जो लोग उस पार रहते हैं, पानी पे चलते हैं क्या
उनको भी तो किसी नांव की दरकार होती होगी
पतवार तो वह भी लेते होंगे हाथों में भी क़िबला
एक नाखुदा की ज़रूरत तो उनको भी होती होगी
जब घिर के आते होंगे तूफां दरिया पे काले से
उनकी माँ भी तो डर-डर के दुआगो होती होंगी
जब हल छोड़ के पकड़ते होंगे लड़के बंदूके उधर
गोलियों से खेती-बाड़ी तो वहाँ भी न होती होगी
जब किसी को लग जाएँ एक आध आवारा गोली
उनकी भी हमारी तरह आँखे नम तो होती होंगी
इस तरफ का घाट तो तिल-तिल करके टूट रहा
“संजय” न जाने उधर के कछार की गत क्या होगी
Saturday, March 12, 2011
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