उस काल में एक छोटा सा गाँव था, और वहाँ का था एक अदना-सा राजा. पर राजा तो राजा, चाहें कितनी छोटी रियासत ही क्यों ना हो. उसका खूब दबदबा था. जहाँ भी उसकी सवारी जाती, लोग झुक के सलाम करते थे. राजा स्वर्ण-काल के सात्विक विचारों वाला और सज्जन था. पर जैसा होता आया है, उसका मुँहलगा मंत्री या यूँ कह लें कि सेक्रेटरी लाठी-काल की विचारधारा से प्रभावित था. उसकी फिदरत ही, कहते हैं कि, बहुत चालबाज़ और चालाक आदमी की थी. मेरी अपनी राय तो यह है कि राजा में और उसके मंत्री में एक 'जनरेशन-गेप' था. मंत्री का ऐसा मानना था कि स्वर्ण-काल ने आदमी को मुलायम और लाचार बना दिया है, जबकि राजा का यह मानना था कि स्वर्ण-काल का जीवन-मूल्य अमूल्य हैं. पर जैसा होता आया है, राजा को गाहे-बगाहे मंत्री से सलाह लेनी पड़ती थी और अक्सर ना चाहने पर भी उसकी बात माननी ही पड़ती थी.
तो हुआ यूँ कि राजा कि हवेली में हुआ एक बड़ा-सा जलसा, और उसमे बनी खीर! अब राजा के घर की खीर, गाढ़ी ऐसी जैसे रबड़ी. खुशबू ऐसी कि जैसे गुलाब-जल. स्वाद? आ-हा-हा, क्या कहने! मंत्री ने खूब चाट-चाट के खीर खाई. फिर पास बैठी अपनी पत्नी से बोला, "ऐ जी, तुमने ऐसी खीर कभी क्यों नहीं बनाई? हें जी?" उस समय तो उसकी पत्नी चुप रही, घर आते ही ऐसी खरी-खोटी सुनाई की मंत्री के होश उड़ गए, "ऐसी खीर कभी नहीं बनाई-ऐसी खीर कभी नहीं बनाई? कभी अच्छा दूध ला के दिया है? मैं ही जानती हूँ कैसे-कैसे कर के यह पानी जैसा दूध गरम कर-करके बच्चों को पिलाती हूँ. ऐसे मूत जैसे दूध से क्या खीर बनेगी? दूधवाला दूध कम और पानी ज्यादा देता है. एक मेरे मैके में दूध आता था. तुम तो बस कहने को मंत्री हो. दूधवाला हमें पानी और राजा सब को रबडी खिलाता है. पर तुम्हें कुछ दिखे तब ना. सारा दिन, राजा साहिब-राजा साहिब करते रहते हो..."
मंत्री का माथा गरम हो हो गया, मूंछे फडकने लगी. तुरंत दूधवाले को बुला भेजा. बेचारा कृशकाय, दूधवाला झुका-झुका सा, कोर्निश करता दुबारी से घुसा ही था कि मंत्री ने आड़े हाथों लिया. "यह क्या बात है, दूधवाले? हमारे यहाँ दूध पानी जैसा देते हो? पता है हमें मंत्राणी जी से क्या-क्या सुनना पड़ता है?
दूधवाले ने कांपते हुए अर्ज किया कि "मंत्री महाराज, गाय सिर्फ 8 सेर दूध देती है. राजा साहिब के यहाँ ही ५ सेर की खपत है. वह क्या करे? जो तीन सर बचता है उसमे पानी मिला के किसी तरह ५ सेर करके आपके घर पहुंचता है. अब दूध बिना गाय के दिए तो बनाया जा नहीं सकता. गाय को ज्यादे दूध देने पे मजबूर भी तो नहीं किया जा सकता."
मंत्री ने सोच के कहा कि "नहीं ऐसे नहीं. ख़ाली हमारे यहाँ जो दूध आता है उसमे ही पानी क्यों मिलते हो? अगर मिलाना ही है तो सारे में पानी मिलाओ, फिर पांच राजा के यहाँ पांच हमारे यहाँ लाओ."
दूधवाले ने सोचा सस्ते छूटे. स्वर्ण-काल होता तो लगते जूते. तुरंत बोला, "हाँ जी हाँ, कल से जेई करून्ग्गा."
कल से मंत्री भी खुश और मंत्राणी भी. दूध हो गया गाढ़ा और बनने लगी खीर.
कुछ दिन मंत्री ने देखा राजा जी बहुत परेशान हैं. पूछा, "महाराज! क्या बात है?"
राजा जी कहने लगे, "कैसा ज़माना आ गया है. हमें लगता है कि हमारा दूधवाला दूध में मिलावट करता है."
यहाँ मैं आपको बता दूँ कि उन दिनों में 'मिलावट' एक नया शब्द था. बिलकुल ऐसे ही जैसे आजकल 'ओ एम जी' (ओह माय गोड!) हैं. कहने को तो ऑक्सफोर्ड की डिशनरी में आ गया है, पर यदि कोई बुज़ुर्ग उसे प्रयोग करे तो नौजवानों के कान खड़े हो जायें. हाँ तो वही हुआ ना. मंत्री को लगा जानबूझ कर राजा ने मिलावट शब्द का इस्तेमाल किया है वर्ना यह भी तो कह सकता था कि दूध पतला हो गया है. कहीं उसे कोई शक तो नहीं हो गया?
पर मंत्री भी कोई दूध का धुला तो था नहीं, और उसे ख़ूब पता था कि किसी को दूध में कैसे नहलाते हैं. तो भोला बन कर कहने लगा, "सचमुच, महाराज! अरे आपने पहले नहीं बताया. मैं उस दूधवाले की अभी खबर लेता हूँ."
राजा साहिब ने पलट कर पूछा, "कैसे?"
मंत्री सटपटाते हुए बोला, "दूधवाले की तहकीकात की जानी चहिए."
राजाजी ने कहा, "हाँ यह बिलकुल ठीक रहेगा. दरोगा जी को बुलाओ."
आननफान में दरोगा जी को बुलाया गया और उनको दूधवाले की जाँच पर बैठा दिया गया.
मंत्री जी लपक के घर पहुंचे और दूधवाले को बुला भेजा. वह डरता हुआ आया. मंत्री जी उसे दुबारी से सीदे मर्दाने कोठे में ले गए और आँख दिखाते हुए कहने लगे, "देख, तेरे ऊपर तहकीकात की जा रही है. कुछ भी कर, अगर मेरा नाम इसमें आया तो तेरी ख़ैर नहीं."
दूधवाला कहने लगा, "सरकार आप माई-बाप हो. जैसा कहोगे करूँगा. पर दूध तो सिर्फ ८ सेर ही निकलता है, क्या करूँ?"
मंत्री ने कहा, "मुझे नहीं पता. बस. मेरा नाम बीच में आया तो तू होगा और मेरी लाठी, बस चीर के रख दूँगा."
दूधवाला झुक के कोर्निश करता हुआ बाहर चला गया.
कुछ दिन बाद, मंत्री फिर राजा के सामने पड़ा, तो राजा गुस्से से आग-बबूला हो रहा था. "पता नहीं कैसा ज़माना आ गया है. जब से दरोगा को दूधवाले की तहकीकात के लिए बिठाया है, दूध तो एकदम से पतला हो गया. उसमे अजीब सी बू आ रही है. यहाँ तक कि कल रानी साहिबा को दूध पीने के बाद उलटी हो गई."
"अरे, अरे, राजा सहिब! यह तो बहुत ही बुरी बात है. मुझे लगता है कि दरोगा कुछ हेरा-फेरी कर रहा है.
यहाँ मैं आपको बता दूँ कि उस काल में हेराफेरी ऐसा नया शब्द था जैसा "ऐ एस ऐ पी" हो. जो जानता है उसके लिए रोजमर्रा का शब्द है पर जो नहीं जानता उसके लिए "राम जाने क्या है."
पर मंत्री जी तो हेरा-फेरी जानते ही थे. कहने लगे, "महाराज! मेरी मानो तो इस सारे किस्से को उजागार करने के लिए एक गुप्तचर को लगा देते हैं."
राजा जी को लगा बात तो सही है. अब गुप्तचर कहाँ से आये? तो इसमें भी मंत्री जी बहुत काम आये. उन्होंने अपने बेरोजगार भतीजे का इस काम के लिए नाम लिया और राजा साहिब ने मान भी लिया. चलो अच्छा हुआ, मंत्री ने चैन की साँस ली.
पर गुप्तचर के काम करते अभी तीन दिन ही हुए थी कि रानी जी की तबियत इतनी ख़राब हुई कि हकीम जी को रात भर राजा साहिब के हवेली में ही काटनी पड़ी. राजा जी का शक दूध पर गया. मंत्री जी की बत्ती गुल हो गई. तुरंत दूधवाले को बुला भेजा. वह कांपता हुआ आया, बेचारा डर और परेशानी से सूख कर कांटा हो गया था.
घर का दरवाज़ा बंद करके मंत्री जी ने कड़के, "अबे दूधवाले! तू भी मरेगा और हम सबको मरवाएगा. क्या मिलाया दूध में?"
दूधवाला रोने लगा, "सरकार, हम आपको बताये थे ना, दूध तो सिर्फ ८ सेर ही निकलता है. आप मालिक लोंगों को देना पड़ता है २० सेर. तो हमारी घरवाली ने चूने, चने, तेल और असीर के दानों से दूध बनाना सीखा और वही ..."
मंत्री की चीख निकल गई, "असीर के बीज, चूना, तेल? अबे यह क्या कर रहा है, कोई मर गया तो?"
मंत्री दूधवाले को वही रोता छोड़ कर भागा-भागा राजाजी के द्वारे पहुंचा. बोला, "महाराज, मुझे पता चला है, दरोगा और क्या कहूँ मेरा बिगड़ा हुआ भतीजा भी, सब दूधवाले से मिल गए हैं. आप उनको निकल बाहर कीजिये.
राजा बोला, "मुझे भी शक था. अगर तुम्हारी पैनी निगाह ना होती तो वह मुझे यूं ही चूना लगाते रहते."
चूने की बात सुन कर मंत्री थोड़ा घबराया, फिर तुरंत अपने आप को सयंत करता हुआ बोला, "सत्य वचन, महाराज!"
राजा ने दरोगा और गुप्तचर दोनों को निकाल दिया. मंत्रीजी की बात सच हुई. अगले दिन से ही दूध एकदम से ठीक हो गया. मज़े की बात यह थी कि अब रानी और मत्रानी दोनों प्रसन्न थीं. दूधवाला भी और राजा भी. मंत्री की तो ख़ैर पांचों अगुलियां घी मैं और सिर कढ़ाई में था ही. उसके नाकारा भतीजे को भी दूधवाले की गुप्तचरी के अनुभव कि वजह से पड़ोस के राजा के यहाँ औडिटर कि नौकरी मिल गई.
ऐसा था स्वर्ण-काल का अंत और लाठी काल का प्रारंभिक समय!
1 comment:
Very nice, Sanjay-ji! During investigations, from credible sources, I've heard of bribes being given by one government department in India to another. So this is certainly appropriate.
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