Monday, May 03, 2010

"बोले सो कुंडा खोले"

खाने को मेज़ पर बैठ कर खाने का प्रचलन तो बहुत बाद में हमारे परिवार में आया. पहले ऐसे थोड़े ही था की अगर दाल में नमक कम है तो अपने पास बैठे व्यक्ति से कहा कि, "कृपया, क्या आप नमक उठाने की ज़हमत करेंगे?" और नमकदानी ले कर, धन्यवाद दे कर, बहुत शिष्टाचार-पूर्वक अपनी दाल में नमक छिड़क लिया. जब आप रसोई में बैठ कर खाना खा रहे होते है, और आपको दाल में नमक कम लगता है, और आपने जो कहा की इसमें नमक कम है तो आप फसें. अब बाकी सारे लोग जो चुपचाप कम-नमक की बेस्वाद दाल सपोड़ रहे थे, एकदम से चिल्लायेंगे, "जो बोले सो कुंडा खोले." अब आपको मिसरानी जी के पास जा कर नमक मांगना पड़ेगा.

यह कोई आसन काम तो होता नहीं था. आपको मिसरानी जी के पास जा कर, बिलकुल पास जा कर, हलके से मिन्नत भरे स्वर में यह याचना करनी पड़ती थी कि "मिसरानी जी, हमें आज दाल में नमक कम लग रहा है." मिसरानी जी इस बात को बिलकुल हँस कर नहीं ले सकती थी कि कोई उनकी बनाई हुई दाल में मीन-मेख निकाल दे. हालाँकि यह बात जानते हुए, आपने बहुत मक्खन लगाते हुए केवल यही कहा था कि आपको आज दाल में नमक कम लग रहा है. वह भी ऐसे कहा कि लगे इसमें मिसरानी जी का तो कोई दोष हो ही नहीं सकता. यह समस्या तो हमारी है. पर क्या मिसरानी जी समझती नहीं है कि यह कल का छोरा, मेरे खाने में दोष निकाल रहा है. इसका बाप भी मेरे सामने कुछ कह नहीं सकता, और इसे देखो! चला आया नमक मांगने. बहुत झाँये-झाँये करने के बाद एक छोटी कटोरी में नमक तो मिल जाता था, पर जब तक उसे वापिस अपनी थाली तक ले कर जाएँ, उससे पहले ही उसको बाकी सारे लोग झपट लेते थे. यानि, बोले भी, कुंडा खोला भी पर गले मिला कोई और!

फिर पिटे-पिटाये एक दिन पहुँच गए माँ के पास. "क्या है यह माँ? एक तो मिसरानी जी कम नमक डालती है दाल में. बोलो, तो सब कहते हैं, 'बोले सो कुंडा खोले.' फिर दस बातें मिसरानीजी की सुनो, और फिर किसी तरह नमक ले कर आओ. बीच में दूसरे खानेवाले लूट लें. और कुल मिला कर नमक फिर भी ना मिले."

तो माँ हंसने लगी, "हर बार तुम ही क्यों बोलते हो?"

"तो और कोई बोलता ही नहीं ना, इसलिए!"

"अच्छा, तुम्हें वह कहानी सुनाई थी, उस आदमी की जिसने अपनी ही छवि के कई आदमी बना डाले थे."

"सच में? नहीं पाता, माँ! तुमने कभी सुनाई ही नहीं."

"अच्छा? तो सुनो, एक आदमी था, उसने बहुत किताबें पढ़ी, बहुत ज्ञान अर्जित किया और ऐसी विधि ईजाद की कि उसने अपने जैसे कई लोगों को बना दिया."

"अपने जैसे?"

"हाँ, बिलकुल. ऐसे कि कोई पहचान नहीं सके कि कौन असली और कौन नकली."

"फिर?"

"फिर क्या! फिर एक दिन उसका समय इस दुनिया में पूरा हो गया और यमदूत उसे लेने आये. अब यमदूत परेशान? कौन है असली, कौन है नकली? किसको ले कर जाएँ, किसकी मौत आई है. यमदूत सोच में पड़ गए. क्या करें कि पता लग जाये कि कौन असली है और कौन नकली. इतने में जब देर पर देर हुई तो चित्रगुप्त जी परेशान हुए. दौड़े-दौड़े गए ब्रह्मलोक की ओर, और भगवान से सब हाल कहा."

"फिर?"

"फिर? फिर भगवान समझ गए कि यह तो बात तो यमदूत के बस की नहीं, ना ही चित्रगुप्त के बस की. तो उन्होंने स्वम वहाँ जाने का विचार किया."

"स्वम भगवान ने?"

"हाँ! और भगवान ने जब सोचा तो बस वह प्रगट हो गए जहाँ यमदूत पहले से ही अपना सिर खपा रहे थे कि पता करें कौन असली है और कौन नकली है. भगवान जी ने इतने सारे एक से लोगों को देखा. फिर हँस के कहने लगे कि बहुत अच्छा काम किया है इस इंसान ने, पर देखो तो एक कमी रह गई, वर्ना बिलकुल पता ही नहीं लग पाता."

"अच्छा!"

"बस यह सुनना था कि जो असली आदमी था, जिसने अपनी बाकी प्रतिमूर्तियाँ बनाई थीं, उससे रहा नहीं गया. लपक के बोला, 'क्या कमी रह गई, बताइए तो ज़रा.'"

"भगवान जी ने हंस कर कहा, 'बस यही कमी रह गई. तुम चुप न रह सके. बोले सो कुंडा खोले. अब जाओ, इस लोक में तुम्हारा समय समाप्त हो गया.'"

"ओह-हो! तो मम्मी, अगर वह आदमी कुछ न बोलता तो नहीं मरता. तो बोलना ही गलत है. बस फीकी दाल खाते रहो, कुछ ना बोलो."

"नहीं. बोलो, मगर सोच के."

"सोच के? सोच के क्या?"

"यह तुम सोचो."

"मम्मी! माँ, माँ! ओफ्फो, बताओ तो सही."

"चलो सो जाओ. अब रात बहुत हो गई. कल सोचेंगे."

यही बात मुझे पसंद नहीं आती. बस यह कह देंगे कि सोचो, पर क्या सोचो यह बताएँगे नहीं. कितनी गलत बात है. अब मैं क्या कहूं कि फीकी दाल भी न खानी पड़े और कुण्डी भी ना खोलनी पड़े. सोचते-सोचते कब नींद आ गई पाता ही नहीं चला.

सुबह उठे तो कुछ-कुछ समझ में आया. उस रात जब खाना खाने बैठे तो पता चला कि फिर नमक कम है. पर अब तो मैं समझ गया था कि इधर मैं बोला तो उधर यमदूत, ना बोला तो फीकी दाल. तो मैंने सोच कर कुछ और ही कहा, "वाह! आज तो दाल कमाल की बनी है. नमक, मिर्ची, खटाई सब बिलकुल बढ़िया."

भैया ने आश्चर्य से देखा और बोले, "क्या बात कर रहे हो? नमक तो है ही नहीं."

सबसे जोर से मैं चिल्लाया, "बोले सो कुंडा खोले!"

पाता नहीं भैया ने माँ से वह कहानी सुनी भी थी या नहीं. पर इस बार बढ़िया दाल खाने की बारी मेरी थी, कुंडा खोल कर मिसरानिजी से डांट खाने की उनकी. मैंने देखा माँ भी मिसरानी जी के पास बैठी-बैठी मुँह पर आँचल रख कर हंस रही थीं.

३ मई, २०१०

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