माँ का अंदाज़
मुझे माँ से बस यही एक गिला रह गया कि उन्होंने मुझे कभी अपनी कोई रेसिपी नहीं दी. ऐसा नहीं था कि उनकी रेसिपीस कोई खुफिया होती थीं, या वह मुझे कोई रेसिपी देना ही नहीं चाहती थीं. पर बात यूं थी कि उनका रेसिपी देने का तरीका फर्क था, जिसे में लिख नहीं पता था.
"माँ! बताओ न, इतने अच्छे दम-आलू कैसे बनाती हो?"
"अरे! मरे दम-आलू बनाने में क्या है? बिना काटे पूरे-पूरे आलू बनाओ."
"हाँ, वह तो ठीक है. पर इसका मसाला भी तो कुछ फर्क है."
"हाँ, तो अंदाज़ से मसाला ज्यादा डालो, ज्यादा भूनो. और पानी कम डालो."
"वही मसाला?"
"हाँ वही! बस थोड़ा ज्यादा, और साथ में थोड़ा खड़ा मसाला भी."
खड़े मसाले का मसला वहीं छोड़ कर, अभी दम आलू में सादे आलू से कितना ज्यादा मसाला डालना है यह तय कर लें. तो सोच-साच के फिर पूछा, "माँ!"
"हाँ"
"एक बार पूरा बताओ न, कौन सा मसाला कितना डालना है. बिलकुल वैसे ही बताना जैसा "women 'n Home" की रेसिपी में आता है."
इस बात पर माँ को बहुत हंसी आती.
"तो अब, मरे दम-आलू बनाने के लिए तुम्हें केक बनाने जैसी पूरी रेसेपी चहिए. अरे, अंदाज़ से मसाले डालो, और भून-भान के छुट्टी करो."
"अरे माँ! छुट्टी तो मेरी हो गई. एक अंदाज़ तो मियाँ ग़ालिब का था, और एक है तुम्हारा. यह तो समझ में आता है कि क्या कहना चाह रही हो, पर मैं कैसे बनाऊं यह पता नहीं चलता? तुम बनाती हो तो इतना स्वादिष्ट, और मैं? अरे मुझे तो समझ ही में नहीं आता की कहाँ से शुरू करूँ."
इस बात पर माँ को दया आ जाती. वह कहती, "अच्छा, देखो आलू छील लिए? उन्हें पानी में भिगो दो."
"अच्छा. पर कितने आलू लूँ?"
"कितने जने हैं खाने वाले-उतने अंदाज़ से?"
"अच्छा, फिर?"
"फिर, प्रेशर कुकर में तेल डालो."
"कितना?"
"जितने आलू, उस अंदाज़ से"
"अच्छा, फिर?"
"फिर क्या? जैसे मसाला लेते हैं वैसे ले कर, पीस लो. जीरा, धनिया, मिर्च और हल्दी."
"कितना-कितना?"
"जितने आलू बनाने हों उस अंदाज़ से."
"अच्छा, और आलू उतने, जितने जने खाने वाले..."
"हाँ! और खड़ा मसाला अलग से."
"यह खड़ा मसाला क्या बला है, माँ?"
"अरे, खड़ा मसाला नहीं पता? पूरा-पूरा मसाला."
"अच्छा-अच्छा. कौन-कौन सा? कितना?"
"जौन-जौन सा हो, अंदाज़ से डाल दो."
"अरे मगर कौन सा?"
...
यह वार्तालाप हर बार कुछ इसी अंदाज़ से बहुत देर तक चलता रहता. पर मैं कभी भी माँ जैसे दमदार दम-आलू बनाने कि रेसिपी नहीं पा सका. शायद मैं वैसे आलू बना ही ना सकूं जैसे माँ बनाती थी. आज इस "अम्मा दिवस" पर बस इतना संतोष है कि माँ ने अपना "अंदाज़" मुझे सिखा दिया. उसी अंदाज़ से मैंने जिंदगी जीयी. "जितने जने खाने वाले, उतने आलू लिए. और जितने आलू लिए उतना मसाला डाला." माँ की दुआ से जो भी, जितना भी मसाला मिला, उससे अपने अंदाज़ से खाना पकाया, खाया-खिलाया; और यह जीवन बिना रेसिपी के भरपूर जिया.
माँ तुझे सलाम!
Sunday, May 09, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
हाहा संजय जी, मज़ा आ गया, 'माँ का अंदाज़' पढ़ के!!! बहुत सुंदर रचना है! Thanks for sharing !
क्या, सारी माएं एक जैसी ही होती हैं ? मैंने भी अपनी माँ से बहुत सारी रेसिपे लेने की कोशिश की, पर सब कुछ अंदाज़न ही मिला! Finally अब मैं उनका खाना बनाते समय, विडियो बना लेती हूँ :-)
यही अंदाज़ हमारे घर में भी चलता था और अब शादी के बाद मेरी भी वही आदत पड़ गई.....
सच में बचपन में पहुंचा दिया आपने
Post a Comment