्यदेव जी ने कहा कि वह ज़रूर भगवान ने बडकी के लिए प्रार्थना करेंगे.

"तो फिर?" मैंने पूछा.

"फिर? फिर वहाँ से वह लोग चल पड़े छुटकी से मिलने. कहीं से वापिस आने का रस्ता तो वहाँ जाने के रास्ते से छोटा होता है न, तो वह दोनों शाम होते होते वापिस गाँव पहुँच गए. पहले सीधे गए छुटकी के यहाँ. छुटकी गाय को भूसा और खली खिला रही थी, देखते ही दौड़ी आई. उसके ससुराल वाले भी इतनी आवाजें सुन कर बाहर निकाल आये. शाम हो गई थी तो सब बाहर चबूतरे पर ही बैठ गए और फिर दुःख-सुख के चर्चे होने लगे. मौका देख कर सत्यदेवजी ने छुटकी से पूछा कि "तू खुश तो है ना बेटी?" तो छुटकी ने कहा "बहुत! ये तो इतने मेहनती हैं, सारा-सारा दिन खेत और खलिहान में जुटे रहते हैं. बस, आप भगवान से यह कहियेगा कि इस भादों बारिश जम कर हो, वर्ना सारी फसल चौपट हो जाएगी और फिर महाजन से उधर लेना पड़ेगा."

सत्यदेव जी ने छुटकी को भी पूरा विश्वास दिलाया कि वह ज़रूर भगवान ने उसके लिए प्रार्थना करेंगे.

सत्यदेव कि पत्नी को मन में तभी खटका हुआ कि ये कैसे बडकी और छुटकी के लिए भगवान से प्रार्थना करेंगे? एक को चहिए बारिश ना हो, एक को चहिए कि ख़ूब जम के बारिश हो. ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकती हैं. पर वह बिचारी छुटकी के ससुरालवालों के सामने क्या बोलती? चुप रह गई.

यह सुन कर तो मैं भी सोच में पड़ जाता. बेचारे सत्यदेव जी. "तो अब सत्यदेव जी क्या करेंगीं, माँ? दोनों बातें तो नहीं हो सकती ना."

"हाँ. यही बात तो उनकी पत्नी को भी खाए जा रही थी. छुटकी के यहाँ से लौटते-लौटते रात हो गई थी और रस्ता ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था, तो सत्यदेव जी ने अपनी पत्नी से कहा, "भागवान. मेरे पायेंते-पे-पांयता रखते हुए सावधानी से चलती चलो.""

"माँ! पायेंते-पे-पांयता क्या?"

"जहाँ-जहाँ मैं पैर रक्खूं, वहीँ तुम भी रखो, तो हो गया पायेंते-पे-पांयता."

"अच्छा! फिर?"

"फिर! सत्यदेव के पायेंते-पे-पांयता रख कर चलते हुए उनकी पत्नी बोली, "सुनिए जी? आप बडकी और छुटकी दोनों के लिए एक साथ कैसे भगवान से प्रार्थना करेंगे?"

सत्यदेव जी बोलो, "हाँ! कठिन तो हैं, पर मैं कोशिश ज़रूर करूंगा."

"कोशिश? आपने तो दोनों को वादा किया कि उनके लिए आप भगवान से प्रार्थना करेंगे. आप तो कभी झूठ नहीं बोलते तो फिर?"

"नहीं, इसमें झूठ बोलने की क्या सवाल है?"

"तो फिर आप क्या कहेंगे भगवान से?"

सत्यदेव जी उस समय तो कुछ नहीं बोले. घर आ कर अपनी पूजा में भगवान जी के सामने बैठ गए और आँख बंद करके बोले, "भगवान! आज दोनों लड़कियों से मिले जा कर. दोनों आपने-अपने घर में खुश हैं. उन्हें खुश रखना. और हाँ, बडकी चाहती है की इस भादों में बारिश बिलकुल न हो. और छुटकी चाहती है की ख़ूब बारिश हो. तुम सर्व-ज्ञाता, सर्व-शक्तिमान परमेश्वेर हो, तुम्हें जो अच्छा लगे वह करो, हम तुम्हारी इच्छा को शिरोधार्य करेंगे."

मैं यह सुन कर चकरा गया. "यह क्या बात हुई माँ?"

माँ ने कहा, "देखो इस तरह सत्यदेव जी ने झूठ भी नहीं बोला. दोनों लड़कियों की बात भगवान जी तक पहुंचा दी और साथ-साथ हरि-इच्छा का सम्मान भी किया."

"तो फिर भगवान जी ने क्या किया?"

"जो भगवान जो को पसंद आया होगा वह किया होगा."

"क्या किया होगा?"

"जो हरि इच्छा. और हम सबको वह माननी पड़ेगी. बस उनके पायेंते-पे-पांयता रख कर चलना होगा."

तबसे आज का दिन है, मुझे कभी भी भगवान जी यह बात अच्छी नहीं लगी. जब भी इतनी अच्छी कहानी चल रही होती है, तो बीच में आ जाती है हरि-इच्छा. अब आप ही बताइए यह भी कोई बात हुई कि हमको हर हाल में हरि-इच्छा मनानी पड़ती है. माँ तो कहानी सुना कर सो गई, मेरी तो अब तलक बीच रात में नींद खुल जाती है, और देर तक सोचता रहता हूँ की उस भादों बरसात हुई होगी या नहीं? पता नहीं, पर जैसी हरि इच्छा!

आप पूछ रहे हैं कहानी खत्म? हाँ जी, कहानी खत्म! जैसी हरि इच्छा!

Sunday, May 09, 2010

माँ का अंदाज़

मुझे माँ से बस यही एक गिला रह गया कि उन्होंने मुझे कभी अपनी कोई रेसिपी नहीं दी. ऐसा नहीं था कि उनकी रेसिपीस कोई खुफिया होती थीं, या वह मुझे कोई रेसिपी देना ही नहीं चाहती थीं. पर बात यूं थी कि उनका रेसिपी देने का तरीका फर्क था, जिसे में लिख नहीं पता था.

"माँ! बताओ न, इतने अच्छे दम-आलू कैसे बनाती हो?"

"अरे! मरे दम-आलू बनाने में क्या है? बिना काटे पूरे-पूरे आलू बनाओ."

"हाँ, वह तो ठीक है. पर इसका मसाला भी तो कुछ फर्क है."

"हाँ, तो अंदाज़ से मसाला ज्यादा डालो, ज्यादा भूनो. और पानी कम डालो."

"वही मसाला?"

"हाँ वही! बस थोड़ा ज्यादा, और साथ में थोड़ा खड़ा मसाला भी."

खड़े मसाले का मसला वहीं छोड़ कर, अभी दम आलू में सादे आलू से कितना ज्यादा मसाला डालना है यह तय कर लें. तो सोच-साच के फिर पूछा, "माँ!"

"हाँ"

"एक बार पूरा बताओ न, कौन सा मसाला कितना डालना है. बिलकुल वैसे ही बताना जैसा "women 'n Home" की रेसिपी में आता है."

इस बात पर माँ को बहुत हंसी आती.

"तो अब, मरे दम-आलू बनाने के लिए तुम्हें केक बनाने जैसी पूरी रेसेपी चहिए. अरे, अंदाज़ से मसाले डालो, और भून-भान के छुट्टी करो."

"अरे माँ! छुट्टी तो मेरी हो गई. एक अंदाज़ तो मियाँ ग़ालिब का था, और एक है तुम्हारा. यह तो समझ में आता है कि क्या कहना चाह रही हो, पर मैं कैसे बनाऊं यह पता नहीं चलता? तुम बनाती हो तो इतना स्वादिष्ट, और मैं? अरे मुझे तो समझ ही में नहीं आता की कहाँ से शुरू करूँ."

इस बात पर माँ को दया आ जाती. वह कहती, "अच्छा, देखो आलू छील लिए? उन्हें पानी में भिगो दो."

"अच्छा. पर कितने आलू लूँ?"

"कितने जने हैं खाने वाले-उतने अंदाज़ से?"

"अच्छा, फिर?"

"फिर, प्रेशर कुकर में तेल डालो."

"कितना?"

"जितने आलू, उस अंदाज़ से"

"अच्छा, फिर?"

"फिर क्या? जैसे मसाला लेते हैं वैसे ले कर, पीस लो. जीरा, धनिया, मिर्च और हल्दी."

"कितना-कितना?"

"जितने आलू बनाने हों उस अंदाज़ से."

"अच्छा, और आलू उतने, जितने जने खाने वाले..."

"हाँ! और खड़ा मसाला अलग से."

"यह खड़ा मसाला क्या बला है, माँ?"

"अरे, खड़ा मसाला नहीं पता? पूरा-पूरा मसाला."

"अच्छा-अच्छा. कौन-कौन सा? कितना?"

"जौन-जौन सा हो, अंदाज़ से डाल दो."

"अरे मगर कौन सा?"
...
यह वार्तालाप हर बार कुछ इसी अंदाज़ से बहुत देर तक चलता रहता. पर मैं कभी भी माँ जैसे दमदार दम-आलू बनाने कि रेसिपी नहीं पा सका. शायद मैं वैसे आलू बना ही ना सकूं जैसे माँ बनाती थी. आज इस "अम्मा दिवस" पर बस इतना संतोष है कि माँ ने अपना "अंदाज़" मुझे सिखा दिया. उसी अंदाज़ से मैंने जिंदगी जीयी. "जितने जने खाने वाले, उतने आलू लिए. और जितने आलू लिए उतना मसाला डाला." माँ की दुआ से जो भी, जितना भी मसाला मिला, उससे अपने अंदाज़ से खाना पकाया, खाया-खिलाया; और यह जीवन बिना रेसिपी के भरपूर जिया.

माँ तुझे सलाम!

Monday, May 03, 2010

"बोले सो कुंडा खोले"

खाने को मेज़ पर बैठ कर खाने का प्रचलन तो बहुत बाद में हमारे परिवार में आया. पहले ऐसे थोड़े ही था की अगर दाल में नमक कम है तो अपने पास बैठे व्यक्ति से कहा कि, "कृपया, क्या आप नमक उठाने की ज़हमत करेंगे?" और नमकदानी ले कर, धन्यवाद दे कर, बहुत शिष्टाचार-पूर्वक अपनी दाल में नमक छिड़क लिया. जब आप रसोई में बैठ कर खाना खा रहे होते है, और आपको दाल में नमक कम लगता है, और आपने जो कहा की इसमें नमक कम है तो आप फसें. अब बाकी सारे लोग जो चुपचाप कम-नमक की बेस्वाद दाल सपोड़ रहे थे, एकदम से चिल्लायेंगे, "जो बोले सो कुंडा खोले." अब आपको मिसरानी जी के पास जा कर नमक मांगना पड़ेगा.

यह कोई आसन काम तो होता नहीं था. आपको मिसरानी जी के पास जा कर, बिलकुल पास जा कर, हलके से मिन्नत भरे स्वर में यह याचना करनी पड़ती थी कि "मिसरानी जी, हमें आज दाल में नमक कम लग रहा है." मिसरानी जी इस बात को बिलकुल हँस कर नहीं ले सकती थी कि कोई उनकी बनाई हुई दाल में मीन-मेख निकाल दे. हालाँकि यह बात जानते हुए, आपने बहुत मक्खन लगाते हुए केवल यही कहा था कि आपको आज दाल में नमक कम लग रहा है. वह भी ऐसे कहा कि लगे इसमें मिसरानी जी का तो कोई दोष हो ही नहीं सकता. यह समस्या तो हमारी है. पर क्या मिसरानी जी समझती नहीं है कि यह कल का छोरा, मेरे खाने में दोष निकाल रहा है. इसका बाप भी मेरे सामने कुछ कह नहीं सकता, और इसे देखो! चला आया नमक मांगने. बहुत झाँये-झाँये करने के बाद एक छोटी कटोरी में नमक तो मिल जाता था, पर जब तक उसे वापिस अपनी थाली तक ले कर जाएँ, उससे पहले ही उसको बाकी सारे लोग झपट लेते थे. यानि, बोले भी, कुंडा खोला भी पर गले मिला कोई और!

फिर पिटे-पिटाये एक दिन पहुँच गए माँ के पास. "क्या है यह माँ? एक तो मिसरानी जी कम नमक डालती है दाल में. बोलो, तो सब कहते हैं, 'बोले सो कुंडा खोले.' फिर दस बातें मिसरानीजी की सुनो, और फिर किसी तरह नमक ले कर आओ. बीच में दूसरे खानेवाले लूट लें. और कुल मिला कर नमक फिर भी ना मिले."

तो माँ हंसने लगी, "हर बार तुम ही क्यों बोलते हो?"

"तो और कोई बोलता ही नहीं ना, इसलिए!"

"अच्छा, तुम्हें वह कहानी सुनाई थी, उस आदमी की जिसने अपनी ही छवि के कई आदमी बना डाले थे."

"सच में? नहीं पाता, माँ! तुमने कभी सुनाई ही नहीं."

"अच्छा? तो सुनो, एक आदमी था, उसने बहुत किताबें पढ़ी, बहुत ज्ञान अर्जित किया और ऐसी विधि ईजाद की कि उसने अपने जैसे कई लोगों को बना दिया."

"अपने जैसे?"

"हाँ, बिलकुल. ऐसे कि कोई पहचान नहीं सके कि कौन असली और कौन नकली."

"फिर?"

"फिर क्या! फिर एक दिन उसका समय इस दुनिया में पूरा हो गया और यमदूत उसे लेने आये. अब यमदूत परेशान? कौन है असली, कौन है नकली? किसको ले कर जाएँ, किसकी मौत आई है. यमदूत सोच में पड़ गए. क्या करें कि पता लग जाये कि कौन असली है और कौन नकली. इतने में जब देर पर देर हुई तो चित्रगुप्त जी परेशान हुए. दौड़े-दौड़े गए ब्रह्मलोक की ओर, और भगवान से सब हाल कहा."

"फिर?"

"फिर? फिर भगवान समझ गए कि यह तो बात तो यमदूत के बस की नहीं, ना ही चित्रगुप्त के बस की. तो उन्होंने स्वम वहाँ जाने का विचार किया."

"स्वम भगवान ने?"

"हाँ! और भगवान ने जब सोचा तो बस वह प्रगट हो गए जहाँ यमदूत पहले से ही अपना सिर खपा रहे थे कि पता करें कौन असली है और कौन नकली है. भगवान जी ने इतने सारे एक से लोगों को देखा. फिर हँस के कहने लगे कि बहुत अच्छा काम किया है इस इंसान ने, पर देखो तो एक कमी रह गई, वर्ना बिलकुल पता ही नहीं लग पाता."

"अच्छा!"

"बस यह सुनना था कि जो असली आदमी था, जिसने अपनी बाकी प्रतिमूर्तियाँ बनाई थीं, उससे रहा नहीं गया. लपक के बोला, 'क्या कमी रह गई, बताइए तो ज़रा.'"

"भगवान जी ने हंस कर कहा, 'बस यही कमी रह गई. तुम चुप न रह सके. बोले सो कुंडा खोले. अब जाओ, इस लोक में तुम्हारा समय समाप्त हो गया.'"

"ओह-हो! तो मम्मी, अगर वह आदमी कुछ न बोलता तो नहीं मरता. तो बोलना ही गलत है. बस फीकी दाल खाते रहो, कुछ ना बोलो."

"नहीं. बोलो, मगर सोच के."

"सोच के? सोच के क्या?"

"यह तुम सोचो."

"मम्मी! माँ, माँ! ओफ्फो, बताओ तो सही."

"चलो सो जाओ. अब रात बहुत हो गई. कल सोचेंगे."

यही बात मुझे पसंद नहीं आती. बस यह कह देंगे कि सोचो, पर क्या सोचो यह बताएँगे नहीं. कितनी गलत बात है. अब मैं क्या कहूं कि फीकी दाल भी न खानी पड़े और कुण्डी भी ना खोलनी पड़े. सोचते-सोचते कब नींद आ गई पाता ही नहीं चला.

सुबह उठे तो कुछ-कुछ समझ में आया. उस रात जब खाना खाने बैठे तो पता चला कि फिर नमक कम है. पर अब तो मैं समझ गया था कि इधर मैं बोला तो उधर यमदूत, ना बोला तो फीकी दाल. तो मैंने सोच कर कुछ और ही कहा, "वाह! आज तो दाल कमाल की बनी है. नमक, मिर्ची, खटाई सब बिलकुल बढ़िया."

भैया ने आश्चर्य से देखा और बोले, "क्या बात कर रहे हो? नमक तो है ही नहीं."

सबसे जोर से मैं चिल्लाया, "बोले सो कुंडा खोले!"

पाता नहीं भैया ने माँ से वह कहानी सुनी भी थी या नहीं. पर इस बार बढ़िया दाल खाने की बारी मेरी थी, कुंडा खोल कर मिसरानिजी से डांट खाने की उनकी. मैंने देखा माँ भी मिसरानी जी के पास बैठी-बैठी मुँह पर आँचल रख कर हंस रही थीं.

३ मई, २०१०

Saturday, May 01, 2010

"बूँद-बूँद से घड़ा भरता है"

मेरे एक बहुत अच्छे मित्र हैं जो मेरे ऑस्ट्रलिया निवास के दौरान मेरे साथ काम करते थे. जो लोग मुझे और उन्हें जानते हैं वह तो तुरंत समझ ही जायेंगे कि किसकी बात कर रहा हूँ. पर बाकी दूसरों कि सुविधा के लिए चलिए उन्हें गणपति बुला लेते हैं. गणपति एक अदभुत प्रितिभा संपन्न व्यक्तित्व के मालिक हैं. वैसे तो महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में उसका जन्म हुआ. जन्मजात उसकी गणित की प्रतिभा भरपूर थी. इस बात को उनके गाँव के छोटे से स्कूल के किसी अच्छे से अध्यापक ने पहचाना और उन्हें आगे पढ़ने का वजीफा दिलवाया. एक बार गणपति साईकिल पर बैठ कर अपने गाँव से १०-१५ किलोमीटर दूर एक बड़े कस्बे में पढ़ने क्या गए, भारत के एक बड़े संस्थान से एम् टेक करके ही गर्व के साथ वापिस आये.

गणपति बताते हैं की उसकी दादी जी, जो अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी, उसको बहुत पसंद करती थीं और उसकी सारी अच्छाइयों और बुराइयों से परिचित थी. गनपत में बुराई? जी हाँ, हम सब में होती है, उसमे में भी थी. उसमे एक बुराई यह थी की कोई चीज़ नई मार्केट में आई, गणपति को वह मांगता ही मांगता है. जब तक खबर आये की बाज़ार में एक नया गेजेट आया है, गणपति उसका डीमोंसट्रेशन कर रहा होता था. इस बात का अंदाज़ा उसकी दादी को था, पर वह उसे उसकी इस आदत को कैसे भी छुड़ा पाने में सफल नहीं हुई.

ख़ैर, गणपति बताते हैं कि जब उसकी जॉब पुणे में लगी तो वह दादी जी का आशीर्वाद लेने गए. दादी जी एक बहुत ही साधारण से घर में सात्विक तौर-तरीके से रहती थीं. किसी प्रकार उनका गुजर-बसर होता था. गणपति ने कहा, "दादी, तुम्हारी छत से बरसात का पानी टपकता है, फर्श टूट गया है, खिड़की भी लुंज-पुंज हो गई है, ऐसे कैसे चलेगा." दादी ने कहा, "बेटा, मैं तो ठीक करवा लूं, पर पिछली बार जब राज-मजदूर को बुलाया था तो वह कहते थे कि पैसे बहुत लगेंगे, और मेरे लिए तो ऐसे ही ठीक है."

गणपति को उसकी बात बिलकुल रास ना आई. "कहने लगे अब तुम्हारा पोता कमाता है तो आई! तुझे चिंता करने का नहीं है. मैं हर महिने पैसा भेजेगा. तुम बस सब ठीक करो लो."

उस दिन का दिन था कि गणपति हर महीने दादी को २५०-३०० रुपये भेजते रहे. थोडा बहुत दादी का घर ठीक भी हो गया, पर दादी फिर भी वैसे ही मितव्यता के साथ गुजर-बसर करती रहीं. ट्रेनिंग ख़तम होने के पांच साल बाद, गणपति की कम्पनी ने उसका ट्रान्सफर फैक्ट्री से हेड ऑफिस कर दिया. बहुत बड़ा प्रमोशन था, गणपति माना भी ना कर सके, पर बहुत दिक्कत में आ गए. ऑफिस जाने के लिए ऑफिस की ही एक बस सुबह-सवेरे उन्हें हेड ऑफिस ले जाये और फिर गई रात तक उन्हें वापिस घर छोड़े. गणपति की सारी दिनचर्या बदल गई. हफ्ते में छह दिन काम, बाज़ार हाट करने का भी समय नहीं. पर मोटर-साईकिल खरीद लें इतने पैसे भी तो पास नहीं. सारा पैसा तो फालतू के गेजेट्स और साजो-सामान में लगा चुके थे.

एक दिन दादी ने बुला भेजा कि "भई तीज-त्यौहार का समय है, आ के मिल जाओ. फिर पाता नहीं कब मिलना हो." बस दादी की यही बात गणपति को पसंद नहीं आती थी, ख़ुशी के मौके पर भी दुनिया से छोड़ जाने की, भगवान के पास चले जाने की बिना-बात की बात ले कर बैठ जाती हैं. अच्छा खासा मूड ऑफ हो जाता है. "क्या दादी, तुम भी ना..." वाला भाव ले कर गणपति ने गाँव की राह की.

गाँव पहुच कर देखा की दादी बिलकुल ठीक-ठाक हैं और जब गणपति ने पूछा क्या दादी क्यों ऐसी उलटी-सीधी बातें करतीं हो कि फिर मिलना हो या न हो. तो दादी ने अपने बचे-कुछे दाँत निपोर कर कहा कि बेटा तुझे देखने को बहुत मन था इसलिए ऐसे ही कह दिया.

गणपति कहने लगे, "दादी ऐसे मत सताया करो, वैसे ही आजकल मैं बहुत परेशान हूँ."

"क्यों रे! तुझे क्या परेशानी हैं."

"बस है दादी! तुझे क्या बताऊँ?"

"अरे! तो और किसे बताएगा. बहू तो अब तक लाया नहीं."

"बहू कहाँ से लाऊं दादी! सुबह से शाम तक काम. पैसे भी नहीं कि मोटर साइकिल ले लूं, और तुम हो कि बहू लाने की बात करती हो."

"कितने की आती है मोटर साइकिल?"

"छोडो दादी, बहुत महंगी आती है."

"कितने की? लाख भर की?"

पुराने ज़माने की बात है, आज कल जैसा नहीं, मंदी का ज़माना था. गणपति हँसने लगा दादी के भोलेपन पर, "नहीं दादी, कोई नौलखा हार थोड़ी है. समझ लो अगर पुरानी लूँगा तो करीब आठ-दस हज़ार की और नयी बीस हज़ार की."

"तब तो तू नई ही लेना. अच्छा बता मोटर साइकिल आ गई तो फिर बहू भी ले आएगा ना?" दादी ने कहा.

गणपति ठंडी सांस भर कर बोला, "मजाक कर रही हो दादी. कहाँ से आएगा इतना पैसा?"

दादी कहने लगी,"उठ जा पलंग से और नीचे जो ट्रंक रखा खीच बाहर."

गणपति ने कौतुक भरे आश्चर्य से उठ कर ट्रंक बाहर खीचा. ट्रंक खोला तो उसमें मुचुड़े-मुचड़े बहुत सारे से रुपये ठुंसे थे.

गणपति का मुँह खुला का खुला रह गया, कहने लगा, "दादी इतने रुपये कहाँ से आये?"

दादी बोली, "बताती हूँ, पहले गिन तो सही."

गणपति आज भी यह कहानी सुनाते-सुनाते भावुक हो जाते हैं. उन्हें अच्छी तरह से याद है, जब गिना तो बाईस हज़ार तीन सौ नौ रुपये थे. गणपति ने दादी को प्रश्नवाचक नज़रों से देखा.

दादी कहने लगी "अरे, तेरे भेजे हुए ही रुपये हैं. ले ले, तेरी कमाई के ही हैं."

"यह वह पैसे हैं जो मैं भेजता था तुम्हें हर महीने."

"तो और कहाँ से आयेंगे?"

"और दादी तुम खर्च नहीं करती थीं? ऐसे ही रख लेती थी."

"मुझे तो ज़रुरत थी नहीं, पर तुझसे कहती मत भेज तो यह भी खर्च कर देता. देख ले बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है. अब ले आ ना मोटर साइकिल."

"नहीं दादी, यह रुपये तो तेरे हैं."

"मैं क्या करूगीं? तेरे हैं, तेरे काम आ जायेंगे, वरना यही रखे रहेंगे."

गणपति बताते हैं की जब उन्होंने पहली बार अपनी दादी के सौगात वाले पैसे से मोटर साइकिल खरीदी और उस पर बैठ कर अपने गाँव गए तो उन्हें लगा की सारी दुनिया उनके क़दमों में है. पर इस तरह अनजाने में गणपति की दादी ने सिर्फ गणपति को ही नहीं, हम सबको एक अज़ीम सीख दी. उन्हें पाता ही नहीं की उन्होंने मेरे जैसे कितने लोगों को बूँद-बूँद से कैसे घड़ा भरता है यह बिना बड़ा उपदेश दिए कैसी सरलता से सिखा दिया. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद दादी जी.